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YAYALTY
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एक ही धातु से बने हैं और दोनों का एक ही अर्थ है। चित्त का पालम्बन अथवा ध्येय में सम्यक् प्रकार से स्थित होना- दोनों ही व्युत्पत्तियों में अभीष्ट है।
ध्येय में चित्त की सुदृढ़ स्थिति निरन्तर अभ्यास और वराग्य पर निर्भर करती है । गीता में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा, कि "हे महाबाहो ! सच है कि चञ्चल मन को वश में करना कठिन काम है । पर हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से वह वश में किया जा सकता है।'' योगसूत्र के अभ्यासवराग्याभ्यां तन्निरोध:२ के द्वारा भी यह तथ्य कि, 'चञ्चल मन का निरोध अभ्यास और वैराग्य से ही हो सकता है,' सिद्ध होता है। जहां तक बौद्ध धर्म का सम्बन्ध है, वह अभ्यास पर ही निर्भर है । 3 जैन धर्म में ध्यान के पांच कारणों में 'वैराग्य' को प्राथमिकता दी गई है। वहां चित्त को वश में करने के लिए यद्यपि वायु-निरोध की बात को थोथा प्रमाणित किया गया है, तथापि प्राणायाम का अभ्यास कर, मन को रोक कर, चिद्रूप में लगाने की बात तो कही ही गई है, फिर भले ही मन और पवन स्वयमेव स्थिर हो जाते हों। जैन शास्त्रों के अनुसार शुभोपयोगी का मन जब तक एकदम आनन्दघन में अडोल अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाता, तब तक मन को वश में करने के लिए पंच परमेष्ठी और ओंकारादि मत्रों का ध्यान करना होता है, फिर शनैः शनै: मन शुद्ध प्रात्म-स्वरूप पर टिकने लगता है। चौदह गुणस्थानों पर क्रमश: चढ़ने की बात भी अभ्यास की ही कहानी है। शुद्ध अहिसा तक पहुँचने के लिए सीढ़िया बनी हुई है । इस भांति समूचा जैन सिद्धांत अभ्यास और वीतरागता की भावना पर ही निर्भर है ।
१. असशय महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम् । अम्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।
महात्मा गांधी, अनासक्तियोग, श्रीमद्भगतद्गीता भाषा-टीका, ६/३५ पृ० ६२, सस्ता
साहित्य, मण्डल, नयी दिल्ली १६४६ ई० । २. पातञ्जल योगमूत्र, १/१२ । ३. भरतसिह उपाध्याय, बौद्ध दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, द्वितीय भाग, पृ० ६०६,
बंगाल हिन्दी मंडल, वि० स० २०११ । ४. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्म प्रकाश, १९२ वें दोहे की ब्रह्मदेवकृत सस्कृत-टीका,
पृ० ३३१, डा० ए० एन० उपाध्ये द्वारा सम्पादित, परमश्रुत प्रभावक मडल बम्बई
१९३७ ई० । ५. परमात्म-प्रकाश, ५० जगदीशचन्द्र-कृत हिन्दी-अनुवाद, पृ० ३०६ ।
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