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जैन कथा कोष ७ सबसे बड़े थे। बीस वर्ष तक संयम पालन कर एक महीने का अनशन करके शत्रुजय पर्वत से मोक्ष पधारे।
-अन्तकृद्दशा ८ ८. अंजना सती 'अंजना' महेन्द्रपुर के महाराज 'महेन्द्र' की पुत्री थी। इसकी माता का नाम हृदयसुन्दरी था। महाराज 'महेन्द्र' के 'प्रश्नकीर्ति' आदि सौ पुत्र तथा एक पुत्री राजकुमारी 'अंजना' थी। जब रूपवती अंजना के विवाह का प्रसंग आया, तब मन्त्री ने राजा से कहा—'राजन् ! राजकुमारी के लिए बहुत खोज करने पर दो राजकुमार ही समुचित अँचे हैं। एक हैं हिरण्याभ राजा के पुत्र 'विद्युत्प्रभ' तथा दूसरे हैं विद्याधर महाराज प्रह्लाद के पुत्र 'पवनंजय'। दोनों में अन्तर यह है कि जहाँ विद्युत्प्रभ की आयु केवल अठारह वर्ष की ही शेष है, वह चरमशरीरी भी हैं; वहाँ पवनंजय दीर्घजीवी हैं।
राजा ने दीर्घजीवी और सुयोग्य समझकर 'पवनंजय' के साथ राजकुमारी का सम्बन्ध कर दिया। यथासमय पवनंजय की बारात लेकर महाराज प्रह्लाद वहाँ आ पहुँचे। विवाह में केवल तीन दिन की देरी थी कि एक दिन पवनंजय के मन में अपनी भावी पत्नी को देखने की उत्सुकता जागी । बस, फिर क्या था, अपने मित्र 'प्रहसित' को लेकर 'अंजना' के राजमहलों के पास पहुँचकर दीवार की ओट में छिपकर अंजना को देखने लगे। ___ उस समय अंजना अपनी सखियों से घिरी बैठी थी। सखियाँ भी अंजना के सामने उसके भावी पति की ही चर्चा कर रही थीं। चर्चा में जब एक सखी पवनंजय की सराहना कर रही थी तो दूसरी विद्युत्प्रभ की प्रशंसा कर रही थी। उस समय अंजना के मुँह से सहसा निकला—'विद्युत्प्रभ को धन्य है जो भोगों को त्यागकर मोक्ष प्राप्त करेगा।' अंजना के ये शब्द पवनंजय के कानों में काँटेसे चुभे । सोचा हो न हो, यह विद्युत्प्रभ के प्रति आकर्षित है, अन्यथा मेरी अवगणना करके उसकी सराहना क्यों करती? एक बार तो मन में आया कि इसका अभी रित्याग कर दूँ, पर दूसरे ही क्षण सोचा—अभी इसे छोड़कर चला जाऊँगा तो इससे मेरे पिता का वचन भंग होगा, मेरे कुल का अपयश होगा। अच्छा यह रहेगा कि शादी करके मैं इसका परित्याग कर दूँ। यही सोचकर अपने निर्णय को मन-ही-मन समेटे अंजना से विवाह करके अपने नगर में आ गया, पर अंजना के महलों में पवनंजय ने पैर भी नहीं रखा। पति की