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१६ वीं शताब्दी के कवि जयलाल ने तीर्थङ्कर विमलनाथ से प्रार्थना की है
तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोरा जी। राजरिधि मांग नहीं, भवि भवि दरसन तोरा जी ।।
भूधरदास ने जैसी दीनता दिखाकर भक्ति का वर मांगा है, अन्य कोई नहीं मॉग सका
भर नयन निरखे नाथ तुमको और वांछा ना रही। मन ठठ मनोरथ भये पूरन रंक मानो निधि लही ।। अब होउ भव भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसो कीजिये। कर जोरि भूधरदास बिनवै. यही वर मोहि दोजिये ।।
जन भक्त-कवियों का यह भी विश्वास है कि भक्ति से मुक्ति मिलती है। कवि बनारसीदास ने लिखा है कि जिनेन्द्र देवों के देव हैं, उनके चरणों का स्पर्श करने से मुक्ति स्वयमेव मिल जाती है । कवि द्यानतराय और भूधरदास का भी ऐसा ही कथन है : जैन कवियों ने ज्ञान को भी भगवत्कृपा से ही उपलब्ध होना स्वीकार किया है । इससे जैनों के मूल सिद्धांत में कोई बाधा नहीं पाती; क्योंकि जैन-भक्ति भगवान् में सीधा कर्तृत्व स्वीकार नही करती, अपितु प्रेरणा-जन्य कर्तृत्व मानती है । भगवान् के सान्निध्य मात्र से ही शुद्ध भावों का उदय होता है और उससे चक्रवर्ती की विभूति तथा तीर्थङ्करत्व नाम-कर्म तक का बंध होता है। जहाँ तुलसीदास ने केवल भगवत्कृपा से ज्ञान और मोक्ष को स्वीकार किया है, वहाँ जैन कवियों ने भगवत्कृपा के साथ-साथ स्व-प्रयास को भी यथोचित रूप में मान लिया है।
मध्यकाल के सभी कवियों ने अपने-अपने आराध्य को अन्य देवी से बड़ा माना है। उनका ऐसा मानना राजसिकता का नहीं, अपितु अनन्यता का द्योतक है। अपने आराध्य में ध्यान के केन्द्रित होने से ही उन्हे अन्य देव फीके जंचते हैं। जैन कवियों ने भी जिनेन्द्र को मर्वोत्तम कहा है; किन्तु अन्य देवों के प्रति वे कटु नहीं हो सके हैं । सूरदास ने 'हय गयंद उतरि कहा गर्दभ चढ़ि धाऊँ' कहकर अन्य देवों को 'गधा' तक बना दिया है । भूधरदास ने केवल इतना कहा- कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय, आक दूध गाय दूध अन्तर घनेर है।' इसी भांति भगवान् को उपालम्भ देने में भी जैन कवियों ने उदारता का परिचय दिया है। सूरदास
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