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धर्मशास्त्र का इतिहास
( अर्थात् महापातक नहीं कहा जायगा ) और व्यक्ति को सुरा-स्पर्श के कारण एक हलका प्रायश्चित करना पड़ेगा ( प्रायश्चित्तविवेक, पृ० ९३ ) |
(३) स्तेय (चोरी)
टीकाकारों के अनुसार वही चोरी महापाप के रूप में गिनी जाती है जिसका संबंध ब्राह्मण के किसी भी मात्रा के हिरण्य ( सोने) से हो । आप० ध० सू० (१।१०।२८।१ ) के अनुसार स्तेय की परिभाषा यह है- " एक व्यक्ति दूसरे की सम्पत्ति के लोभ एवं बिना स्वामी की सम्मति से उसके लेने से चोर हो जाता है, चाहे वह किसी भी स्थिति न हो। " कात्या० (८१०) ने इसकी परिभाषा यों की है - "जब कोई व्यक्ति गुप्त या प्रकट रूप से दिन या रात में किसी को उसकी सम्पत्ति से वंचित कर देता है तो यह चोरी कहलाती है।" यही परिभाषा व्यास की भी है। अपनी योगसूत्रव्याख्या (२३) में वाचस्पति ने स्तेय की परिभाषा यों की है--" स्तेयमशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः स्वीकरणम्", अर्थात् इस प्रकार किसी की सम्पत्ति ले लेना जो शास्त्रसम्मत न हो । यद्यपि मनु (११।५४) एवं याज्ञ० ( ३।२२७) ने केवल ' स्तेय' (चौर्य) या स्तेन (चोर) शब्दों का प्रयोग किया है किन्तु स्तेय के प्रायश्चित्त के विषय में लिखते हुए मनु (११।९९, 'सुवर्णस्तेयकृत्') एवं याज्ञ० ( ३।२५७, 'ब्राह्मणस्वर्णहारी' ) ने यह विशेषता जोड़ दी है कि उसे सोने की चोरी के अपराध का चोर होना चाहिए (याज्ञ० के अनुसार ब्राह्मण के सोने की चोरी ) । वसिष्ठ (२०४१) एवं च्यवन (प्रायश्चित्तविवेक, पृ० ११७) ने ब्राह्मण-सुवर्ण-हरण को महापातक कहा है और सामविधान ब्राह्मण ( १।६।१ ) ने 'ब्राह्मणस्वं हृत्वा' शब्दों का प्रयोग किया है। और देखिए संवर्त (१२२) एवं विश्वामित्र ( प्राय० वि० पृ० १०८ ) । विश्वरूप ( याज्ञ० ३।२५२, अनाख्याय आदि), मिताक्षरा ( याज्ञ० ३।२५७), मदनपारिजात ( पृ० ८२७-२८ ), प्रायश्चित्तप्रकरण ( पृ० ७२), प्रायश्चित्तविवेक ( पृ० १११ ) एवं अन्य टीकाकारों ने एक अन्य विशेषता भी जोड़ दी है कि चुराया हुआ सोना तोल में कम-से-कम १६ माशा होना चाहिए, नहीं तो महापातक नहीं सिद्ध हो सकता । अतः यदि कोई व्यक्ति किसी ब्राह्मण के यहाँ से १६ माशे से कम सोना चुराता है या अब्राह्मण के यहाँ से वह किसी भी मात्रा ( १६ माशे से अधिक भी) सोना चुराता है तो वह साधारण पाप ( उपपातक) का अपराधी होता है।
वार्याणि (आप० ध० सू० १|१०|२८|२) के मत से यदि कोई बीजकोषों में पकते हुए अनाजों (यथा मुह माष एवं चना) की थोड़ी मात्रा खेत से ले लेता है तो वह चोरी नहीं है, या बैलगाड़ी में जाते हुए कोई अपने बैलों के लिए थोड़ी घास ले लेता है तो वह चोरी के अपराध में नहीं फँसता । गौतम (१२।२५ ) के मत से कोई व्यक्ति ( बिना अनुमति एवं बिना चौर्य अपराध में फँसे ) गौओं के लिए एवं श्रौत या स्मार्त अग्नियों के लिए घास, ईंधन, पुष्प या पौधे (जो घेरों से न रक्षित हों) ले सकता है ( मानो वे उसी की सम्पत्ति या फल पुष्प आदि हैं) । मनु ( ८|३३९ = मत्स्य २२७।११२-११३) ने भी गौतम के समान ही कहा है। उन्होंने ( ८1३४१ ) एक बात यह भी जोड़ दी है कि तीन उच्च वर्णों का कोई भी यात्री, यदि पाथेय घट गया हो, (बिना दण्ड के भय से ) किसी दूसरे के खेत से दो खें एवं दो मूलियाँ ले सकता है।
(४) गुरु- अंगनागमन
मन (५१।५४) ने गुर्वङ्गनागमन शब्द का प्रयोग किया है किन्तु याज्ञ० (३।२२७) एवं वसिष्ठ (२०१३) ने अपराधी को गुरुतल्पग (जो गुरु की शय्या को अपवित्र करता है) एवं वसिष्ठ (१।२० ) ने इस पाप को 'गुरुतल्प' (गुरु की शय्या या पत्नी) की संज्ञा दी है । मनु ( २।१४२) एवं याज्ञ ( ११३४ = शंख ३1२ ) के अनुसार 'गुरु' का मौलिक अर्थ है 'पिता' । गौतम (२।५६ ) के अनुसार (वेद का ) गुरु गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ है, किन्तु अन्य लोग माता को ऐसा कहते
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