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उन्होंने पत्थर की मूर्ति के पूजने को मझधार में डूबने के समान माना है । ' दादू का कथन भी मिलता-जुलता है-"कोई द्वारका दौड़ता है, कोई काशी श्रौर कोई मथुरा; किन्तु साहिब तो घट के भीतर मौजूद हैं।” २ संत कवि की यह मान्यता कवियों में अधिकाधिक देखी जाती है । 'परमात्मप्रकाश' में लिखा है"आत्मदेव न तो देवालय में रहता है, न शिला में, न लेप्य में और चित्र में, वह तो समचित्त में निवास करता है ।" ३ योगीन्दु ने योगसागर में भी लिखा- "श्रुतः केवली ( सब विद्याओं का पूर्ण जानकार ) ने कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं है, वह तो देह - देवालय में विराजमान रहता है, इसे निश्चित समझो । यह सासारिक जीव उसके दर्शन मन्दिरों में करना चाहता है, यह उपहासास्पद है ।" ४ मुनि रामसह ने पाहुड़दोहा में उनको मूर्ख कहा है, जो शिव को देवालयों में ढूंढते फिरते हैं, अपने देह - मन्दिर को नहीं देखते, जहा वह है । श्रानन्दतिलक का कथन है
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महात्मा
अठसटि तीरथ परिभमइ, मूढा मरहि भमंतु । प्पा बिन्दु न जाणहीं, आणंदा घट महि देउ श्ररणंतु ॥
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१. पाहा केरा पूतला
करि पूर्ज करतार | वूढे काली धार ॥
इसी भरोस जे रहे, ते
२. दादू केई दौड़े द्वारिका,
- देखिए वही, पहला दोहा । केई कासी जाहि ।
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कई मथुरा कों चले, साहिब घट ही मांहि ||
-- दादू की वारणी, यशपाल - संपादित, दिल्ली,
४. तिथहि देवलि देउ रवि इम सुइकेवलिवुत्त । देहा देवलि देउ जिणु एहउ जागि गिरत ||४२ ॥ देहा देवलि देउ जिणु जणु देवर्लाहि रिगएइ । हासउ मह पsिहाइ इहु सिद्ध भिक्ख ममेइ ||४३||
पृ० २६ का अन्तिम पद्य ।
३. देउ र देउले गवि सिलए बि लिप्पइ गवि चित्ति । श्रखउ गिरजुग गागमउ सिउ संठिउ समचिति ॥ -- परमात्मप्रकाश, १।१२३, पृ० १२४ ।
५. मूढा जोवइ देवलइ लोर्याह जाइ कियाई ।
देह ग पिच्छs जपरिणय जहि सिउ सत ठियाई ।। १५० ।।
६. देखिए 'आणंदा' की हस्तलिखित प्रति, ( आमेर - शास्त्र भंडार, जयपुर), पद-सं० ३ ।
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