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हो या अजेन, एक प्रेमी अपने दिल का क्या करे ? भगवान चाहे निर्मोह हो या निर्गुण या शून्य-सनेही, जब उससे प्रेम किया है, तब प्रेमी का हृदय उसके साथ रभस प्रालिंगन को मचलेगा ही। कबीर का तो बाद में मचला, किन्तु मुनि रामसिंह का पहले ही मचल चुका था। जैन प्राचार्यों ने सिद्धांत की दृष्टि से लिखा है कि मचलना बुरा नहीं, अच्छा होता है । भगवान के प्रति किया गया राग पाप के बन्धका कारण नहीं बनता। इसी कारण तो जिस भांति कबीरदास की प्रात्मा पिय-मिलन के लिए बेचैन हुई, प्रिय-प्रागमन के लिए सन्चित बनी उसी भांति मुनि रामसिंह को आत्मा ने अपनी सखी से कहा थाप्रियतम को बाहर पांच इन्द्रियों का स्नेह लग गया है, अत: ऐसा प्रतीत होता है कि उसका पागमन नहीं होगा।"२ प्रिय-प्रागमन के लिए दोनों की बेचैनी समान है, दोनों का संदेह समान है, दोनों की चिन्ता समान है। कबीर का प्रेम अहेतुक न बनता, यदि उन पर रामानन्दी भक्ति का प्रभाव होता-उन्हें वह योगधारा भी जन्म से मिली थी, जिसमें फक्कड़पन था और थी मस्ती। और, उस योगधारा में जो अहेतुक वाला पुट था, वह अवश्य ही जैन परम्परा में जाने या अनजाने कैसे भी आया होगा । मैं नाथ-सम्प्रदाय को अनेक सम्प्रदायों का संकलन कह चुका हूँ । जैनों में योग वाली बात अधिक थी। इसलिए अहेतुकता भी अधिक थी।
__ अहेतुक प्रेम का निर्वाह हिन्दी के जैन कवियों ने खूब किया। पत्नी प्रिय के वियोग में इस भांति तड़प रही है, जैसे जल के बिना मछली। उसके हृदय में पति से मिलने का चाव निरन्तर बढ़ रहा है । वह अपनी समता नाम को सखी से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह समा जाऊंगी, जैसे
१. देवगुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजुदेसु अणुरत्तो । सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरमो होइ जोई सो ॥
-प्राचार्य कुन्दकुन्द मोक्षपाहुड़, ५२ वी गाथा । २. पंचहि बाहिरु णेहडउ हलि सहि लग्गु पियस्स । ___तासु ण दीसइ पागमणु जो खलु मिलउ परस्स ।।
-पाहुड़दोहा, ४५ वां दोहा, पृ० १४ । ३. मै बिरहिन पिय के अधीन । यो तलफों ज्यों जल विना मीन ।
-बनारसीदास : प्राध्यात्मगीत, तीसरा पद्य, बनारसी विलास, जयपुर पृ० १५६ ।
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