________________ XVI का स्वरूप, व्याख्या, उसकी पद संख्या का पौर्वापर्य विश्लेषण आदि का सयुक्ति-युक्त प्रतिपादन प्रकृत ग्रंथ में हुआ है। प्रथमपद अरहन्त, जो कि महामन्त्र का प्राणी तत्त्व है, उसके विवेचन में जैनदर्शन के अतिरिक्त वैदिक एवं बौद्धसाहित्य में वर्णित अर्हत् का उल्लेख करके विद्वान् लेखक ने प्रकृतपद अरिहन्त को सर्व व्यापक सिद्ध किया है। इसके साथ ही अर्हत् पद की प्राप्ति का साधनाक्रम कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन बहुत सुन्दर ढंग से हुआ है। ज्ञानमीमांसा प्रसङ्ग में सम्पूर्ण ज्ञान केवल ज्ञान, अरिहन्तत्व, उनका सर्वज्ञत्व, अरिहन्त और तीर्थङ्कर, उनकी साधना, गुण विश्लेषण, समवशरण, उपदेश एवं उनकी भक्ति के फल में साधक के संसारोच्छेद की सिद्धि की गयी है। सिद्ध पद विवेचन में सिद्धत्व का स्वरूप उनकी शाश्वत्ता, उनका परमात्मत्व, सिद्धों की विविधता आदि की मीमांसा करके जैन मतानुसार सिद्धों के सुख, उनकी अवगाहना और स्थिति का वर्णन कर अन्त में अरिहन्त और सिद्ध के भेदाभेद का विस्तृत विवेचन किया है। परमेष्ठी के तृतीयपद-आचार्य की स्वरूप व्याख्या में उनका गुरुत्व तीर्थङ्कर और आचार्य की तुलना, उसके गुणों का विशद वर्णन, आचार्य के विविधरूप, आचार्य सम्पदा, आचार्य के कर्त्तव्य,उनका वैशिष्य तथा उनमें भक्ति का महत्त्व प्रतिपादित हुआ है। उपाध्याय परमेष्ठी अर्थात् वे विकासशील साधक, वे जो जानते हैं, वैसा ही जीवन में जीते हैं, और उसी के अनुरूप उपदेश भी देते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में विज्ञ लेखक ने उपाध्याय के ज्ञान-दर्शन चरित्र एवं तप का विस्तार से वर्णन करते हुए उसके द्वारा होने वाली धर्मप्रभावना, उसकी अनेक उपमाएं, कार्य- पद्धति और भक्ति का सुव्यवस्थित वर्णन किया है। __बहुत विलक्षण है- पञ्च परमेष्ठी मन्त्र / इसके पांचवे पद में लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार किया गया है। पूर्व के सभी चार पद साधुत्व का ही विकसित रूप है। जैन दर्शन में व्यक्ति और वेष को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया अपितु जिनमें साधुत्व के भाव हैं वही साधु है / जो साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग की साधना करते हैं, वही साधु है। डॉ. जगमहेन्द्र राणा ने अपने प्रकृत शोधपूर्ण ग्रन्थ जैनदर्शन में पञ्च परमेष्ठी में साधुत्व का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए उसकी योग्यता, उसके गुणों, उसके आचरण एवं साधुत्व के उपकरण तथा उसकी भक्ति के फल पर प्रमाण पुरस्सर प्रकाश डाला है। ___ इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में श्री राणा ने पञ्च परमेष्ठी के स्वरूप प्रतिपादन में सम्पूर्ण जैनदर्शन का स्पर्श किया है। इसके साथ वैदिक तथा बौद्ध दर्शन का ज्ञान भी