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विचार व्यक्त किये हैं । अर्थात्, उन्होंने भी जिनेन्द्र को शंकर, विष्णु और ब्रह्मा कहा; किन्तु उनका शंकर शं'करनेवाला था,प्रलय करनेवाला नहीं।' उनका विष्णु वह नहीं था, जिसने नरसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकश्यप को मारा और अर्जुन का रथ हांककर कौरवों का विनाश किया; अपितु वह, जो समूचे संसार में फैला है और सब पदार्थों को हस्तामलकवत् देखता है। उनका ब्रह्मा 'क्षत्तृष्णारोगरहित' था, उर्वशी के मोह-जाल में फंसनेवाला नहीं । अन्त में जिनेन्द्र का रूप बताते हुए अकलंकदेव ने लिखा- "जिसके माथा नहीं, जटा नहीं, कपाल नहीं, मुकुट नहीं, माथे पर चन्द्र नहीं, गले में मुण्डमाल नहीं, हाथ में खट्वाङ्ग नही, भयकर मुख नही, काम-विकार नही, बैल नहीं, गीत-नृत्यादि नहीं, जो कर्मरूप अञ्जन से रहित निरञ्जन है, जिसका सूक्ष्म ज्ञान सर्वत्र व्याप्त है, जो सबका हितकारी है, उस देव के वचन विरोध-रहित, अनुपम और निर्दोष हैं।" वह राग-द्वेष प्रादि सब दोषों से रहित है। ऐसा देव पूजा करने योग्य है, फिर भले ही वह बुद्ध हो, वर्द्धमान हो, बह्मा, विष्णु या शिव हो।
प्राचार्य योगीन्दु ने इस परम्परा का यथावत् पालन किया। उन्होंने लिखा कि परमात्मा को हरि, हर, ब्रह्मा, बुद्ध, जो चाहे सो कहो, किन्तु परमात्मा तभी
१. सोऽय कि मम शङ्करो मयतृषारोषात्तिमोहक्षयं
कृत्वा य. स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमङ्कर. शङ्करः ।।२।।
२. यत्राद्यन विदारित कररुहैदैत्येन्द्रवक्षःस्थलम् ।
सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे योऽसारयत्कौरवात् ।। नासौ विष्णुरनेककाल विषयं यज्ज्ञानमव्याहतम्
विश्व व्याप्य विजृम्भते स तु महा विष्णु. सदेष्टो मम ।।३।। ३. उर्वश्यामुदपादि रागबहुल चेतो यदीयं पुनः ।
पात्री दण्डकमण्डलुप्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थितिम् ।। प्राविर्भावयितु भवन्ति स कथ ब्रह्मा भवेन्मादृशाम् ।
क्षुत्त ष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः ।।४।। ४. माया नास्ति जटाकपालमुकुटं चन्द्रो न मुर्दावली
खट्वाङ्ग न च वासुकिन च धनु. शूलं न चोग्रं मुखं । कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं न नृत्य पुनः सोऽस्मान्पातु निरजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः ॥१०॥
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