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चौदहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि रल्हने 'जिरणदत्त चौपई' की रचना वि० सं० १३५७ में की थी । इसकी एक हस्तलिखित प्रति जयपुर के पाटोदी के मंदिर में मौजूद है । इसमें पांच सौ पचपन पद्य हैं। इसमें जिनदत्त से सम्बन्धित भक्तिपरक भाव प्रकट किये गये हैं । काव्यत्व की दृष्टि से भी कृति महत्वपूर्ण है । इसी शताब्दी के कवि घेल्हने 'चउवीसी गीत' की रचना वि० सं० १३७१ में की। यह सरस रचना है । इसमें चौबीस तीर्थङ्करो की स्तुति की गयी है ।
इस शताब्दी में श्रानन्दतिलक ने 'महारणंदिदेउ' नाम की रचना का निर्माण किया । इसकी एक हस्तलिखित प्रति ग्रामेर-शास्त्र भण्डार जयपुर में मौजूद है । अब तो उसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी पत्रिका में हो चुका है। इसमें ४३ पद्य हैं । यह काव्य श्राध्यात्मिक भक्ति का निदर्शन है । गुरु महिमा के दो पद्य देखिए,
"गुरु जिरणवरु गुरु सिद्ध सिउ, गुरु रयग्गत्तय सारु । सो दरिसाव अप्प परु आरणदा भवजल पावइ पारु ।। ३६ ।। सिक्व सुरगइ सद्गुरु भगइ परमाणंद सहाउ । परम जोति तमु उल्ह्सई प्राणदा कीजइ रिगम्मलु भाउ ||२६|| "
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