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श्री हरिषेणाचार्य बृहत्कथाकोश में 'जयसेन नृपति कथानकम्' के-"जिनेन्द्रदीक्षया शुद्धः सर्व त्यागं विधाय च । स्मरन् पञ्चनमस्कारं धर्मध्यानपरायणः ।। स्वीयमुदरं हत्वा करवाल्याऽतितीक्ष्णया । समाधिमरणं प्राप्य सूरिरेष दिव ययौ ॥"' द्वारा और 'शकटाल मुनिकथानकम्' के "तवृत्तान्तमिदं ज्ञात्वा कृत्वा स्वालोचनाविधिम् । शरीरादिकमुज्झित्वा जपन् पञ्चनमस्कृतिम् ।। आदाय क्षुरिकां शान्तां पाटयित्वा निजोदरं । समाधिमरणं प्राप्य शकटालो दिवं ययौ ।"२ द्वारा प्रमाणित है कि नृपति जयसेन और मुनि शकटाल दोनों ही ने अन्त समय में समाधिमरण धारण किया था।
श्री योगीन्दु ने 'परमात्मप्रकाश' में लिखा है कि मोक्ष-मार्ग में परिणाम दृढ़ करने के लिए ज्ञानी जन समाधिमरण की भावना भाते हैं। इस प्रकार महाकवि पुष्पदन्त के 'रणायकुमारचरिउ' में, इसी मोक्खगामी, तुम मज्झ सामी। फुडं देहि बोही विसुद्धा समाही । ४ तथा त्रिभुवनलिक' में, 'रणं समाहि रणं सरसइ रणं दय, रणं खम पुरिसवेस विहिणा कय' । ५ आदि उल्लेख मिलते हैं। जैन पुरातत्व में समाधिमरण के चिह्न ___श्रवणबेल्गोल के शिलालेख ऋ० १ से प्रमाणित हो गया है कि श्री भद्रबाहु स्वामी संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा देकर आप प्रभाचन्द्र नामक एक शिष्य-सहित कटवप्र पर ठहर गए और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया। ६ प्रभाचन्द्र चन्द्रगुप्त का ही नामान्तर या दीक्षा-नाम था। श्रवण वेल्गोल के ही शिलालेख क्र. १७-१८, ४०, ५४ तथा १०८ से भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दोनों का चन्द्रगिरि से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। राजगिरि पर सप्तपर्ण और सोनभद्र नाम की
१. हरिषेणाचार्य, बृहत्कथाकोश, डा० ए० एन० उपाध्ये-सम्पादित १५६१३६-४०, पृ०
३४६, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्याभवन, बम्बई २. देखिये वही, १५७।१३६-४०, पृ० ३५४ ३. देखिये परमात्मप्रकाश, पृ० ३२८ । ४. प्राचार्य पुष्पदन्त, णायकुमारचरिउ, डॉ० हीरालाल जैन-सम्पादित, द्वितीय परिच्छेद,
३।२०, पृ० १६, जैन पब्लिशिंग सोसाइटी, कारंजा, १६३३ ई० ५. देखिये वही, ९ वां परिच्छेद, ४१५. पृ. ६५ ६. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, डॉ. हीरालाल जैन-सम्पादित, पृ० १-२, माणिक
चन्द दिगम्बर जैन प्रन्थमाला समिति, बम्बई। ७. देखिये वही, पृ० क्रमशः ६, २४, १०१, २१०
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