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कि- मैं न पुष्य है, सिद्ध है, विषद्ध हूँ
रघू ने सोsहं' में अपना परिचय देते हुए लिखा है न पाप है, न मान हूँ, न माया हूँ, में अलख निरञ्जन हूँ, और परमानन्द है । मैं न रूप हूँ, न स्पर्श, न गन्ध भौर न शब्द, न पुरुष हैं, न नारी, न बालक हूँ, न बड़ा, न स्वामी हूँ, न दास, न धनी है और न गरीब । जननी, जनक, पुत्र, मित्र और भार्या सहित सम्पूर्ण कुटुम्ब है, किन्तु कोई सहायता करने वाला दिखाई नहीं देता, सब कुछ मोह की विडम्बना है । में सम्पूर्ण संकल्प - विकल्पों से रहित, सहज रूप परम प्रतीन्द्रिय सुख-दुखों में सम पोर सब विभावों से हीन हैं । निश्चयनय से विवेचित अपना यह रूप, भाषा की लय में बंधा एक समां उपस्थित कर देता है । पाठक विभोर हुये बिना नहीं रहता । पूरा गीत इस प्रकार है-
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"सोऽ' सोऽहं सोऽहं प्रण्णु न बोयउ कोई । पापुन पुण्णु न मागु न माया अलख निरंजणु सोई । सिद्धोऽहं सुविसुद्धोह हो परमानन्द सहाउ 1 देहा rिous गारणमग्रोहं गिम्मल सासय भाउ । सरण - गारगु चरित गिवासो फेडिय मव-भव पासो । केवल रगारग गुणेहिं प्रखंडो लोयालोयपयासो | रूप गफासुगंधु रग सद्दो चेयरण लक्खरगु रिणच्चो । पुरिसुगारि ग बालु ग बूढ़उ जम्मु रग जासु र मिच्चो । काय वसंत वि काय विहीरगउ भुजतो विग भुजइ । सामि ग किकरु ईसु न रंको कम्मुवि एहु निश्रोजइ । जरग रगी जगरगु जि पुत्त. जिमित्त भामिरिण सयल कुडंबो । कोइ न दीसह तुज्झ सहाई एहुजि मोह विडंबो । हउं संकष्प वियप्प विवज्जउ सहज सरूप सलीगउ । परम प्रतिविध सम-सुख मंदिरु सयल-विभाव-विहीणउ । सिद्धह मज्भिजि कोइम अंतरु रिगच्छयरणय जिय जारी । बवहारे बहुभाउ मुरिगज्जइ इम मणि भावहु वाणी । चितfरगरोहउं इंदियनं तउ भावहि प्रतरि अप्पा | रघू प्रकलs कम्मदलेप्पिरगु जिमि तुहुं होहि परमप्पा ॥" अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ४.
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धू की भांति ही एक महात्मा श्रानन्दतिलक हुए। उन्होंने 'प्रागंदा' नाम की एक महत्त्वपूर्ण कृति की रचना की । इसकी हस्तलिखित प्रति आमेर
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