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मात्मा और परमात्मा के तादात्म्य से उत्पन्न होने वाला आनन्द केवल कबीर के भाग्य में ही नहीं बदां था, बनारसीदास को भी मिला और उन्हें उसका स्वाद कामधेनु, चित्रावेलि और पंचामृत भोजन जैसा लगा । उनकी दृष्टि में राम रसिक और राम-रस पृथक् नहीं रह पाते, दोनों एक हो जाते हैं । " द्यानतराय ने उस प्रानन्द को गूंगे के गुड़ के समान कहा, जिसका अनुभव तो होता है, किन्तु कहा नहीं जा सकता। कबीर ने इसी को 'गूगे केरी शर्करा, बैठे ही मुसकाय' कहकर प्रकट किया था। समरसता से उत्पन्न होने वाले इस श्रानन्द की बात कबीर से कई शती पूर्व प्राचार्य योगीन्दु ने 'परमात्मप्रकाश' में स्वीकार की थी । उन्होंने 'रिगच्चु गिरंजरणु रामउ परमारणंदसहाउ' कहकर अपने नित्य, निरंजन और ज्ञानमय परमात्मा को परमानन्द-स्वभाव वाला घोषित किया । एक दूसरे दोहे में - 'केवल सुक्ख सहाउ' लिखा, ' अर्थात् उसका स्वभाव पूर्ण सुखरूप है । 'परमसुख और परमानन्द' पर्यायवाची हैं। तात्पर्य हुआ कि परमानन्द और केवल - - सुख स्वभाव वाले ब्रह्म से जिसका तादात्म्य होगा, वह भी तदुरूप ही हो जायगा । इस आनन्द को पूर्णतया स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक पद्य में लिखा- " समभाव में प्रतिष्ठित योगीश्वरों के चित्त में परमानन्द उत्पन्न करता हुआ जो कोई स्फुरायमान होता है, वही परमात्मा है ।" अर्थात् आत्मा जब परमानन्द का अनुभव कर उठे, तब समझो कि परमात्मा मिल गया है । 'परमानन्द' के 'परम' की व्याख्या करते हुए उन्होंने उसे अद्वितीय का वाचक लिखा है । उनका कथन है- "शिव-दर्शन से जिस परमसुख की प्राप्ति होती है, यह इस भुवन में
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१. अनुमो के रस को रसायन कहत जग, अनुभो अभ्यास यहु तीरथ की ठौर है । अनुभौ की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि अनुभौ को स्वाद पच श्रमृत को कोर है ।।
- बनारसीदास : नाटकसमयसार, बम्बई, वि० सं० १९८६, पृ० १७ ।
२. देखिए वही ।
३. द्यानतविलास, कलकत्ता, ६० वां पद, पृ० २५ ॥ ४. रिणन्तु गिरंजणु गाणमउ परमाणंद सहाउ ।
जो एहउ सो संत सिउ तासु मुरिण ताहि माउ ॥ - २।१७ ।
५. केवल दंसरण गारणमउ केवल सुक्ख सहाउ ।
केवल afra सो मुहि जा जि परावरु भाउ ||२४|| ६. जो सम भाव परिखियह जोइह कोई फरेइ । परमाणंदु जणंतु फुडु सो परमप्पु हवेइ ||३५||
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