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ला सके। कवि कशललाभ ने अपने गुरु पूज्यवाहन के आगमन पर प्राकृतिक आल्हाद का चित्र खींचा है
"प्राव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे । जोवइ प्रीयडा वाट सुकोमल कामिनी रे ।। चातक मधुरइ सादिकि पिऊ-पिऊ उचरइ रे । बरसह घण बरसात सजल सरवर भरइ रे ।। इस अवसरि श्री पूज्य महामोटा जतीरे ।
श्रावकना सुख हेत आया त्रम्बावती रे ।।"१ श्री साधूकीति का, गुरु भक्ति से सम्बन्धित एक सरस गीत उपलब्ध है। उसमें एक शिष्य पाने वाले गुरु को देखने के लिए वैसे ही बैचेन है , जैसे कोई प्रोषितपतिका अपने पति को देखने के लिए। उसका कथन है-“हे सखि ! मेरे लिए तो वही अत्यधिक सुन्दर है, जो यह बतादे कि हमारे गुरु किस मार्ग से होकर पधारेगे। श्री गुरु मभी को सुहावने लगते हैं । वे जिस पुर में प्राजाते हैं, शोभा का घाम ही बन जाता है। उनको देखकर हर कोई जयजयकार किये बिना नही रहता। जो गुरु की आवाज को भी जानता है, वह मेरा साजन है। गुरु को देखकर ऐसी प्रसन्नता होती है, जैसे चन्द्र को देखकर चकोर को और सूर्य को देखकर कमल को । गुरु के दर्शन से हृदय संतुष्ट और मन प्रसन्न होता है।"२
गुरु-विरह की ऐसी व्याकुलता जैन हिन्दी रचनाओं के अतिरिक्त और कहीं देखने को नहीं मिलती। जायसी और कबीर ने ब्रह्म के विरह का वर्णन तो किया है, किन्तु उनकी रचनाओं में कहीं भी गुरु-विरह का उल्लेख भी नहीं है।
गुरु के 'ज्ञानप्रदाता'-रूप की महिमा और शिष्य को अज्ञानता का सम्बन्ध है, उसे जैन और अजैन कवियों ने समान रूप से कहा है, किन्तु इस कथन में भी जैसी मरसता जैन रचनायो में देखी जाती है, निर्गुण काव्य में
१. कुशललाम, पूज्यबाहगगीत, ऐतिहासासिक जैन काव्य-संग्रह, अगरचन्द नाहटा
सम्पादित, कलकत्ता, पृ० ११६-११७ । २. साधुकोति-- श्री जिनचन्दसूरि गीत, ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह, कलकत्ता,
पृ०६१।
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