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कृष्ण (वद) बे पक्ष छे, ते आयुष्य घटाडी. रया छे अने चार सर्प छे ते क्रोध, मान, माया लोभ ए चार कषाय छे. तथा मधमाखीओ छे ते शरीरनो रोग छे ॥ २० ॥ मधना टीपांनो स्वाद छे ते इन्द्रयजनित मुखनो आभाश मात्र छे. ए प्रमाणे संसारमा सुख दुःखनो विभाग छे ॥ २१ ॥ हालमां आ संसारमा भ्रमण करता जीवोना सुख दुःखनो विभाग करीए तो मेरु पर्वतनी बराबर तो दुःख छे अने एक तल मात्र मुख छे. ए कारणथी संसारनो त्याग करवाने निरंतर उद्यम करवो जोइए ॥ २२-२३ ॥ जे मूढ माणसो रंज मात्र सुखने माटे विषयभोग सेवन करे छे, तेओ जाणे शियाळानी टाढ दूर करवाने माटे विजलीनी अग्निनी साथे तापवानी इच्छा करे छे ॥ २४ ॥ जो शोधीए तो कोइ जग्याए अग्निमांथी पण बरफ मळी शके परंतु संसारमा सुखनी प्राप्ति कोई काळमां पण कोइ जग्याए नथी ॥ २५ ॥ मूर्ख लोको विषयभोगसंबंधी दुःखोने सुखना नामथी कहे छे, परंतु खरं जोतां ते सुख नथी. जे प्रमाणे होलवाई गएला दीवाने वधी गयो कहे छे ते प्रमाणे आ पण छे ॥ २६ ॥ जे प्रमाणे धंतूराना पीवाथी मनुष्यने नीशा थयेथी सघळु पालुंज पीळु देखाय छे, ते प्रमाणे विषयोनी आकुलता थी संसारी जीव दुखदायक भोगोने पण सुखदायक माने छे ॥ २७ ॥ मुख धर्मना प्रभावथीज थाय छे माटे धर्मनी रक्षापूर्वक विषयसुख भोगव, मोइए. ने प्रमाणे वृक्ष- फळ मळे छे, परंतु वृक्षनी रक्षा करीने फळने भोगव, जोईए. नहि के वृक्षने बगाडीने ॥२८॥सज्जन पुरुष छे ते पापथी उत्पन्न थतां दुःखने जोईने पापने छोडे छे केमके एवो कोण मूर्ख छ के जे अग्निथी आताप थाय छे एम जाणवा छतां पण आग्निमां प्रवेश करे? ॥ २९ ॥