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DAWAN
पुरातात्विक, ऐतिहासिक और सैद्धांतिक विवेचन के साथ-साथ भक्ति परक स्तुति स्तोत्रों का भी निरूपण किया है । मल्लिषेणसूरि ( वि० सं० ११वीं१२ वीं शाताब्दी) ने 'भैरव पद्मावतीकल्प' की रचना की जो देवी पद्मावती से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके १० अध्यायों में ४०० श्लोक निबद्ध हुए हैं। इसका तीसरा अध्याय 'भगवती अराधना' के नाम से गूंथा गया है । यह ग्रंथ अहमदाबाद और सूरत से प्रकाशित हो चुका हैं। अहमदाबाद वाले प्रकाशन में जिनप्रभसूरि ( १३ वीं शताब्दी ईसवी) की 'पद्मावति चतुष्पदिका' भी छप चुकी है । इसमें ३७ पद्य हैं। इन्हीं सूरिजी ने प्राकृत भाषा में भी 'पद्मावती चतुष्पदी' की रचना की थी, जिसमें ४६ गाथाएं हैं। जैन स्तोत्र संदोह के "घ" परिशिष्ट में एक 'पद्मावत्यष्टक' दिया है, जिसकी वृत्ति के रचियता श्री पार्श्वदेवगणी ( वि० सं० १९७१) ये । सूरत वाले भैरव पद्मावतीकल्प में 'पद्मावती सहस्रनाम, ' 'पद्मावती कवचं' और 'पद्मावती-स्तोत्र' दिये गये है । इनके अतिरिक्त श्री
भट्टसूरि (ठवीं सदी ईसवी) ने 'सरस्वती स्तोत्र' श्री देवसूरि ने 'कुरुकुला देवी स्तवनम्', जिनेश्वरसूरि ( १२ वीं शताब्दी वि० सं०) ने 'अम्बिका स्तुति' और जिनदत्तसूरि ने ' चक्रेश्वरी स्तोत्र' का निर्माण किया था। इनसे स्पष्ट है कि जैन देवियों की भक्ति जिनेन्द्र के भक्तों की भक्ति है। जैन देवियाँ, हिन्दू देवियों की भांति स्वतंत्र नहीं थीं । उनको जिनेन्द्र की शासनदेवी कहा जाता है । उन पर तांत्रिक युग का प्रभाव है, किन्तु उनमें मांस भक्षण, जन- रुधिर का पान और व्यभिचारादि जैसी प्रवृत्तियों का कभी जन्म नहीं हुआ ।
उपर्युक्त स्तुति-स्तोत्रों की भाँति ही पूजा, वन्दना और मंगलाचरणों के रूप में जैन भक्ति की विविध प्रवृत्तियों का प्रस्फुटन हुआ है । इन सब में मंगलाचरण का महत्वपूर्ण स्थान है । प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति और श्राचार्य विद्यानन्द की प्राप्तपरीक्षा में मंगल का तात्विक विवेचन किया गया है। जैनों का सबसे प्राचीन मंगलाचरण "रणमो अरहंताणं" वाला मंत्र है । वैसे तो इस मंत्र को अनादि निधन कहा जाता है, किन्तु उपलब्ध साहित्य में, भगवत् पुष्पदन्त भूतबलि के षट्खण्डागम का प्रारम्भ इसी मंगलाचरण से हुआ है । प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के सभी जैन ग्रंथों का प्रारम्भ किसी न किसी मंगलाचरण से हुआ है । ये मंगलाचरण जैन भक्ति के सर्वोत्तम निदर्शन हैं । इनमें सबसे बड़ी विशेषता है कि इनके नाम पर विलासिता को थोड़ा भी प्रश्रय नही दिया गया, जब कि शैव भक्ति में लिखे गये अनेक मंगलाचरण वैसी भावनाओं का नियंत्रण नहीं कर सके ।
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