________________
संज्ञाओं के विभिन्न प्रकार :- चार, दस एवं सोलह
जहाँ तक जैन-आगमों का प्रश्न है, उनमें संज्ञाओं की संख्या के सम्बन्ध में एकरूपता नहीं है। संज्ञा शब्द के विभिन्न अर्थों को लेकर उनका वर्गीकरण भी भिन्न-भिन्न रूप में हुआ है। संज्ञा का एक अर्थ आभोग है, वह भोगाकांक्षा-रूप है। यह संज्ञा का वासनात्मक-पक्ष है। जिसका अनुभव किया जाए, वह ज्ञानरूप संज्ञा है। इस आधार पर जैनकर्म-सिद्धान्त के अनुसार संज्ञा दो प्रकार की हैं -
1. कर्मों के क्षयोपशमजन्य और 2.कर्मों के उदयजन्य
पुनः, क्षयोपशमजन्य संज्ञाओं के भी अनेक भेद हैं। ज्ञानावरणीय-कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली मतिज्ञान के भेद-रूपी संज्ञा क्षयोपशमजन्य-संज्ञा है, उसे ज्ञान-संज्ञा भी कहते हैं। इसके तीन प्रकार हैं -
1. दीर्घकालोपदेशिकी-संज्ञा 2. हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा
3. दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा -
अतीत, अनागत एवं वर्तमान की सम्भावनाओं या किसी कर्म के प्रेरकों एवं परिणामों का ज्ञान दीर्घकालोपदेशिकी-संज्ञा है। जैसे- मैं यह करता हूँ, मैंने यह किया, मैं यह करूंगा इत्यादि । व्यवहार या कर्म के अतीत, वर्तमान और भविष्य का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति दीर्घकालोपदेश-संज्ञी है। जैनदर्शन के अनुसार, यह संज्ञा मन-पर्याप्ति से युक्त गर्भज तिर्यंच, गर्भज मनुष्यों, देवों और नारकों के ही होती है,
131)
3)
नन्दीसूत्र - 61 सन्नाऊ तिन्नि पढमेऽत्थ दीहकालोपएसिया नाम तह हेउवायदिद्विवाउवएसा तदियराओ - प्रवचनसारोद्धार, गाथा 118, संज्ञाद्वार 144 दण्डक प्रकरण, गाथा 32 एयं करेमि एयं कयं मए इममहं करिस्सामि सो दीहकालसन्नी जो इय तिक्कालसन्नधरो - प्रवचनसारोद्धार, गा. 119, संज्ञाद्वार 144
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org