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कि 'सु' शब्द ज्ञान का द्योतक है। और श्रद्धा का घनारूप ही भक्ति कहलाता है । अतः 'सुश्रद्धा' में यदि एक ओर ज्ञान समाता है तो दूसरी प्रोर भक्ति । ज्ञान र भक्ति का समन्वित रूप ही हिन्दी भक्ति काव्य की प्रन्तश्चेतना का मुख्य स्वर है । बनारसीदास तो उसके निदर्शन ही हैं ।
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जिस आत्मा की बात ऊपर कही गई है, वह परमात्म रूप धारण कर चुकी है। जैन शास्त्रों में आत्मा के तीन रूप माने गये हैं--बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इनमें बहिरात्मा नितांत मिध्यात्व से ओत-प्रोत रहती है । उसमें परमात्मा को भी देखने की शक्ति नहीं होती । अन्तरात्मा शुद्ध होती ।' उसे 'परमात्मपद' के सन्निकट ही समझिये । परमात्मा श्रात्मा का विशुद्धतम रूप है । उसको ब्रह्म भी कहते हैं। योगीन्दु ने उसको 'निष्कलब्रह्म' की संज्ञा से अभिहित किया है । 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य' में वही ब्रह्म आराध्य है। और साधारण प्रात्मा भक्त । अर्थात् एक ही आत्मन् के दो रूपों में एक सेवक है तो दूसरा सेव्य, एक भक्त है तो दूसरा भगवान्, एक पुजारी है तो दूसरा पूज्य । यहाँ उपनिषदों की भाँति आत्मा परमात्मा का खण्ड प्रश नही है, अपितु वह स्वयं विशुद्ध होकर परमात्मा बन जाता है । फिर भी उसके रूपों में तो भेद है ही । इसी कारण उनमें भक्त और भगवान् वाली संघटना बन पड़ती है । बनारसीदास ने 'अध्यात्मपद पंक्ति' में आत्मा और परमात्मा को इसी रूप में प्रस्तुत किया है।
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भक्ति - प्रेम और श्रद्धा का समन्वित रूप है । बनारसीदास ने भक्ति के श्रद्धा वाले पहलू को ही नही, किन्तु प्रेम को भी समरूप से ही अपनाया । उन्होंने श्रात्मा को पत्नी और परमात्मा को पति बनाकर दाम्पत्यरति का रूपक घटित किया है । जव दो में प्रेम होता है तो एक-दूसरे का वियोग असह्य हो जाता है । वियोग के दिन तड़फते - तड़फते ही बीतते है । बनारसीदास के 'अध्यात्मगीत' में इस तड़फन का एक चित्र ही उपस्थित किया गया है । श्रात्मा रूपी पत्नी परमात्मा रूपी पति के वियोग में इस भाँति तड़फ रही है, जैसे जल के बिना मछली । उसके हृदय में पति से मिलने का चाव निरन्तर बढ़ रहा है । वह
१. परमात्मप्रकाश, योगीन्दु, डा० ए० एन० उपाध्ये सम्पादित, रायचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, १।११।१५, पृ० २०-२४ ।
२. देखिये बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २२२ ।
३. मैं बिरहिन पिय के आधीन ।
यों तलफों ज्यों जल बिन मीन ||
- श्रध्यात्मगीत, तीसरा पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० १५६
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