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सघन वृक्ष बन प्रति विस्तारो। रत्ती अग्नि करे दह छारो॥ जो बालक क्षत्रिय को होय ।
सूर स्वभाव न छोड़े कोय ॥" कुशललाभ जैसलमेर के रावल हरराज के प्राश्रित कवि थे। रावल हरराज का समय सत्रहवीं शती का प्रथम पाद माना जाता है। कुशल-लाभ का रचनाकाल भी यही था। अनेक विद्वानों को विदित है कि कुशल-लाभ ने राजस्थानी के आदि काव्य 'ढोला मारू रा दूहा' के बीच में अपनी चौपाइयां मिलाकर प्रबन्धात्मक उत्पन्न करने का प्रयास किया था। कुशललाभ खरतरगच्छ के समर्थगुरु अभयदेव उपाध्याय के शिष्य थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उन्हें कवित्व शक्ति जन्म से ही मिली है। उन्होंने भक्ति, शृगार और वीर जैसे रसों पर अधिकार पूर्वक लिखा। उनकी रचनाओं में श्रीपूज्यवाहणगीत, स्थूलिभद्र स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवनम्, गौड़ी पार्श्वनाथस्तवनम् और नवकारछन्द, भक्ति से सबंधित हैं। श्री पूज्यवाहणगीत' की विशेषता है कि उसमें गुरु के विरह से उत्पन्न हुई अनुभूतियो का सरस वर्णन किया गया है। गुरु की महत्ता उद्घोषित करने वाले दोहो से हिन्दी साहित्य भरा पड़ा है। किन्तु गुरु-विरह के ऐसे सरस भाव अन्यत्र देखने को नहीं मिलते ।
साधुकीर्ति (वि० सं० १६१८) खरतरगच्छीय अमरमाणिक्य के शिष्य थे। उन्होंने स्थान-स्थान पर जिनचन्द्रसूरि का स्मरण किया है। साधुकीर्ति भक्त कवि थे, उन्होंने अनेक स्तुतियों की रचना की है। उनकी कृतियों में पद्यसंग्रह, चूनड़ी, शत्रुञ्जयस्तवन ,विमलसिरिस्तवन, प्रादिनाथस्तवन, सुमतिनाथस्तवन, नेमिस्तवन और नेमिगीत मुख्य हैं। साधुकीर्ति मुक्तक काव्यों के रचने में सिद्धहस्त थे। उदयराज जती ने भी अनेक भक्तिपरक काव्यों का निर्माण किया है । उनका रचनाकाल वि० सं० १६६७ के प्रासपास माना जाता है। वे जोधपूर के समीप किसी स्थान के रहने वाले थे। उनके गुरु खरतरगच्छीय भद्रसार थे। उन्होंने भजन छत्तीसी, गुण बावनी, चौबीस जिन सवैया, मनः प्रशसा दोहा और वैद्यविरहिणी प्रबन्ध रचना की थी। इनमें 'वैद्यविरहिणी प्रबन्ध' एक रूपक काव्य है । हीरानन्द मुकीम आगरा के ख्याति प्राप्त जौहरी थे। शाहजादा सलीम से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था। उन्होंने सम्मेद शिखर जी की यात्रा के लिए सघ निकाला था। शाह हीरानन्द कवि भी थे। उनकी अध्यात्मबावनी एक कृति है । उसका मूल स्वर रहस्यवाद से सम्बन्धित है । हेम विजय
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