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उसमें चेतन की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।"" भावलिङ्गी मुनि सदैव विचार करता है, "मेरी आत्मा एक है, शाश्वत है और ज्ञान दर्शन ही उसका लक्षण है । अन्य समस्त भाव बाह्य हैं ।" इस भांति नित्य श्रात्मा का घात किसी भी दशा में सम्भव नहीं है ।
श्रात्मघात का प्रचलित अर्थ है--राग, द्वेष या मोह के कारण, विष, शस्त्र या अन्य किसी उपाय से, अपने इस जीवन को समाप्त कर लेना । किन्तु जैन मुनि की समाधि न तो राग-द्वेष का परिणाम है, और न मोह का भावावेश । जैन श्राचार्यों ने समाधिमरण धारण करने वाले से स्पष्ट कहा है-यदि रोगादि कष्टों से घबड़ाकर शीघ्र ही समाप्त होने की इच्छा करोगे अथवा समाधि के द्वारा इन्द्रादि पदों की श्रभिवाञ्छा करोगे, तो तुम्हारी समाधि विकृत है । इससे लक्ष्य तक न पहुँच सकोगे । मृत्यु समय समाधि धारण करने वाले जीव का भाव अपने को समाप्त करना नहीं, अपितु शुद्ध आत्म- चैतन्य को उपलब्ध करना होता है । वह मृत्यु को बुलाने का प्रयास नहीं करता, अपितु वह स्वयं श्राती है । उसका 'समाधिमरण', श्राने वाले के स्वागत की तैयारी - मात्र है ।
समाधिमरण में चिदानन्द को प्राप्त करने के लिए शरीर के मोह को छोड़ना होता है । किन्तु शरीर का मोहत्याग और श्रात्मघात दोनों एक ही बात नही है । पहिले में संसार की वास्तविकता को समझ कर शरीर से ममत्व हटाने की बात है; और दूसरे में संसार से घबड़ाकर शरीर को समाप्त करने का प्रयास है । पहले में सात्विकता है, तो दूसरे में तामसिकता । एक में ज्ञान का प्रकाश है, तो दूसरे में अज्ञान का अन्धकार । मोह त्याग में सयम है, तो श्रात्मघात में असंयम । समाधिमरण का उद्देश्य मोह त्याग भी नहीं, श्रपितु आत्मानन्द प्राप्त करना है । आत्मस्वरूप पर मन को केन्द्रित करते ही मोह तो स्वयं ही दूर हो
१. श्रीमद् राजचन्द्र, डा० जगदीशचन्द्र जैन- सम्पादित, पृ० ३०७
२. एगो से सासदो अप्पा रगारण दंसरण लक्खणो ।
सेसा मे बाहिराभावा सव्वे संजोगलक्खा |
- आचार्य कुन्दकुन्द, भावप्राभृत, गाथा ५६ । ३. रागद्वेषमोहाविष्टस्यहि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं घ्नतः स्वघातो भवति । - प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३६३ ४. जीवितमरणाशसा - मित्रानुराग-सुखानुबन्ध निदानानि ।
--- तत्त्वार्थ सूत्र ७३७
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