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साधना माना। उन्होंने कोरे सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया । उनकी दृष्टि के अनुसार अहिंसा की यत्किचित् भी कमी सत्य को अहंकार से भर देती हैं। उन्होंने दोनों के समन्वय पर जोर दिया। महात्मा गान्धी ने इसको समझा था । इसी कारण उनके 'सत्याग्रह' में सत्य का आग्रह केवल शाब्दिक नहीं रहा, रचनात्मक रूप में सत्य के साथ अहिंसा को प्रमुखता मिली है। महावीर ने अपनी दिव्यवारणी में हिंसा को प्रेम कहा है । वास्तव में उनकी प्राध्यात्मिक साधना प्रेम साधना ही थी । इसी आधार पर जैन प्राचार्य 'सत्वेषुमंत्री' वाला गीत गा सके। और इसी प्रेम रूप के सहारे भक्तों के दिल टिके रहे ।
भक्ति भावन
महावीर मोक्षगामी थे । वे संसार के कर्ता-धर्ता नहीं, अच्छे-बुरे के दाताप्रदाता नहीं, फिर भी उनको लेकर असीम भक्ति साहित्य का निर्माण हुआ । असंख्य मूर्तियां रची गई, श्रसंख्य मन्दिर और चैत्य बने । महावीर भले ही कुछ न करते हों, कुछ न देते हों, किन्तु उनका व्यक्तित्व प्रेम के ऐसे धागों से बुना गया था, जो मौन रहते हुए भी प्रेम को प्रेरणा देता रहा। भक्त भगवान को मुक्ति में जा बिराजने के लिये उपालम्भ भी देता रहा और प्रेरणा भी पाता रहा "तुम प्रभु कहियत दीन दयाल, आपन जाय मुकति में बैठे हम जु रुलत इह जगजाल ।” कहने वाला ही भक्त कवि “मेंढक हीन किए अमरेसुर, दान सबै मनवांछित पाए । द्यानत आज लौं ताही को मारग सारग है सुख होत सवाए ।' गा सका । जिसके दर्शन मात्र से ही हीन मेंढक तर सका हो, वह भगवान अवश्य ही जीव मात्र के लिये प्रेम का प्रतीक होगा । उसकी उदारता का विस्तार विश्वव्यापी बन सका होगा । उसका अहं अहकार नही अपितु विश्व ग्रहं में परिणत हो सका होगा ।
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भावशुद्धि पर बल
महावीर ने सदैव भावशुद्धि पर बल दिया । नग्नता भावशुद्धि का एक श्रावश्यक साधन मात्र है, किन्तु नग्न होने से कोई समूचे रूप में शुद्ध ही हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है । इसी कारण अनेक जीव मुनि-पद धारण करके भी भव समुद्र से तर न सके । उस समय दिगम्बरत्व साधु का चिन्ह था । इतिहास से सिद्ध है कि उस समय के प्राजीवक साधु भी नग्न रहते थे । महावीर भी नग्न बने । किन्तु उन्होंने गेरुआ वस्त्रों की भांति नग्नता को साधुत्व का 'फैशन' नहीं बनने दिया । 'फैशन' कैसा ही हो भावशुद्धि में बाधक बनता है । आगे चल
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