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Mathurakani
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दशा में और ऐसे दूसरे किसी कारण के उपस्थित होने पर जो धर्मार्थ देह का संत्याग है, उसे सल्लेखना कहते हैं ।
काय और कषाय को क्षीण करने के कारण सल्लेखना दो प्रकार की होती है- काय-सल्लेखना, जिसे बाह्य सल्लेखना भी कहते हैं; और कषाय-सल्लेखना, जिसे प्राभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। श्री शिवार्यकोटि ने 'भगवती-आराधना' में लिखा है- एवं कदपरिकम्मो अभंतर बाहिरम्मि सल्लिहणे । संसार मोक्खबुद्वी, सब्बवरिल्लं तवं कुणदि । अर्थात् "ऐसे प्राभ्यन्तर सल्लेखना और बाह्य सल्लेखना ताके विषय बंध्या है परिकर जाकै, अर संसार तें छूटने की है बुद्धि जाकी, ऐसा साधु सो सर्वोत्कृष्ट तप करै है।" इन्हीं दो भेदों का निरूपण करते हुए प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है-कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायारणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना; अर्थात्, बाहरी शरीर और भीतरी कषायों को पुष्ट करने वाले कारणों को शनै:-शनैः घटाते हुए, उनको भले प्रकार कृश करना सल्लेखना है । प्राचार्य श्रुतसागर ने तो स्पष्ट ही कहा हैकायस्य लेखना बाह्यसल्लेखना। कषायारणा सल्लेखना अभ्यन्तरा सल्लेखना अर्थात् काय की सल्लेखना बाह्य सल्लेखना और कषायों की सल्लेखना प्राभ्यन्तर सल्लेखना कही जाती है । काय बाह्य है और कषाय अान्तरिक ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने शिक्षाव्रतों के चार भेद माने हैं, जिनमें चौथी सल्लेखना है। श्री शिवार्य कोटि, देवसेनाचार्य, जिनसेनाचार्य और वसुनन्दि सैद्धान्तिक ने भी सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में ही शामिल किया है । दूसरी ओर, प्राचार्य उमास्वाति ने सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में तो क्या, श्रावक के बारह व्रतों में भी नहीं गिना और एक पृथक् धर्म के रूप में ही उसका प्रतिपादन किया। प्राचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंकदेव, विद्यानन्दी सोमदेवसूरि, अमितगति और स्वामी कार्तिकेय आदि ने आचार्य उमास्वाति के शासन को स्वीकार किया
१. शिवार्यकोटि, भगवती-आराधना, हिन्दी-अनुवाद सहित, गाथा ७५, पृ० ४०, अनन्त
कीर्ति ग्रन्थमाला, हीराबाग, बम्बई । २. प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ७।२२, पृ० ३६३ ३. प्राचार्य श्रु तसागर, तत्वार्थवृत्ति, ७।२२ का भाष्य, पृ० २४४ ४. सामाइयं च पढयं विदियं च तहेव पोसहं भरिणयं । वइयं अतिहि पुज्ज चउत्थ सलेहरणा अन्ते ।।
-चरित्तपाहुड, गाथा २६, पृ० २८
फाकफककककका २६ कम59559