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कर हिन्दी के सन्त कवियों ने जिन बाह्याडम्बरों का विरोध किया, उनसे सैकड़ों वर्ष पूर्व महावीर ने साधु के सभी देशों का निराकरण करते हुए केवल भावों की पावनता को ही प्रमुखता दी थी। प्रागे चल कर दिगम्बर साधुओं के क्रिया-काण्ड भी इतने बढ़े कि उन पर मोटे-मोटे ग्रंथों की रचना हुई । महावीर के दिगम्बर जीवन में उनका कोई मूल्य नहीं था । महावीर को कई दिनों से आहार नहीं मिला था । उनकी प्रतिज्ञा थी कि कुमारी, जंजीरों में जकड़ी भोर रोती हुई कन्या के हाथों श्राहार लेंगे । एक दिन उधर से निकले, जहां चन्दना को कैद करके रक्खा गया था। वह रो रही थी, उसके आगे कैदी का खाना रक्खा था । उसने जंजीरों से जकड़ी दशा में ही भगवान को भोजन के लिये आमंत्रित किया । उन्होंने स्वीकार किया और कैदखाने के सींकचों के बाहर, संकरी-सी गली में खड़े होकर वह कैदियों वाला भोजन ले लिया । महावीर सभी प्रकार के क्रियाकाण्डों से नितांत दूर थे I
महावीर से ढाई सौ वर्ष पूर्व २३ वे तोर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म हुआ था । इतिहास ने उनके अस्तित्व को मान लिया है। उनका युग चला आ रहा था। उन्हीं के नाम पर वीतरागी साधु जैन दीक्षा ले रहे थे। इनमें मुनि पिहिताश्रव का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । वे पार्श्वनाथाम्नायो थे । उन्हीं से बुद्ध ने दीक्षा ली थी । इन साधुनों में गोशालक का नाम मुख्य रूप से लिया जाता है । उसका पूरा नाम था मंखलिगोशाल । प्राचार्य देवसेन के दर्शनसार में मंखलिगोशाल और पूरणकाश्यप का एक साथ उल्लेख हुआ है । दिगम्बर ग्रन्थ दोनों को एक मानते हैं । दोनों ही आजीविक मत के नेता थे । किन्तु बौद्ध ग्रन्थों से स्पष्ट है कि वे भिन्न दो व्यक्ति थे । अन्त में दोनों के मत-सादृश्य ने दोनों को एक कर दिया था । इसी कारण जैन परम्परा दोनों को एक मानती रही ।
मंखलि गोशाल और पूरणकाश्यप महावीर से उम्र में बड़े थे। जैन साधु थे । उन्होंने जैन पूर्व ग्रन्थों के आधार पर जैन धर्म को समझने का प्रयास किया था । वे उसके मर्म को समझ न सके । मत्र और ज्योतिष ने भी बाधा पहुँचायी । गोमट्टसार और सूत्रकृतांग सूत्र में उनके मत को अज्ञात मत कहा गया है । वैसे भाजीविक नाम भी जैनत्व का द्योतक है। किसी भी प्रकार की जीविका से पृथक् रहने को आजीविक कहते हैं। इसे जैनों के त्याग और अपरिग्रह पर निर्भर रहना चाहिये था । किन्तु भाजीविक साधु मन्त्र और ज्योतिष के बल पर जीविका भी कमाने लगे । इस धर्म के पतन का यह ही एक मात्र कारण है। भाजीविक सम्प्रदाय पर डा० बरुना ने 'आजीविस' नाम का एक ग्रन्थ लिखा था । उन्होंने भी ऐसी ही मान्यता अभिव्यक्त की है ।
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