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प्राक्कथन
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प्राचीन भारत के अनेक राजवंशों द्वारा जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया गया। शिशुनाग वंश, वैशाली गणतंत्र के शासक, नन्द वंश, अशोक को छोड़कर समस्त मौर्य शासक तथा कलिंगराज खारवेल ने जैन धर्म को राजाश्रय प्रदान किया था। दक्षिण के राष्ट्रकूट, गंग, कदम्ब तथा चालुक्यवंशीय शासक जैन थे। बारहवीं से पंद्रहवीं शताब्दी तक गुजरात राजस्थान और मध्य भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रचार हुआ। गुजरात में शासकों की अपेक्षा धनी व्यापारियों द्वारा जैन धर्म को अधिक संरक्षण मिला। बौद्धधर्म का विदेशों में अवश्य प्रसार हुआ, किन्तु अपनी धरती पर आज वह लगभग विलुप्त हो चुका है। इसके विपरीत जैन धर्म बाहर तो नहीं फैला, किन्तु अपनी धरती पर पूर्णत: सुरक्षित है।
साहित्य और कला की प्रगति में जैनियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मैसूर में श्रवणबेलगोला में स्थित 57 फीट गोमतेश्वर की नग्न मूर्ति (983-1048 ई.) अपने ढंग की बेजोड़ रचना है तथा आज भी अनेक स्थानों पर इस कृति की नकलें बनाई जाती हैं। माउण्ट आबू (राजस्थान), पालिथान (गुजरात) तथा दक्षिण में मूदिबिदरि और कर्कल के जैन मंदिर भारतीय कला की समृद्ध विरासत को प्रदर्शित करते हैं। मंदिरों का निर्माण, परोपकारार्थ धर्मशालाओं और पशुशालाओं का निर्माण, पाण्डुलिपियों के भण्डार से युक्त समृद्ध पुस्तकालयों की सुरक्षा तथा निर्धनों में भोजन तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं का वितरण करना जैन समाज की कतिपय महत्वपर्ण विशेषताएं हैं। दूसरे भारतीय धार्मिक समुदायों ने जैनियां से इसका अनुकरण किया।
संस्कृत ब्राह्मण साहित्य का तथा पालि मुख्यत: बौद्धों की माध्यम भाषा रही हैं। जैनियों ने भाषा के क्षेत्र में किसी एक भाषा को धार्मिकता नहीं प्रदान की। विभिन्न स्थानों में प्रचलित लोक भाषा को समयानुसार माध्यम बनाया गया। महावीर ने अर्द्ध मागधी बोली में उपदेश दिए क्योंकि मागधी और शौरसेनी बोलने वाले दोनों समझ सकें। कालान्तर में जैनियों ने संस्कृत का प्रयोग भी साहित्यिक ग्रन्थों के लिए किया। संस्कृत, पालि आदि क्लासिकल भाषाओं तथा आधुनिक क्षेत्रीय भाषाओं के मध्य कड़ी माने जाने वाली अपभ्रंश भाषा जैनियों में विशेष रूप से लोकप्रिय हुई। आधुनिक हिन्दी मराठी और गुजराती के उदय के पूर्व इन क्षेत्रों में प्रचलित भाषा में अनेक जैन ग्रन्थ लिखे गए। तमिल और कन्नड़ साहित्य के विकास में भी जैन धर्म का विशेष योगदान रहा है। जैन साहित्य केवल धार्मिक ही नहीं है। ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं में जैनाचार्यों द्वारा अध्ययन किया गया जिनमें गणित, नक्षत्र विज्ञान, व्याकरण, छन्दशास्त्र, कोश रचना आदि में योगदान उल्लेखनीय है। इतिहास, दर्शन के क्षेत्र में जैन दृष्टिकोण चक्रात्मक रहा है। ब्राह्मण इतिहास परम्परा की अशुद्धियों को दिखाते हुए उनमें ज्ञात घटनाओं तथा चरितो को जैन नीतियों के रंग में रखने का प्रयास किया है। सभी अपने कर्मों का फल भोगते हैं, अत: किसी अतिमानवीय सत्ता के हस्तक्षेप को उन्होंने नकारा।