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की जाती। तीसरा 'पादोपगमन मरण' है । इसे धारण करने वाले के लिए किसी प्रकार की वैयावृत्य का प्रश्न ही नहीं उठता। इसमें तो मरण - पर्यन्त प्रतिमा के समान किसी शिला पर तदवस्थ रहना होता है ।"
सल्लेखना की व्याख्या
'समाधि - मरण' के अर्थ में ही 'सल्लेखना' का प्रयोग होता है । सल्लेखना पद 'सत्' और 'लेखना' दो शब्दों से मिलकर बना है। सत् का अर्थ है सम्यक् और लेखन का अर्थ है कृश करना; अर्थात् सम्यक् प्रकार से कृश करना | बुरे को ही क्षीण करने का प्रयास किया जाता है, अच्छे को नही । जैन सिद्धान्त में काय और कषाय को अत्यधिक बुरा कहा गया है, अतः उन्हें कृश करना ही सल्लेखना है । प्राचार्य पूज्यपाद ने 'सम्यक्कायकषायलेखना' को और श्राचार्य श्रुतसागर ने 'सत् सम्यक् लेखना कायस्य कषायारणां च कृशीकरणं तनूकरणं' ३ को सल्लेखना कहा है ।
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मरण-काल के उपस्थित होने पर ही सल्लेखना धारण की जाती है । प्राचार्य उमास्वाति ने लिखा है- "मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता; ४ अर्थात् मरण-काल आने पर गृहस्थ को प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करनी चाहिए । श्री उमास्वाति के इस सूत्र पर आचार्य पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि', भट्टाकलंक की 'राजवातिक' और श्रुतसागर सूरि की 'तत्वार्थवृत्ति' भाष्य-रूप में देखी जा सकती है । वहाँ इस सूत्र के प्रत्येक पद की व्याख्या विस्तारपूर्वक की गई है । सभी ने 'जोषिता' का प्रतिपादन प्रीतिपूर्वक धारण करने के अर्थ में ही किया है । प्राचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में लिखा है- उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः । अर्थात्, प्रतिकार - रहित असाध्य दशा को प्राप्त हुए उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा तथा रोग की
१. समाधिमरण के भेदों के लिए देखिये, वट्टकेरि-कृत मूलाचार और शिवार्यकोटि-कृत भगवती - श्राराधना |
२. प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ७।२२ का माष्य, पृ० ३६३, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी । ३. प्राचार्य श्रुतसागर, तत्वार्थवृत्ति, ७।२२ का माध्य, पृ० २४६, भारतीय ज्ञानपाठी, काशी ।
४. आचार्य उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र, पं० कैलाशचन्द सम्पादित, ७।२२, पृ० १६८, चौरासी,
मथुरा।
५. प्राचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र, ६।१, पृ० १६० ।
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