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कि चित्त में भरा पाप-मल बाह्य स्नान से नहीं, अपितु जिनेन्द्र के ध्यान रूपी तालाब में नहाने से गलेगा। तीर्थ क्षेत्र को व्यर्थता सम्बन्धी एक दृष्टान्त इस भांति है:
"अठसठि तीरथ परिभमइ, मूढा मरहि भमंतु । अप्पा विदु न जाणही प्रानन्दा घट महिं देउ अरणंतु ।।"
कवि चतरूमल का जन्म श्रीमाल वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम जसवंत था। चतरूमल ने जैन पुराणों का अध्ययन किया और उनका मन नेमीश्वर के चरित्र में विशेष रूप से रमा । उन्होंने वि० सं १५७१ में 'नेमीश्वर गीत' को रचना की थी। यह एक गीतकाव्य है । भट्टारक ज्ञानभूषण मूलसंघ के सरस्वती गच्छ के बलात्कारगण की परम्परा में हुए हैं । 'जैन धातु प्रतिमालेख संग्रह' से स्पष्ट है कि वे वि० सं० १५३२ से १५५७ तक भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित रहे। वे संस्कृत, गुजराती और हिन्दी के विद्वान् थे। हिंदी में लिखी हुई उनकी दो रचनाएं उपलब्ध हैं-प्रादीश्वरफागु और पोसहरास । प्रादीश्वर फाग एक उत्तम कृति है । भट्टारक शुभचन्द्र पद्मनन्दि की परम्परा से संबंधित है। उनका रचना काल वि. सं. १५७३ से १६१३ तक माना जाता है। वे अपने समय के गणमान्य विद्वान् थे। उनका संस्कृत भाषा पर अधिकार था। वे 'षटभाषा कवि चक्रवर्ती' कहलाते थे। उन्होंने हिन्दी में तत्वसारदूहा की रचना की है। इसकी हस्तलिखित प्रति जयपुर में ठोलियों के जैन मन्दिर में मौजद है। इस रचना में संत काव्य की ही भांति वर्ण और जाति के भेद को कृत्रिम माना गया है, गुरु की महिमा का उल्लेख है और चिदानन्दरूप प्रात्मा के चिन्तवन से मोक्ष का मिलना कहा गया है। इन्हीं की रची हुई एक दूसरी हिन्दी की कृति 'चतुर्विशति स्तुति' अभी प्राप्त हुई है।
विनयचन्द्रमुनि इसी शती के एक सामर्थ्यवान कवि थे। वे माथुरसंघीय भट्टारक बालचन्द्र के शिष्य थे। वे विनयचन्द्र सूरि से स्पष्टतया पृथक हैं। विनयचन्द्र सूरि चौदहवीं शती के रत्नसिंह सूरि के शिष्य थे। मुनि विनयचन्द्र गिरिपुरी के राजा अजेय नरेश के राज्यकाल में हुए हैं। उनका समय वि० सं० १५७६ माना जाता है। उनकी तीन कृतियां उपलब्ध हैं-चुनड़ी, निर्भर पंचमी कथा, पंचकल्याणकरासु । चूनड़ी एक रूपक काव्य है। इसमें कुल ३१ पद्य हैं। इसमें एक पत्नी ने पंचगुरु से प्रार्थना की है कि उसका पति ऐसी चूनड़ी लावे, जिसके सहारे वह भव समुद्र के पार हो सके । निर्भर पंचमी कथा में, भगवान जिनेन्द्र के परम भक्त भविष्यदत्त का चरित्र दिया हुआ है। कथा का मूल स्वर
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