Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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जैनागम एवं ज्ञाताधर्मकथांग और मानव जीवन का महत्व बताकर संयम साधना में स्थिर करते हैं, उसी प्रकार तथागत बुद्ध नन्द को एक कुब्ज बंदरी एवं आगामी भव के रंगीन सुख बताकर स्थिर करते हैं। जातक साहित्य से यह भी परिज्ञात होता है कि नंद अपने प्राप्त भवों में हाथी था। तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर मेघ का जीवनवृत्त अधिक प्रभावक है। क्योंकि उसमें पूर्वभव में भी अधिक सहनशीलता व असीम करूणा थी तथा मुनि जीवन में भी वह प्रतिष्ठा एवं घमण्ड से ऊपर उठ चुका था। कितना समर्पण कर दिया अपने आपको मुनि संघ के प्रति। दोनों के पूर्वभव में हाथी की घटना भी बहुत कुछ साम्यता लिए हुए है।
प्रथम अध्ययन में आए हुए अनेक व्यक्ति ऐतिहासिक हैं। सम्राट श्रेणिक की जीवनगाथाएँ जैन साहित्य में ही नहीं, बौद्ध साहित्य में भी विस्तार से आई हैं। अभयकुमार को जैन और बौद्ध परम्पराएँ अपना अनुयायी मानती हैं। द्वितीय अध्ययन : संघाट
इस अध्ययन में विजयचोर और धन्नासार्थवाह के उदाहरण के माध्यम से यह प्रतिपादन किया है कि सेठ को विवशता से पुत्रहन्ता को भोजन देना पड़ता था। वैसे ही साधक को भी संयम निर्वाह हेतु शरीर को आहार देना पड़ता है, किन्तु उसमें शरीर के प्रति किंचित भी आसक्ति नहीं होती। श्रमण की आहार के प्रति किस तरह से अनासक्ति होनी चाहिए, कथा के माध्यम से यह सजीव हो उठता है
"अवि अप्पणो वि देहम्मि, नायरंति ममाइयं" मुनिजन अपने शरीर पर भी ममता नहीं रखते। मात्र शरीर की सहायता से सम्यक-ज्ञान-दर्शन और चारित्र की रक्षा एवं वृद्धि के उद्देश्य से ही उसका पालन-पोषण करते हैं। तृतीय अध्ययन : अंडक
इस अध्ययन में उदाहरण के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है- 'तमेव सच्चं णीसंक जं जिणेहिं पवेइयं' अर्थात् वीतराग और सर्वज्ञ ने जो तत्त्व ज्ञान प्रतिपादित किया है, वही सत्य है, उसमें शंका-संशय नहीं करना चाहिये।
इसमें रूपक के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है- 'संशयात्मा विनश्यति' और श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्' इस कथा के माध्यम से यह भी पता चलता है कि
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