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की गयी है । इन भाष्यकारों ने यथास्थान मौलिक तथा नवीन बातों का भी समावेश किया है ।
उमास्वाति के पश्चात् प्राचार्य समंतभद्र के 'समीचीन धर्म शास्त्र' में श्रद्धा, विनय वैयावृत्य, जिनेन्द्र और गुरु भक्ति पर तात्विक रूप से विचार किया गया है । वे अपनी परीक्षा की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही जिनेन्द्र के परमभक्त बने थे । उन्होंने अपनी श्रद्धा को सुश्रद्धा कहा है । उस समय का भारतीय वातावरण उनके तर्क और पांडित्य का लोहा मानता था ।
प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के अतिरिक्त दश-भक्तियाँ भी संस्कृत में लिखी हैं । ये सब 'दशभक्ति:' नाम की पुस्तक में प्रकाशित हो चुकी हैं । इन्हीं प्राचार्य के 'समाधितंत्र और इष्टोपदेश' में भी समाधि और गुरुभक्ति से सम्बन्धित अनेक प्रकररण बिखरे पड़े हैं । विक्रम की पांचवीं शताब्दी के ही प्राचार्य सिद्धसेन के 'द्वात्रिंशिका स्तोत्र' में भी भक्ति के विषय में बहुत कुछ लिखा हुआ। मिलता है ।
श्राचार्य योगीन्दु (छठी शताब्दी ईसवी) ने 'परमात्मप्रकाश - योगसार ' की रचना की थी । यह अपभ्रंश भाषा का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसका प्रकाशन परम तप्रभावकमण्डल, बम्बई, हो चुका है। इसमें भगवान सिद्ध और श्रात्मा की एकरूपता दिखाते हुए उनकी भक्ति का निरूपण किया गया है । डा० ए० एन० उपाध्याय ने इस ग्रंथ को रहस्यवादी कहा है ।
आचार्य यतिवृषभ (वि० सं० छठी शताब्दी) की तिलोयपण्णत्ति ( प्राकृत ) में जिनेन्द्र के पचकल्याणक और तत्सम्बन्धी भक्ति का विस्तृत वर्णन किया गया है । उन्होंने प्रकृत्रिम मन्दिरों, देवमूर्तियों, देवियों और देवों की भक्ति के विषय में पर्याप्त लिखा है । भक्ति के प्रमुख प्ररंग वंदना का विचार, उत्तराध्यनसूत्र, श्रावश्यक नियुक्ति और वृहत्कल्पभाष्य में सभी दृष्टियों से किया गया है ।
आचार्य शिवाकोटि (वि० सं० सातवीं शताब्दी) के 'भगवती श्राराधना' ग्रन्थ में जैन भक्ति पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होती है । उन्होने जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों के श्राधार से भक्ति का विवेचन किया है । इस विशालकाय ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर पंच परमेष्ठी की श्रद्धा, सेवा, नियम वैयावृत्य और अनुराग परक भक्ति की सार्थकता सिद्ध की गयी है। श्री जिनदास गणी ( वि० सं० सातवी-आठवीं शताब्दी ] की निशीथचूरिंग में "सेवा जा सा भत्ति," कहकर जिनेन्द्र सेवा पर बहुत कुछ लिखा हुआ मिलता है। श्री देवसेन [११वीं शती
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