Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia
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देवो जोइए ॥ ६६ ॥ जे संतोषव्रतना धारी छे, तेओए धन, धान्य, गृह, क्षेत्र, द्विषद, चतुष्पद वगेरेनुं परिमाण करी लेवू जोइए ॥ ६७ ॥जे प्रमाणे लाकडां नाखवाथी अग्नि वधे छे, तेज प्रमाणे कषाय छोडवाथी धर्म, स्त्रीना संगथी काम, अने लोभथी लोभ वधे छे ॥ ६८ ॥ नहि जीतेलो लोभ मनुष्यने भयानक नर्कमां लई जाय छे, ते ठीकज छे के, जे बळवान वैरी होय छे, ते कयुं कयुं कष्ट आपता नथी? ॥ ६९ ॥ मेळवेली धनसंपदाने भोगवनारा घणा छे, परंतु ज्यारे आ जीव आरंभथी उपार्जन करेलं पापर्नु फल नर्कमां भोगवे छे, ते वखते पेला धनसंपदाने भोगवनारा पुत्रादिक वगेरे कोईपण सहाय थता नथी ॥ ७० ॥ जे मनुप्यने निश्चय संतोष छे तेना देव चाकर छे, कल्पवृक्ष तेना हाथमा छे अने तेना वरमां संपत्ति आवेली छे, एम समजबुं जोईए, केमके, आ सघळी सुखदायक संपदाओ होवा छतां पण जेना चित्तमां कल्याण करवावाको संतोष नथी, ते सदा दरिद्र अने दुःखीज छे ॥ ७१-७२ ॥
ए पांच अणुव्रतो सिवाय दिशा, देश अने अनर्थदंडथी विरक्त थर्बु एवा त्रण प्रकारना गुणवत छे. मोक्षनी इच्छा करनारा श्रावकोए ए त्रणे गुणव्रत मन, वचन, कायाथी धारण करवा जोईए ॥ ७३ ॥ दशे दिशाओमां विधिपूर्वक जवा आववानुं परिमाण करीने तेनी आगळ नहीं जवं, ते पहेलं दिखत नामनुं गुणव्रत छे ॥ ७४ ॥ ए गुणव्रत धारण करवाथी मर्यादा बहारना त्रस अने स्थावर बन्ने प्रकारना जीवोनी हिंसानो सर्वथा त्याग थइ जवाथी ते श्रावकने घरमा रहेवा छतां पण मर्यादाथी बहार महाव्रत थाय छे ॥ ७५ ॥ जेणे आ दिग्वत धारण कर्यु,

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