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भगवान महावीर के पंचयाम धर्म में दीक्षित नहीं हुए। क्यों ? इसका उत्तर देसे गए श्री भगवानदास झाबेरी ने अपने ग्रन्थ 'comparative and critical study of Mantra shastra' में लिखा है कि उन साधुनों ने अपने जीवन को जो मासान मोड़ दे लिया था, जो मनोनीत ढंग अपना लिया था, जो स्वतन्त्रता सहेज मी थी, उसे त्याय न सके । वे धार्मिक भावरण में प्रच्छन्न साधु, 'निमित्तों और 'विद्यामों की जानकारी के बल पर जनता में मान्यता प्राप्त करते रहे । वे लम्बा भगूला पहनते और हाथ में भिक्षा-पात्र लिये रहते थे। मेरी दृष्टि में इन साधुओं ने तीर्थकर पार्श्वनाथ के चातुर्याम के एक मजबूत याम 'अपरिग्रह' को ठीक नहीं समझा । उसमें ब्रह्मचर्य शामिल था। उन्होंने उसको महत्व नहीं दिया। उसका मुक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं माना । जैनधर्म के मूल सिद्धान्त को विस्मरण कर, केवल मन्त्र -जन्त्र को सहेजे वे अस्तित्व-हीन से रह गये। फिर, ऐसे अनेकानेक लघु सम्प्रदायों ने मिल कर नाथ सम्प्रदाय को जन्म दिया।
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि 'नाथ सम्प्रदाय' का 'नाथ' नाम जैनों के चौबीस तीर्थंकरों के नाम के अन्तिम पद से सम्बन्ध रखता है। प्राश्चर्यजनक रूप से प्रत्येक तीर्थकर के नाम का अन्तिम पद 'नाथ' पर ही समाप्त होता है, जैसे ऋषभनाथ, अजितनाथ, सम्भवनाथ प्रादि । यदि यह मान भी लें तो भी नाथों में प्रश्लील प्रतीकों वाली बात बौद्ध सिद्ध साधुमों की देन है, ऐसा मैं समझ पाता है। किन्तु, उन्हें भी कहाँ से मिली ? एक प्रश्न सहज ही उठता है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है, "पूरब में बुद्ध के पहले से ही कई मनार्य जातियाँ-किरात, यक्ष, गन्धर्व प्रादि रहती थीं, जो अत्यधिक विलासी थीं। ये जातियाँ कामदेव, वरुण और वृक्षों की उपासना करती थीं। इन्हीं के एक देवता वज्रपारिग थे । यही यक्ष-परम्परा भारतीय संस्कृति को प्रभावित कर एक मोर घुस पड़ी, दूसरी ओर उसने बौद्ध धर्म को प्रभावित किया ।"२ डा० द्विवेदी ने ही 'नाथ सम्प्रदाय' में लिखा है, ब्रजपाणि बोधिसत्व मान लिगे गये । मागे जाकर इनके विलासमय जीवन, मदिरापान आदि ने बौद्ध धर्म को जन्म दिया, जिसमें मदिरापान और स्त्री-संग प्रावश्यक बन गया।"3 इसी सन्दर्भ में डॉ० भोलाशंकर व्यास का कथन है, बौद्ध तांत्रिकों से होती हुई यह परम्परा शेव
१. 'Comparative and Critical study of Mantra shastra', भगवानदास
झाबेरी, महमदाबाद, पृ० १५२ । २. हिन्दी साहित्य की भूमिका. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ० २२८-२३३ । ३. नाथ सम्प्रदाय, डॉ. द्विवेदी, पृ० ८२-८३ ।
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