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अरविन्द ने 'मन की एकाग्रता' में उस मन को लिया है जो निश्चय करने वाला और व्यवसायी है, उस मन को नहीं लिया, जो केवल बाध करने वाला है। निश्चय करने वाले मन की एकाग्रता ही एकनिष्ठ बुद्धि है, जिसका महत्व गीता में स्थान-स्थान पर उद्घोषित किया गया है।'
समाधि में ग्राह्य और स्याज्य तत्व ___ जैन शास्त्रों में ध्यान को चार प्रकार का कहा गया है-पात, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ।। यह जीव आर्त रौद्र ही के कारण इस संसार में घूमता रहा है, अतः वे त्याज्य हैं । भावलिङ्गी मुनि धर्म्य और शुक्ल ध्यान-रूपी कुठार से संसार रूपी वृक्ष को छेदने में समर्थ होता है, अतः वे उपादेय हैं । ३ आचार्य उमास्वाति ने भी 'परे मोक्षहेतु' कहकर उपर्युक्त कथन का समर्थन किया है। योगीन्द्रु ने 'ध्यानाग्निना कर्मकलङ्कानि दग्ध्वा में ध्यान का अर्थ शुक्ल ध्यान ही लिया है । 'एकाग्रता' ध्यान अवश्य है, किन्तु शुभ और शुद्ध में एकाग्र होने वाला ध्यान ही आगे चलकर समाधि का रूप धारण करता है। योगसूत्र में चित्त की पांच भूमिकाएँ स्वीकार की हैं-क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । इनमें से प्रथम तीन का समाधि के लिए अनुपादेय और अन्तिम दो को उपादेय माना है। योगसूत्र में ही स्वरूप-दृष्टि से चित्तवृत्तियों के दो भेद माने गये हैंक्लिष्ट और अक्लिष्ट । क्लिष्ट क्लेश की और अक्लिष्ट ज्ञान का कारण है।' बौद्धों ने इन्हीं को कुशल और अकुशल के नाम से पुकारा है। इनमें कुशल होने वाला ध्यान ही 'समाधि' हो सकेगा, अकुशल वाला नहीं ।
समाधि के मेद और उनका स्वरूप
जैन शास्त्रों में समाधि के दो भेद किये गये हैं-सविकल्पक मौर निर्विकल्पक । सविकल्पक समाधि सालम्ब होती है और निर्विकल्पक निरवलम्ब ।
१. अरविन्द, गीता-प्रबन्ध भाग, पृ० १७८; सातवीं पंक्ति से चौदहवीं पक्ति तक
का भाव । २. प्राचार्य उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र, ६/२८ ३. प्राचार्य कुन्दकुन्द, भावप्राभृत, गाथा १२१-१२२ ४. योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, पहला दोहा, सस्कृत-छाया ५. पातञ्जल योगसूत्र, १/१ का व्यास-भाष्य ६. देखिये वही, १५ का व्यास-भाष्य
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