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को पूजा वन्दना से कोई तात्पर्य नहीं है, क्योंकि वे सभी रागों से रहित हैं । निन्दा से भी उनका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि उनमें से वैरभाव निकल चुका है । फिर भी उनके पुण्य गुरणों का स्मरण भक्त के चित्त को पाप मलों से पवित्र करता है । भगवान् को भक्त के इस स्मरण का भान भी नहीं होता, किन्तु उन्हीं के गुणों के स्मरण से भक्त का चित्त पवित्र बना और पाप-मल घुले । अतः वह तो उन्हें कर्त्ता कहता ही है । इसी दृष्टि को लेकर जैन भक्त अपनी रचनात्रों में जिनेन्द्र से कभी याचना करता है, कभी प्रार्थना और कभी विनती ।
प्राचीन भक्ति-परक काव्य
स्तुति स्तोत्र, स्तव - स्तवन, वंदना, पूजा और मंगलाचरण के रूप में जैनों का प्राचीन भक्ति-काव्य बहुत अधिक है । यह साहित्य प्राकृत, संस्कृत और अपतीनों ही भाषाओं में लिखा गया था । प्राकृत का 'जयतिहुअरण स्तोत्त' सबसे अधिक प्राचीन माना जाता है । बृहद्रव्यसंग्रह' की ब्रह्मदेवकृत संस्कृत टीका के आधार पर सिद्ध हैं कि इसके रचियता भगवान् महावीर के प्रमुख गरणधर गौतम थे । भगवान महावीर के समवशरण में प्रविष्ट होते ही गौतम ने इसी स्तोत्र से उनको नमस्कार किया था । भद्रबाहु स्वामी का 'उवसग्गहर स्तोत्र' भी बहुत प्राचीन है । उसमें भगवान् पार्श्वनाथ की भक्ति से सम्बन्धित पाँच पद्यों की रचना हुई है । भद्रबाहु भगवान महावीर के निर्वाण के १७० वें वर्ष मोक्ष गये थे । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भक्ति परक अनेक स्तुतियों का निर्माण प्राकृत भाषा में ही किया था । उनका उल्लेख ऊपर हो चुका है। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'तित्थ - परशुति' की भी रचना की थी। इसमें आठ गाथाएं हैं, जिनमें चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की गयी है । इसे 'लोगस्ससूत्त' भी कहते हैं । मानतुगंसूरि (तीसरी सदी ई०) का २९ पद्यात्मक 'भयहर स्तोत्त' भी प्राकृत भाषा का मनोहारी काव्य है ।
संस्कृत भाषा में तो उत्तमोत्तम जैन स्तुति स्तोत्रों की रचना हुई। प्राचार्य समन्तभद्र के स्वयम्भू-स्तोत्र तथा स्तुति-विद्या समूचे भारतीय भक्ति साहित्य के जगमगाते रत्न है । हृदय की भक्ति परक ऐसी कोई धड़कन नहीं जो इनमें सफलता के साथ अभिव्यक्त न हुई हो । भाव और कला का ऐसा अनूठा समन्वय भारत के किसी अन्य स्तोत्र में दृष्टिगोचर नहीं होता । शंकराचार्य के 'भज गोविन्द' और जयदेव के 'गीत गोविन्द' में स्वरलहरी भले ही मनमोहक हो, किन्तु उनकी भावधारा में 'स्वयम्भू स्तोत्र' जैसा अजस्र प्रवाह नहीं है । आचार्य सिद्धसेन (वि० सं० पांचवी शताब्दी) के 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र', विद्यानन्दि
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