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प्राक्कथन
जैन और बौद्ध धर्म का सम्बन्ध भारतीय श्रमण संस्कृति से जुड़ा है जिसका प्रारम्भ सामान्यत: वैदिक प्रवृति मार्ग, यज्ञ, बलि आदि कर्मकाण्ड के विरुद्ध प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप आरण्यक और उपनिषदों के उदय से माना जाता है। यज्ञों की आलोचना करते हुए सर्वप्रथम उपनिषद ऋषियों ने ही कहा था कि यज्ञ रूपी नौकाएं अदृढ़ होने के कारण आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञादि कर्म काण्डों की नवीन आध्यात्मिक व्याख्याएं देकर उन्हें परम्परा की आध्यात्मिक दृष्टि के अनुरूप बनाने का कार्य उपनिषद ऋषियों का था। उपनिषदों के पश्चात् तो कठोर तपश्चर्यः और वैराग्य को ही जीवन का परम लक्ष्य मानने वाले श्रमण सम्प्रदायों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती गई। ऐसा माना जाता है कि बुद्ध और महावीर के समय भारत में श्रमणों के 63 सम्प्रदाय थे इन मतों के मध्य यद्यपि अनेक विभिन्नताएँ थी, किन्तु एक बात में सब समान थे और वह यह है कि इन सभी सम्प्रदायों के साधु-सन्त घर छोड़कर वैराग्यपूर्ण जीवन बिताते थे तथा सबके सब चाहते थे कि हिंसापूर्ण यज्ञ बन्द हों तथा मनुष्य किसी अधिक गम्भीर धर्म का आचरण करना सीखे।
वस्तुत: श्रमण परम्परा यद्यपि मुखर होकर उपनिषदों से भले ही प्रारम्भ लगे इसकी उत्पत्ति के साक्ष्य ऋग्वेद में भी देखे जा सकते हैं। ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना मुनियों का निर्ग्रन्थ साधुओं तथा उन मुनियों के नायक केशी मुनि की समता ऋषभदेव से स्थापित की गई है। क्या जैन श्रमण संस्कृति की उत्पत्ति वैदिक-ब्राह्मण परम्परा से मानी जा सकती है? हरमान जैकोबी ने जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्म में विद्यमान वैराग्य परम्परा के मध्य तुलना करते हुए उनकी समानताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है। यह संदेहास्पद है कि इनके नियम एक-दूसरे से पूर्णत: स्वतन्त्र होंगे। इनमें से एक या दो ने किसी एक से ग्रहण किया होगा अथवा इन सबका मूल स्रोत एक रहा होगा यह अनुमान का विषय है। जैकोबी का यह मानना तो कि जैनियों ने बौद्धों से ग्रहण नहीं किया होगा क्योंकि बौद्ध धर्म का उदय जैन मत के पश्चात हुआ उचित प्रतीत होता है, किन्तु उसकी यह धारणा कि स्रोत वैदिक ब्राह्मण परम्परा से था, युक्तिसंगत नहीं लगता।