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साथ्वी मोक्षरला श्री
वीरमित्रोदय ने संस्कार शब्द को परिभाषित करते हुए कुछ इस ढंग से कहा है- "संस्कार एक विलक्षण योग्यता है, जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से उत्पन्न होती है।"
इसी प्रकार हिन्दूधर्मकोश' में भी संस्कार की परिभाषा देते हुए कहा गया है- “शरीर एवं वस्तुओं की शुद्धि के लिए, उनके विकास के साथ समय-समय पर जो कर्म किए जाते हैं, उन्हें संस्कार कहते हैं।"
संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य में संस्कार का प्रयोग मात्र इन्हीं अर्थों में नहीं हुआ है, वरन् इसका अन्य अर्थों में भी प्रयोग हुआ है, यथा : पूर्ण करना, संस्कृ त करना, पालिश करना, व्याकरणजन्य शुद्धि, संस्क्रिया, प्रशिक्षण, आसज्ज करना, खाना बनाना, श्रृंगार करना, अभिमन्त्रण करना, अन्तशुद्धि करना, विचारभाव, प्रत्यास्मरण-शक्ति, संस्मरण, शुद्धि-संस्कार, धार्मिककृत्य या अनुष्ठान, अभिषेक, विशिष्ट क्रिया, आदि।
इस प्रकार भाषा-जगत् में संस्कार शब्द के साथ अनेक अर्थों का योग हुआ है, जो इसके दीर्घकालिक-इतिहास के क्रम में इसके साथ संयुक्त होते गए
जैन-परम्परा में संस्कार शब्द का तात्पर्य मात्र बाह्य-आडम्बर, आदि से ही नहीं लिया गया है। मानव जन्म से असंस्कृत होता है, किन्तु संस्कारों की अनुपालना से उसका भौतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक-जीवन निखर उठता है
और धार्मिक-जीवन उन्नत होता है। शुचिता-सन्निवेश, मनोवृत्ति का परिष्कार, धर्मार्थ-सदाचरण, क्रियाशुद्धि, देव-सन्निधान एवं विधि-विधान संस्कार के ही प्रमुख लक्षण हैं।
पवनकुमार शास्त्री के अनुसार- “वे विशेष क्रियाएँ जो मनुष्य के अन्तस को स्वतः या परतः परिष्कृत करती हैं, उसके भावों की विशुद्धि करती हैं, उन्हें संस्कार कहते हैं।
* देखेः धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१७६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,
लखनऊ, तृतीय संस्करण १९८०. ५ हिन्दू धर्म कोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ.-६४५, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७८. संस्कृत हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे, पृ.-१०५१, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, १६६६. श्रमण (पत्रिका), लेखक : डॉ. विजय कुमार झा, पृ.-११, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, वर्ष ५४, अंक १-३,
२००३. 'आदिपुराण परिशीलन, संः- फूलचंद जैन, पृ.-३३३, आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर (राज.) प्रथम
संस्करण २००१.
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