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प्राक्कथन
जैनियों तथा बौद्धों ने जन्म के आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव करने वाली जाति प्रथा को त्याज्य मानकर कर्म को महत्व दिया। जैन मुनि हरिकेशबल चाण्डाल कुल में जनमे थे, किन्तु कर्म के कारण वन्दनीय हो गए।
कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होइ खतिओ।
वइस्सो कम्मुणा होई, सुद्धो हवई कम्मुणां।। वस्तुत: महावीर और बुद्ध के समय दो विपरीत प्रकार की दार्शनिक विचारधाराएँ प्रचलन में थीं। कम्मवाद या किरियवाद तथा अकम्मवाद या अकिरियवाद। अकम्मवादी विचारधारा के अन्तर्गत प्रमुख रूप से अन्तिम सत्ता को ही शाश्वत मानने वाला सस्सतवाद, दैव उत्पत्ति को स्वीकार करने वाला अधिच्चसमुप्पाद केवल भौतिक शरीर को ही सत्य मानने वाला उच्चेदवाद, कारण के सिद्धान्त को नकारने वाला यहच्चवाद नियति को प्रतिष्ठापित करने वाला नियतिवाद, काल को सर्वोपरि मानने वाला कालवाद तथा अन्तर्निहित शक्तियों के माध्यम से विकास के सिद्धान्त को मानने वाला एवं स्वतंत्र इच्छा शक्ति को अस्वीकार करने वाले स्वभाववादी सिद्धान्त का उल्लेख किया जा सकता है। इन सबसे बिलकुल अलग जैनियों और बौद्धों की कम्मवादी विचारधारा थी। भाग्य, काल, संयोग और आत्मा को कारण के रूप में नहीं, बल्कि स्वयं के कर्मों को कारण मानकर कम्मवादियों ने कर्म को सर्वोच्च महत्व दिया।
अनेकान्तवाद का सिद्धान्त जैन दर्शन की एक अपूर्व देन है। यह सिद्धान्त मानता है कि कोई भी विचार किसी एक दृष्टि से सत्य हो सकता है तो दूसरी दृष्टि से असत्य। सम्पूर्ण सत्य जानना असंभव है। देश-काल आदि की सीमाओं से बंधे होने के कारण किसी भी मनुष्य के लिए सम्पूर्ण को समझना सम्भव नहीं है। अन्धे व्यक्तियों के द्वारा हाथी के विभिन्न अंगों के आधार उसकी आकृति का अलग-अलग ढंग से वर्णन करने का दृष्टान्त देकर अनेकान्तवाद का समर्थन जैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद प्रणाली से अत्यंत प्रभावी ढंग से किया है। इतिहास और समाजविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र में वस्तुनिष्ठता की जटिल समस्या का निदान जितना स्याद्वाद से स्पष्ट हो सकता है वैसा किसी अन्यत्र ढंग से असम्भव है। चूंकि अनेकान्तवाद वस्तु के स्वरूप को अनन्त धर्मात्मक मानता है, अत: उसके प्रतिपादन की शैली भी ऐसी होनी चाहिए जिससे वस्तु के अनन्त स्वरूप का संकेत हो। वस्तुओं के इस अनन्त स्वरूप के संकेत की प्रणाली का ही नाम स्याद्वाद
राष्ट्र सन्दर्भ में अनेकान्तवाद के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार वस्तु अनन्त धर्मात्मक है उसी प्रकार राष्ट्र में भी विविधता है। उन विविधताओं को समाप्त कर एकता स्थापित करना न ही सम्भव है और न ही यह उचित है। एकता का अर्थ है सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व तथा विविधता में एकता। भगवतीसूत्र में महावीर कहते हैं कि मैं एक भी हूं और अनेक भी। जैनाचार्यों ने मानवीय एकता पर विशेष