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साथ वर्णन हुआ है । इस विषय का ऐसा असाधारण ग्रन्थ दूसरा नहीं है । इसमें शौरसेनी प्राकृत की इक्कीस सो सत्तर गाथाएँ है । ग्रन्थ के अन्त में लिखा है - " भक्ति से वर्णन की गई यह भगवती श्राराधना संघ को तथा मुझको उत्तम समाधि का वर प्रदान करे । अर्थात् इसके प्रसाद से मेरा तथा संघ के सभी प्राणियों का समाधिपूर्वक मरण होवे । ""
'चेइयवंदरणमहाभासं' में 'दुक्खक्खनो की कई गाथाओं की व्याख्या की गई है । 'समाहिमरण' का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है- भन्नइ समाहिमरणं, रागोसेहि विप्पक्कारणं । देहस्सपरिच्चाम्रो भवंतकारी चरित्तीण -- श्रर्थात् राग-द्वेष से विनिर्मुक्त चरित्रधारियों का भवान्तकारी देह का परित्याग समाधिमरण कहा जाता है । 'चेइयवंदरणमहाभासं प्राचीन प्राकृत गाथाओं का एक संकलन-ग्रन्थ है |
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में
लिखा है- "स्वयप्रभा
प्राचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् के द्वारा समाधिमरण का प्रतिपादन किया है । प्राचार्य पूज्यपाद ने स्व-रचित संस्कृत - भक्तियों में समाधि - भक्ति पर भी लिखा है । प्राचार्य जिनसेन ने अपने प्रादि-पुराण नामक देवी सौमनस वन की पूर्व दिशा के जिन मन्दिर में चैत्य वृक्ष के नीचे पंच परमेष्ठी का भले प्रकार स्मरण करते हुए, समाधिमरण पूर्वव क प्रारण त्याग कर स्वर्ग से च्युत हो गई । "४ उन्होंने ही एक दूसरे स्थान पर लिखा है, "जीवन के अन्त समय में परिग्रह- रहित दिगम्बर-दीक्षा को प्राप्त हुए सुविधि महाराज विधिपूर्वक उत्कृष्ट मोक्ष मार्ग की आराधना कर समाधिमररणपूर्वक शरीर छोड़ा, जिससे प्रच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए । "५
१. भाराहरणा भगवदी एवं मत्तीए बगिदा संती | संघस्स सिवज्जस्स च समाहिवरमुत्तम देउ |
- शिवार्यकोटि, भगवती आराधना, गाथा २१६८ ।
२. चेइयवदरणमहाभासं, श्री शातिसूरि सकलित, मुनि श्री चतुरविजय और प० बेचरदाससम्पादित, गाथा ८६३, पृ० १५३, श्री जैन श्रात्मानंद सभा, भावनगर, वि० सं० १९७७ ३. प्राचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार ६२, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई ४. भगवज्जिन सेनाचार्य, महापुराण, प्रथम भाग पं० पन्नालाल साहित्याचार्य-सम्पादित और प्रनूदित, ६।५६-५७, पृ० १२४, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
५. देखिये वही, १०।१६-१७०, पृ० २२२
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