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दूसरा हो जाता है । भक्त का दिल तो खुश होता ही है, चारों मोर की हवा भी खुशी का पैगाम ले दौड़ उठती है । कबीर की बहुरिया के घर, उसके पति राजा राम स्वयं प्राये, तो उसके पुलक का ठिकाना न रहा । प्रकृति महक उठी, मंगल गीतों की ध्वनियाँ निनादित होने लगीं ।' सुमति के प्रिय भी पाये । वे निरंजननाथ कहे जाते हैं-कामदेव-से सुन्दर और सुधारस-से मधुर हैं। उनके पाते ही सुमति पाल्हादित हो उठी । खञ्जन-जैसे उसके चपल नयन स्थिर हो निरखने लगे रूप के समुद्र को। ऐसा लगा जैसे कि प्रकृति मधुर गीतों से भर गई है । भय मौर पाप रूपी मल, जिसकी दुर्गन्धि अन्तः से बाहर तक विस्तृत होकर अपवित्रता का संचार करती ही रहती थी, न जाने कहाँ विलीन होगया ।
"म्हारे प्रगटे देव निरजन । अटको कहा सर भटकत कहा कहूँ जन रंजन ।।१।। खंजन दृग-दृग नयनन गाऊँ चाऊँ चितवत रजन सजन घट अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय खंजन ।। २ ।। वो ही कामदेव होय कामघट वो ही सधारस मंजन ।
और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन ।। ३ ।। जायसी का रतनसेन भी जब लौटा तो जो पवन नागमती के शरीर को भूने डाल रहा था, शीतल होकर बहने लगा। सब संसार हरा-भरा हो गया, नदी
और तालाब जल से प्रापूर भर गये, स्थान-स्थान पर जमी हुई दूब देखकर ऐसा लगा, जैसे पृथ्वी हर्ष-मग्न हो लहक रही हो । दादुर, मोर और कोकिल सब बोल उठे। अभी तक न जाने कहा अलोप हो गये थे। जब 'मानसर' को उसका पिय पद्मावती के रूप में मिल गया तो "देखि मानसर रूप सुहावा हिय हुलास पुरइन होइ छावा । अन्धियार रैनि मसि छूटी, भा भिनिसार किनर रवि फटी ।।" ४ उस शशि रेखा को देखकर कुमुद विकसित हो गये। उसने जहाँ देखा चमक फैल गई, "नयन जो देखा कॅवल भा निरमल नीर सरीर । हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर" ।।५ अर्थात् उस तालाब का अंग-अंग
१. कबीर ग्रन्थावली, डा. श्याममन्दरदास सम्पादित, का० ना०प्र० सभा वाराणसी, चतुर्थ
सस्करगण. पद भाग, पहला पद्य, पृ० ८७ । २. बनारसी विलास, जयपुर, पृ० २४० क । ३ . पदमावत, चित्तौड़-पागमन बण्ड, तीसरी चौपाई, पृ० १८७ । ४. वही, मात समुद्र ग्वण्ड, दमवी चौपाई, २-३ पक्ति, पृ० ६७ । ५. वही, मानमरोदक ग्वण्ड, ८ वी चौपाई का दोहा, पृ० २५ ।
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