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हैं। एक सरस कृति है । प्रारम्भिक हिन्दी काव्यों में अन्यतम । माघ का माह है । हिम- राशि मत्त बन गई है । राजुल कहती है- हे प्रिय । मुझे अपने समीप मुला लो । हे स्वामी ! तुम्हारे बिना तुषार जल रहा है भीर, कामदेव नये-नये ढंग से मार रहा है
माह मासि मातइ हिम- रासि देवि भजय मइ प्रिय लइ पासि । तह विणु, सामिय! वहइ तुसारु नव-वव मारिहि मारह मारा ||२०||
इस पर सखी का कथन है कि तू जो रो रही है, यह सब भरण्यरुदन है । क्या हाथी कान पकड़ कर काबू में किया जा सकता है। मेरी सखी! तू मुझ पर विश्वास नहीं करती कि सिद्ध रमणी में अनुरक्त होकर नेमि चला गया ।
इहु सखि ! रोइसि सह अरन्नि, हत्थि कि जामह धररराउ कनि । तउ न पतीजसि माहरी माइ ! सिद्धि-रमरिम-रत्तउ - नमि जाउ ॥२१॥
राजुल का उत्तर है - है सखी ! कान्त मेरे हृदय में बस रहा है, फिर तेरी बात पर किस तरह विश्वास करू । यदि नेमि सिद्धि के पास गया तो क्या बुरा है । मैं भी उसके साथ जाऊँ, तभी तो उग्रसेन की पुत्री कहलाऊँगी ।
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कंलि वसंत हियड़ा मांहि, वाति पहीजजं किम हलसाइ' । सिद्धि जाइ तर काईत वोह, सरसी जाउ न उनसेल-षीय ॥ २२॥
यह साधारण नायक-नायिका का वियोग नहीं है । नायक तीर्थङ्कर है और नायिका भी मोक्षगामिनी है। हम इसे भगवद्विषयक रति मान सकते हैं । यह प्रेममूला भक्ति का दृष्टान्त है । यहाँ भक्ति के नाम पर किसी यौन-वासना को प्रश्रय न मिल सका, यह ही कारण था कि प्रेम के रंगों से बनी होने पर भी भक्ति, भक्ति ही रही। उसके भीतर से कोई जयदेव या विद्यापति झांक भी
न सका ।
शालिभद्ररास १४वीं शताब्दी की प्रसिद्ध रचना है। इसके रचयिता श्री राजतिलक गरिण खरतरगच्छीय विद्वान् थे । प्राचार्य जिनप्रबीध सूरि ने उन्हें, संवत् १३२२, ज्येष्ठ बदी ६ को, जालोर में वाचनाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित
१. देखिए, पार्बस, गुजराती सभा, ग्रन्थावलि ६१, बम्बई ४, सन् १९५५ ।
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