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[ ६ ] में आपने अपने व्यापार (कपड़े की दूकान ) को पूर्णरूप से अपने हाथ में ले लिया था। उसी समय (समाज की प्रथानुसार ) आपका विवाह हो गया। आपका दाम्पत्य जीवन अन्त तक बड़ा प्रेम और आनन्दमय रहा। जहां अनेक युवक अपने यौवन के उन्माद में पथभ्रष्ट हो जाते हैं वहां हमारे चरित्रनायक और भी अधिक दृढ़ता के साथ कर्त्तव्य मार्ग पर अग्रसर हुए। सौभाग्य से आपकी धर्मपत्नी सर्वदा आपको धार्मिक और व्यापारिक कार्य में उत्साहित करती रहीं, और आपका व्यापार दिन प्रतिदिन उन्नति करने लगा। परन्तु आप व्यापार ही में अन्य लोगों की भांति लिप्त नहीं हो गये और अपने जीवन के सच्चे साथी धर्म की ओर हमेशा श्रद्धा भक्ति
और प्रेम प्रदर्शित करते रहे। आप गृहस्थी में सैकड़ा झंझटों के लगे रहने पर भी स्वाध्याय पूजा आदि नित्य कर्म के लिए यथेष्ट अवकाश निकाल ही लिया करते थे। आपने अपनी ११ वर्ष की अवस्था में ही श्री गिरनारजी की यात्रा (माता जी के साथ में) और सं० १६५६ में सकुटुम्ब श्री सम्मेदशिखर जी की बन्दना भक्ति पूर्वक करके अपनी धार्मिक रुचि का प्रारंभ में ही परिचय देदिया था, तथा आपने श्री सोनागिरजी, सौरीपुर
और महावीरजी की भी कई बार वंदना की थी। आप एक संयमी और सदाचारी पुरुष थे और अपने धन का सदुपयोग यदा कदा जैन संस्थाओं में दान व परोपकार के कार्य कर किया करते थे।
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