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जैन भक्ति-काव्य
यद्यपि हरिभक्तिरसामृतसिन्धु, भक्तिरसायन, नारद भक्तिसूत्र और शाण्डिल्य सूत्रों की भांति जैन परम्परा में किसी भक्तिसूत्र का निर्माण नहीं हुआ, किन्तु अनेक जैन सैद्धान्तिक ग्रन्थों में भक्ति संबधी विवेचन उपलब्ध होता है। प्राचार्य कुन्द-कुन्द (ईसा की प्रारंभिक शताब्दियां) ने सिद्ध-भक्ति, श्र त-भक्ति, चरित्र-भक्ति, योग-भक्ति, प्राचार्य-भक्ति और निर्वाण-भक्ति पर प्राकृत भाषा में लिखा था । ये भक्तियां प्रभाचन्द्र की संस्कृत टीका और पं० जिनदास पार्श्वनाथ के मराठी अनुवाद सहित 'दशभक्ति' नाम की पुस्तक में, शोलापुर से सन् १६२१ में प्रकाशित हो चुकी हैं । इसके अतिरिक्त आचार्य कुन्द-कुन्द के बोध पाहुड और मोक्षपाहुड में भी भक्तिपरक तत्वों की व्याख्या की गयी है।
प्राचार्य उमास्वाति (वि० सं० दूसरी शताब्दी) के तत्वार्थसूत्र में श्रद्धा, विनय और वैयावृत्य के सम्बन्ध में अनेक सूत्रों का निर्माण हुआ है । उन्होंने एक सूत्र के द्वारा तीर्थङ्करत्व नाम कर्म के उदय में भक्ति को कारण कहा है । आचार्य उमास्वाति के इस सूत्र पर आगे के काल में अनेकानेक भाष्य और वृत्तियों की रचना हुई। इनमें प्राचार्य पूज्यपाद (वि० सं० पांचवीं शताब्दी) के 'सर्वार्थसिद्धि', प्राचार्य अकलंक (वि०सं० सातवीं शताब्दी) के 'तत्वार्थराजवार्तिक'
और प्राचार्य श्र तसागर (वि० सं० १६वीं शताब्दी) के तत्वार्थवृत्ति' नाम के ग्रन्थ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें उपर्युक्त भक्ति संबंधी सूत्रों की विशद व्याख्या
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