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है । इन प्राचार्यों का कथन है कि 'शिक्षा' अभ्यास को कहते हैं और सल्लेखना मरण-समय उपस्थित होने पर धारण की जाती है, अतः उसमें अभ्यास का समय ही नहीं रहता; फिर शिक्षा-व्रतों में उसकी गणना क्यों कर सम्भव हो सकती है ? इसके अतिरिक्त, यदि सल्लेखना को श्रावक के बारह व्रतों में गिना जाय तो श्रावक को आगे की प्रतिमाएं धारण करने के लिए जीवनावकाश ही न मिल सकेगा । सम्भवतः इसी कारण श्री उमास्वाति प्रादि प्राचार्यों ने सल्लेखना को श्रावक-व्रतों से पृथक् धर्म के रूप में प्रतिपादित किया है।'
सल्लेखना और समाधिमरण
जैन शास्त्रों के अनुसार सल्लेखना और समाधिमरण पर्यायवाची शब्द है। दोनों की क्रिया-प्रक्रिया और नियम-उपनियम एक से हैं। प्राचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' के छठे अध्याय की पहली कारिका में सल्लेखना का लक्षण लिखा, और दूसरी कारिका में उसी के लिए समाधिमरण का प्रयोग किया। श्री शिवार्यकोटि की 'भगवती-अराधना' में, अनेकों स्थानों पर सल्लेखना और समाधिमरण का प्रायः एक ही अर्थ में प्रयोग किया गया है। प्राचार्य उमास्वाति ने श्रावक और मुनि, दोनों ही के लिए सल्लेखना का प्रतिपादन कर, मानों सल्लेखना और समाधिमरण का भेद ही मिटा दिया है। किन्तु प्राचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरण साधु के लिए और सल्लेखना गृहस्थ के लिए मानते थे। यह सच है कि 'मृत्यु' समय एक साधु शुद्ध प्रात्मस्वरूप पर, अपने मन को जितना एकाग्र कर सकता है, उतना गृहस्थ नहीं । इस समय तक साधु अभ्यास
और वैराग्य के द्वारा समाधि धारण करने में निपुण हो चुकता है। समाधि में एकाग्रता अधिक है, सल्लेखना में नहीं ।
समाधिमरण और प्रात्म-वध
भारत के कुछ विद्वान, जैन मुनि के समाधिमरण को प्रात्म-घात मानते है । प्रात्म-घात का शाब्दिक अर्थ है आत्मा का घात, किन्तु जैन दर्शन ने प्रात्मा को शाश्वत सिद्ध किया है। "प्रात्मा एक रूप से त्रिकाल में रह सकने वाला नित्य पदार्थ है। जिस पदार्थ की उत्पत्ति किसी भी संयोग से न हो सकती हो, वह पदार्थ नित्य होता है । आत्मा किसी भी संयोग से उत्पन्न हो सकती है, ऐसा मालूम नहीं होता; क्योंकि जड़ के चाहे कितने भी संयोग क्यो न करो, तो भी
१. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, जैनाचार्यों का शासन-भेद, पृ० ४३ से ५७ तक
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