Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ko0300 2009.0904090 20 नंबर ३. ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री अमितगति आचार्य विरचित धर्म परीक्षा. हिंदी अनुवाद उपरथी गुजरातीमां भाषांतर कर्ता, शा. इश्वरलाल कसनदास कापडीआ-- सुरत. 'छपावी प्रसिद्ध कर्ता, शा. मुलचंद कसनदास कापडीया - सुरत. स्वर्गवासी शेठ चुनीलाल झवेरचंदना स्मर्णार्थे तेमनां विधवा बाई जडावबाई तरफथी " दिगंबर जैन " ना ग्राहकोने वीजा वर्षनी भेट. वीर संवत २४३६. प्रत १०००. मुल्य रु. १. विक्रम संवत १९६६. -0-0. STREA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - धी “रान्देर " प्रिन्टिंग प्रेस, भागातलाव-मुरत. - - - - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ज्यारथी मुनि भट्टारकोनो अभाव थतो गयो त्यारथी दिगंबर जैन धर्म संबंधीनुं ज्ञान मेळववानुं साधन मात्र शास्त्रज थइ पडयुं छे, पण अनेक लिखित धर्मशास्त्रो अव्यवस्थित अने अशुद्ध होवाथी सर्वेने धर्मशास्त्रोनो लाभ लेवाने सुभीता पडती नथी. वळी हिंदी तथा मराठी भाषामां भनेक शास्त्रो मुळ अनुवाद साये छपाईने बहार पडयां छे अने वधु बहार पडतांज जाय छे, मेथी उत्तर अने दक्षिणना भाईओने तो धर्म संबंधी ज्ञाननो लाभ मळयोज जाय छे, पण आज सुधीमां गुजरातमां एवो एक पण धार्मिक ग्रंथ गुजराती भाषामां बहार पडयो नथी के अधी जेनधर्मर्नु रहस्य अने अन्य धर्मनुं पोकळपणुं गुजरातना भाईओना जाणवामां आवे. केटलोक वखत थयां अमोने एवो विचार उत्पन्न थयो के, जो गुजरातना भाईओ माटे कोई महान् शास्त्रीय ग्रंथ गुजराती अनुवाद करीने प्रकट करीए तो गुजरातने घणो लाभ थाय, पण गुजरातमा धर्मरुची ओछी होवाथी एवो पण विचार उत्पन्न थयो के जो प्रथम कोईपण रीते विना मुल्ये आवो ग्रंथ आपत्रामां आवे तोज गुजरातना भाइओ एनो सहेलाइथी लाभ लई शके, आवो विचार उत्पन्न थवाना समममा श्रीमान् दानवीर जैनकुलभूषण शेठ माणेकचंद हीराचंदजी जे. पी. ना स्वर्गवासी भाणेज शेठ चुनीलाल झवेरचंदनां विधवा बाई गडावबाईने कोइ धार्मिक ग्रंथ गुजराती भाषामां तैयार करी स्वर्गवासी शेठ चुनीलाल झवरचंदना स्मार्थे प्रकट करवानो विचार थयो अने Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कयो ग्रंथ केवी रीते बहार पाडवो ते विषेनी मसलत शेठ माणेकचंद हिराचंदजी साथे चालतां नक्की थयु के, श्री अमितगति आचार्यकृत आ महान शास्त्रीय ग्रंथ गुजराती भाषामा अनुवाद करीने शेठ चुनीलालना स्मरणार्थे प्रकट करखों अने “ दिगंबर जैन " पत्रना ग्राहकोने त्रीजा वर्षनी भेट तरीके आपवो अने बाकीनी नकलना वेचाणनी उपजमांथी फरीथी कोई ग्रंथ प्रकट करी भेट बहेंचत्रो. आ प्रमाणे विचार थया पछी आ धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथ जे प्रसिद्ध पंडित पन्नालाल बाकलीवाळ तरफथी हिंदीमां प्रकट थयो छे तेनो गुजराती अनुवाद करवा कार्य अमोने अनेक कार्यनो बोजो होवाथी अमारा स्नेही भाई ईश्वरलाल करसनदासने आपवामां आव्युं अने ए भाईए टुंक वखतमां आ ग्रंथy गुजराती भाषांतर करी जे सेवा बजावी छे, ते माटे ए भाईना अमो अत्यंत आभारी छीए. आ पुस्तकना मूळ ग्रंथकर्ता श्री अमितगति आचार्ये पोतानी प्रस्तावना ग्रंथना अंतमां आपेली छे, जेथी वधु न लखतां मात्र टुंकामां जणावीए छीए के, श्री अमितगति आचार्य विक्रमन दशमा सैकाना उत्तरार्धमां थई गया छे. एमणे रचेला सुभाषित रत्नसंदोह, श्रावकाचार अने धर्मपरिक्षा आ त्रण ग्रंथ बहुज प्रसिद्ध छे. सुभाषित रत्नसंग्रह काव्यमाळामां प्रकाशीत थइ चुक्युं छे, श्रावकाचारनी भाषाटिका पंडितवर्य भागचंदजीए करेली छे, पण हजु सुधी प्रकट थइ नथी अने धर्मपरिक्षा मुळ संस्कृत श्लोको साथे हिंदी भाषामां प्रकट थइ चुक्यो छे, ए सिवाय जंबुद्विप प्रज्ञाप्ति, सार्धद्वयद्विप प्रज्ञाप्ति, भावना द्वात्रिंशतिका, पंचसंग्रह, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्र प्रज्ञाप्त अने व्याख्या प्रज्ञप्ति आ छ ग्रंथ पण ए आचार्ये रचेला छे, ने हजु सुधी प्रकट थया नथी. __ श्री अमितगतिजीए आ धर्मपरिक्षा ग्रंथ विक्रम संवत १०७० मां बनाव्यो छे तथा श्रावकाचार अने सुभाषित रत्नसंदोह संवत १९५० मां बनाव्या छे. ए समयमां धारानगरीमां राजा मुंज राज्य करता हता. सांभळवामां आवे छे के, महाराजा मुंजनी सभामां ९ रत्न हता जेमां एक श्री अमितगति पण हता. आ समयमां भट्टारकोनी उत्पत्ति थइ नहोती. आ आचार्य काष्टासंघना माथुर सांप्रदायिक पट्ट उपर थई गएला छे. आ संस्कृत ग्रंथनी श्लोक संख्या १९४९ छे जे दरेकनो छुटो सरल गुजराती भाषामां अर्थ आ ग्रंथमां आपवामां आवेलो छे. आचार्यश्रीए आ ग्रंथ मात्र बे महिनामां बनाव्यो हतो, जेथी कविनी काव्यरचना शक्ति केटली जबरी हती ते समजाय छे. आ ग्रंथमां कविए जैनथी बीजा धर्मनो इतिहास अने अन्य धर्मनी समजुती अनुमान प्रमाणथी सत्पनी कसोटी उपर केटली बबी उतारी छे ते दर्शाव्युं छे, जेथी कविने अन्य धर्मनुं पण केटलं बधु घाडुं ज्ञान हतुं ते स्पष्ट जणाय छे. आ ग्रंथमां रचेली कथानुं संविधानक घणुं मनोवेधक छे, जेमा मुख्य कथा एवी रीते छे के, जीनधर्मी मनोवेगे मिथ्याधर्मी पवनवेगने उपदेश करवानें कडं अने पछी पोते कथा कही तेने वार्ताना रसमां सचोट उतारी अन्य धर्मीय सिद्धांत मिथ्या छे अने जैनधर्मी सिद्धांत खरा छे एम बरावर समजावी ते पवनवेगने छेवटे मिथ्याधर्ममा च्युत करी जैनधर्मी बनाव्यो छे अने तेनी पासे सम्यक्व ग्रहण कराव्युं छे. आ ग्रंथ एटलों बोधदायक अने रसीलो छे के Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक वखत हाथमां लीधा पछी ते पूरो कर्या वगर नीचे मूकातो ना. वळी आ ग्रंथमां कथानी साथे वारंवार आपेलां नीति वाक्यो, द्रष्टांतो, कहेवतो, उपमाओ एटलां तो उत्तम छे के, जे दरेक कंठाग्र करवालायक छे. आ ग्रंथमां त्रीजे पाने १२ मी लीटीमां तथा बीजे ठेकाणेना वाक्योना द्रष्टांतमां ईश्वर कर्ता जे, विवेचन छे ते अन्यमतनी अपेक्षाए के, केमके अन्यमतावलंबी ब्रह्मा ( विधाता ) ने जगतना कर्ता माने छे. जैनो जगतने अनादि निधन माने छे, परंतु केटलेक ठेकाणे द्रष्टांत वगेरेमां अन्यमतनी अपेक्षाए कहेवानी अनेक आचार्योनी रूढी छे, मेथी वांचकोए तेने सत्य अथवा जिनमत प्रणित न समजवु. ___ आवो महान ग्रंथ प्रकट करवानो अमारो आ प्रथम प्रयास होवाथी घणी काळजी राखवा छतां पण हजु भूलो रही गई हशे ते माटे वांचकोनी अमो क्षमा मागीए छीए, अने एमां जे जे कांइ दोषो रही गया होय ते जणाववा विद्वज्जनोने प्रार्थना करीए छीए के जेथी द्वीतीयावृत्ति वखते तेमां सुधारो करवामां आवे. __स्वर्गवासी शेठ चुनीलाल झवेरचंदनां विधवाबाई जडावबाइए आ ग्रंथ प्रकट करावी दिगंबर जैनधर्मनी जे सेवा बजावी छे ते अत्यंत धन्यवादने पात्र तथा आखी कोमने आभाररूप धडो लेवा लायक छे. ___आ ग्रंथमा प्रथम, स्वर्गवासी शेठ चुनीलाल झवेरचंदनुं फोटो साये जीवन चरित्र आपेलुं छे, जे मनन करवा लायक होवाथी आ ग्रंथ शरु करतां पहेलां ए जीवनचरित्र वांचवा खास भलामण करीए छीए. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेवटमा आ ग्रंथनो गुजराती अनुवाद करवा माटे अमारा स्नेही भाई ईश्वरलाल करसनदासनो धन्यवाद सहित फरीधी उपकार मानीने भा उपोद्घात अत्रे टुंकावीए छीए अने सर्वे वांचकोने आ ग्रंथने प्रथमथी छेवट सुधी वांचवाने अने एनो स्वाध्यायना शास्त्र तरीके विनय सहित उपयोग करवाने नम्र सुचना करीए छीए. ___जैन जाति सेवक, वीर संवत २४३६ । शा. मुलचंद करसनदास कापडीआ वैशाख वद १ ) संपादक “ दिगंबर जैन " सुरत. प्रकटकर्ता. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “दिगंबर जैन” आ मासिकपत्र व्यवहारिक, धार्मिक, ऐतिहासिक लेखो फोटाओ, वधाराओ, जीवनचरित्रो तथा आखा हिंदुस्तानना ताजा जैन समाचारो पूरा पाडतुं दर महिने नियमीत रीते स्वदेशी कागळ उपर गुजराती भाषामां प्रकट थाय छे, तेमज एना ग्राहकोने दर वर्षे मनोहर पंचांग अने उपयोगी पुस्तक भेट आपवामां आवे छे, जेथी टुंक समयमां बहोळो फेलावो पामी आ मासिक अत्यंत लोकप्रिय थयुं छे, तेमज अनेक विद्वानो अने पत्रकारोए आ पत्र माटे उंचा अभिप्रायो दर्शावेला छे. वार्षिक लवाजम अगाउथी रु. १-६--० भेटना पोस्टेज साथे. संपादकःशा. मुलचंद कसनदास कापडीआ, चंदावाडी--मुरत. दिगंबर जैन पुस्तकालय-सुरत, आ पुस्तकालयमांथी हिंदी अने गुजराती भाषाना नानां मोटा दरेक भातनां पुस्तको रोकडी किंमते मळी शके छे. मेनेजर, दिगंबर जैन पुस्तकालय, चंदावाडी-सुरत. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गवासी शेठ चुनीलाल झवेरचंद झवेरी. जन्म संवत १९२४. THE "RANDER" PRESS, SURAT. मृत्यु संवत १९६३. 015 do Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गवासी शेठ चुनीलाल झवेरचंद झवेरीनुं संक्षिप्त जीवनचरित्र. जे ग्रहस्थना स्मार्थे आ महान ग्रंथ भेट तरीके आपवामां आवे छे तेमनुं जीवनचरित्र अने फोटो जो आ साथे आपवामां आवे तो तेथी वांचकोने अनेक लाभ थाय, एज कारणथी स्वर्गवासी शेठ चुनीलाल झवेरचंद- संक्षिप्त जीवनचरित्र अने फोटो अत्रे आपीए छीए. सुरतमा वीसा हूमड दिगंबर जैन गंगेश्वर गोत्री शा. ब्रीजलाल शीतलदासने शा. झवेरचंद, शा. मुळचंद, शा.त्रीभोवनदास अने शा. साकेरचंद नामे चार पुत्रो थया, तेमां शेठ झवेरचंदनां लान दानवीर जैन कुलभूषण शेठ माणेकचंद हीराचंदजी जे. पी. नां व्हेन मंछाबाइ साथे थयां हतां, तेमने शा. चुनीलाल नामे एक पुत्र अने धोळी उर्फे अमरत नामनी एक पुत्री थई, जेमां आ जीवनचरित्रना नायक शेठ चुनीलालनो जन्म संवत १९२४ मां चैत्र सुद ११ ने दिने सुरतमां थयो हतो. ___ शेठ चुनीलालना पिताश्री शेठ झवेरचंद सरळ स्वभावी अने मध्यम स्थितीना हता अने करीयाणानी दलाली करी पोतानुं गुजरान करता हता, अने एमनुं मृत्यु संवत १९४५ मां थवाथी शेठ चुनीलालने सर्वे कार्य पोताने माथे आवी पडयु. __ शेठ चुनीलाले सुरतनी निशाळमां गुजराती पांचमी चोपडी सुधी अभ्यास कर्यो हतो अने दश वर्षनी उमरथी पोताना मामा शेठ पानाचंद, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ माणेकचंद अने शेठ नवलचंद साथे मुंवाईमा रहेवा लाग्या हता. शेठ चुनीलालना लग्न ११ वर्षनी उमरे जडावबाई साथे सुरतमां थयां हतां जेओ पण एटलीज उमरना हता. ___ शेठ चुनीलाले १५ वर्षनी उमरे मुंबाइमां मोती पोरववानो धंधो शीखवा मांडयो, जेमा टुंक वखतमां एटला बधा पावरधा थइ गया. के, एमने परोणीगरना धंधामां सारी कमाणी थवा लागी. शेठ चुनीलाल सं.१९५० मां पोताना मामाओ शेठ पानाचंद, शेठ माणेकचंद अने शेठ नवलचंद साथे माणेकचंद पानाचंदनी पेढी साथे भागमा जोडाया, अने पोताना मामाओ साथे घणीज कुनेह अने खंतथी व्यापार करवा लाग्या, जेथी मात्र थोडा वर्षमा शेठ चुनीलालने मोतीना व्य पारमा सारो लाभ थयो हतो. शेठ चुनीलालने त्रीश वर्षनी उमरथी धर्म उपर सारो भाव थयो हतो अने स्वाध्यायनो नियम लीधो हतो. संवत १९४२ थी १९५५ सुधीमा एमणे श्री समेतशिखरजी, गोमटस्वामी, गीरनारजी, शेजा, केशरीआजी वगेरे अनेक याताओ करी धर्मकार्यमां पैसानो सारो उपयोग को हतो, अने ए अरसामा दिन प्रतिदिन एमने धर्म उपर सारी रुची उत्पन्न थई हती. सं. १९५३ मा एमना मामा शेठ नवलचंद साथे श्री समेतशीखरजीनी यात्राए गया हता, ज्यां पोताना मामा साथे महान परिश्रम करी पगथीयां बांधवानी व्यवस्था करीने ७०५ पगथी तैयार कराव्यां हतां. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए पगधीआंओ श्वेतांबरी भाइओ तरफथी सं. १९५५ मां तोडी नांखवामां आव्या हता ! अने एज अरसामां मुंबाइमां दिगंबर जैन प्रांतिक सभा ( कोन्फरन्त ) नी स्थापना भई, जेना तीर्थ क्षेत्र विभागना मंत्री शेठ चुनीलाल निमाया हता, जेमणे श्वेतांबरी भाइओ साथे पगथी तोडी नाखवा संबंधीना केसमां मंत्री तरीके भारे खंतथी परिश्रम करी विजय मेळव्यो हतो अने एओ एज वर्षमां शेठ हीराचंद गुमानजी जैन बोर्डिंग स्कुल मुंबाईना ट्रस्टी अने मंत्री निभाया हता. ___ संवत १९५६ मां शेठ चुनीलाले सुरतमां श्री शांतिनाथना दहेरांनो जीर्णोद्धार कर शिखरबंध मंदिर आशरे रु. ७००० ) खरची बंधावीने भारे धामधुमथी प्रतिष्ठा करी हती. सं. १९५८ मां कलकत्तावाळा श्वेतांबरी बाबु बद्रीदासे श्री समेतशिखरजीनी पार्श्वनाथनी टुंक उपर प्रतिमाजी बिराजमान करवाने विचार कर्यो हतो., जेथी शेठ चुनीलाल वगेरऐ जाते जई पहाड उपर प्रतिमाजी पधराववामां न आवे ते माटे भारे परिश्रम लइ मनाई हुकम मेळवी प्रतिमा पधराववा दीधी नहोती. सं. १९५९ सुधी एमणे प्रांतिक सभाना तीर्थ क्षेत्र विभागना मंत्री तरीके घणी कुनेहथी कार्य बजावी अनेक तीर्थोनी ब्यवस्था सुधारवा तथा हिसाबो मेळवी बहार पाडवा सारो प्रयत्न कर्यो हतो अने एक वर्षमा मथुराना मेळा उपर महा सभाना वार्षिक आधिवेशनमा “ भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमीटी " नी स्थापना थई अने शेठ माणेकचंद हीराचंद महामंत्री अने शेठ चुनीलाल झवेरचंद ए कमीटीना सहायक महामंत्री Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीमाया अने एज वर्षमां श्री समेतशीखरजीनी वीसपंथी कोठीनो हिसाब बरोबर न होवाथी तथा पुरलीआनी कोर्टमा कोठीना रु. ४००००) जमे हता ते आरावाला लइ लेवानी तजवीज करता होवाथी अने जुना कार्यकर्ताओ हिसाब न वतावता होवाथी आरावाला वगेरे सामे खास पोते फरियादी थई सरकारमां केस चलावी ए कोठीनो बहिवट खास नवा टूस्टीओने सोंपाव्यो हतो, जे वखते शेठ चुनीलाले वखतोवखत एमना मामा शेठ माणेकचंद साथे समेतशीखरजी जई अथाग परिश्रम कर्यो हतो. सं. १९६० मां दिगंबर जैन प्रांतिक सभा मुंबाइनी त्रीजी बेठक प्रसंगे सोलापुरमा अगाउथी जई शेठ चुनीलाले सारी गोठवण करी हती. सं. १९६१ मां श्री पावापुरीजीना वहिवट संबंधी एमणे भारे खटपट करी जुना प्रबंधमां सुधारो कयों हतो तथा श्वेतांबरी माईओ सधिना केसमां पण आगवानी भर्यो भाग लीधो हतो. - संवत १९६३ मां हीराचंद गुमानजी धर्मशाळा ( हीराबाग ) ना एक ट्रस्टी नीमाया हता. सं. १९६३ मां माहा मासमां दिगंबर जैन प्रांतिक .कोन्फरन्सनी चोथी वार्षिक बेठक श्री गजपंथाजी तीर्थ उपर थई हती ते वखते शेठ चुनीलाल रिसेप्शन ( स्वागत ) कमीटीना प्रमुख नीमाया हता अने आठ दिवस अगाउ श्री गजपंथाजीमां जई भारे खटपट करी सभा माटे सारी गोठवण करी हती अने वेरान जग्यामां कोन्फरन्स माटे सर्वे प्रकारनी सगवड तैयार करावी हती अने ए प्रसंगे एमणे स्वागत करनारं Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोतानुं भाषण मराठी अने गुजराती भाषामां असरकारक रीते आप्यु हतुं, मेथी प्रांतिक सभाना कार्यने अनेक लाभो थया छे. आज वर्षमां श्री समेतशीखरजी उपर बंगला बांधवा संबंधी सरकारनो विचार थवाथी ए बंगला आपणा महान पवित्र तीर्थस्थळ उपर न बांधवामां आवे ते माटे तीर्थक्षेत्र कमीटीना सहायक महामंत्री तरीके अनेक संकटो आवत्रा छतां बे प्रण वखत श्री समेतशीखरजी जाते जई एमणे जे अथाग परिश्रम कयों हतो ते अवर्णनीय छे केमके एज निमित्ते एमनो स्वर्गवास थवानो बखत आव्यो हतो जे नीचेनी बीनाथी जणाशे. ___ संवत १९६३ मां शेठ चुनीलाल चोमासाना दिवसमां के जे वखते श्वेतांबरी भाइओ पालगंजना राजा साथे पहाडनो पटो नकी करी सही कखानी तैयारीमा हता ते वखते त्यांथी तार आववाथी एकदम शीखरजी गया हता अने त्यां अनेक खटपट करवाथी अने रुतु खराब होवाथी एओनी तबीयत बगडी आवी, जेथी मुंबाई आव्या हता, ज्यां दोढ मास सुधी मांदा रह्या हता. ए अरसामा एमनी सखत मोदगी प्रसंगे एमना मामा शेठ माणेकचंदजीने लेफटेनंन्ट गवर्नरनी मुलाकात प्रसंगे श्री समेतशीखरजी जवानी जरुर पडी हती त्यारे एमनी तबीयत घणीज नादुरस्त होवाथी शेठ माणेकचंदजी शिखरनी जवानो विचार मांडी वाळता हता त्यारे शेठ चुनीलाले सुतां सुतां कह्यु के, मामा, मारी फीकर करता ना, तमे शिखरजी जाओ अने पहाडनो झगडो मटाडो" आ धीरजना शब्द सांभळीने मामा शिखरजी जई पहोंचे छे अने पछवाडे भाणेजनो अंत आवे छे. धन्य छे आ शूरवीर भाणेजने अने आ धीरवीर मामाने ! ! म तो एक बखत छेज, पण धर्मनी लागणीमा मरण थाय Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो ते मरण नहि पण अजरामरपणुंज कहेवाय. आ प्रमाणे शेठ चुनीलाल सं. १९६३ ना श्रावण वद १ नी प्रभाते मुंबाईमां काळने शरण थया हता जेमनी पाछळ रु. ५००० ) धर्मादा काढवामां आव्या हता. शेठ चुनीलालना स्वर्गवासथी आखी दिगंबर जैन कोमने तेमज खास एमना मामाने भारे खोट गइ छे केमके शेठ चुनीलाल एमना मामा शेठ माणेकचंदजीने दरेक कार्यमां एक जमणा हाथ जेवा थई पडया हता. . शेठ चुनीलालजीए जो के झाझी केळवणी संपादन करी नहोती पण एमनी पाछली जींदगीमां एमनी वृत्ति धर्मकार्य तरफ घणीज वळी हती अने मात्र टुंक वखतमां एवां कार्यो करी गया छे के, जेनो आभार आखी दिगंबर जैन कोमे भुलाय तेम नथी. शेठ चुनीलालनां विधवा बाइ जडावबाई हाल हयाल छे, जेमने बे पुत्रीओ थइ हती, जेमांना एक पुत्री नामे कीकी ( परसन ) २६ वर्षनी उमरना हाल हयात छे. जडावबाई सरळ स्वभावी अने धर्म उपर सारी आस्थावाळां छे. एओ वखतोवखत अनेक यात्राओ करे छे तथा धर्मकार्यमां नाणांनो सारो उपयोग करे छे. हालमांज एमणे रु. २५०० ) खरची सुरतना श्री शांतिनाथजीना दहेरासरमां चांदीनी वेदी करावी छे अने मांगी मुंगी, पावागढ वगेरे तीर्थोमां आरसनी लादी जडाववाने सारी रकम आपी छे. एमनु धर्मकार्य तरफ विशेष लक्ष छे. छेवटमां आ टुंक जीवनचरित्र पूर्ण करतां नणावीशु के, ते परम Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृपालु परमात्मा शेठ चुनीलाल झवेरचंदना आत्माने शांति अने एमना - विधवा जडावबाईने तथा एमनां पुत्रीने धैर्य अर्पण करो अने जडावबाईनी हयातीमां अनेक धार्मिक कार्यो एमने हाथे थवा पामो. तथास्तु. जैन जाति सेवक, वीर संवत २४३६ । शा. मुलचंद कसनदास कापडीआ वैशाख वद ३ ) संपादक " दिगंबर जैन " सुरत. प्रकटकर्ता. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक. पृष्ट. ३ ५ ७ लीटी. १६ २१ १२ अशुद्ध. छाडतो सामन संधी शुद्ध.. छोडतो . समान . संबंधी ه सूर्य्य ه पुरुषोना मोटो पहेरो वगेरे विनश्वर ه पुरुषाना १३ १८ मोटा १६ १३ पहरो १८ . १८ . वगरे । विनस्वर २१२ प्रमाणे ३० २ नम्राभूत हामदेवजी ३१ २ मनोवगे ३४ २१ छोडीन मानोवेग ३६. १२ याग्य م प्रमाणे नम्रीभूत महादेवजी मनोवेगे छोडीने मनोवेग योग्य झर स ३७ १२ शठ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध. ___ लीटी. ३८ १० अशुद्ध. शुका सुका Sta संसार VRA ब्राह्मणो अप्यु 2 साथेज ९. ससार व्युद्गाही व्युदाही ब्राह्मणो एमेज एमज आप्यु नधी नथी सायेज चुपचुप गुपचुप बाने बीजे धरीने बेरीरूपी वैरीरूपी ____७९६ दुःसा दुःसाध्य ८०१ घोबी धोबी १०७ १६ . स्ववर्ण १११ १८ के छे कामने बेलासमान कामनी वेल समान ११२ १६ धर्मकाय धर्मकार्य 2 घरीने ४ सुवर्ण ११२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध. पृष्ट. ११९ १२० - लीटी. २ गयो' १२८ चतुर्मुखी झाडनी भोगवता दृष्ट्वा १३६ १५५ १५५ १५५ १५८ १ . २ कार्य अशुद्ध. गया चर्तुमुग्वी पेडनी भागवता दष्ट्वा कार्य ताम्रभोजनं आश्रर्यकारक देवधर्मनुं ळमीने दहसहीत अमे मथी परलोअ ताम्रभाजनं आश्चर्यकारक १५ देवधर्मन १७१ १९ १८४ १८८ १९९४ १९९ १८ मळीने देहसहीत अने . * नथी परलोक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ धर्म परिक्षा. प्रकरण १ लुं. - - मङ्गलाचरण. श्रीमान्नभस्वत्रयतुङ्गशालं जगद्गृहं बोधमयः प्रदीपः । समन्ततो द्योतयते यदीयो भवन्तु ते तीर्थकराः श्रिये नः ॥ १ ॥ कर्मक्षयानन्तरमर्चनीयं विविक्तमात्मानमवाप्य पूतं । त्रैलोक्यचूडामणयो भवन्ति भवन्तु मुक्ता मम मुक्तये ते ॥ २ ॥ बचोंऽशुभिर्भव्यमनःसरोजं निद्रां न वै बौधितमेति भूयः ।। कुर्वन्तुदोषोदयनोदिनस्ते चर्यामगा मम सूरिसूर्याः ॥३॥ शरीरजानामिव भाक्तिकानामनुग्रहार्थ पितरौ धनानि । यच्छन्तिशास्त्राण्यपसेदुषां ये तेऽध्यापका मे विधुनन्तु दुःखम् ॥ ४ ॥ कदर्थिता शेष जगत्रयं ये विदारयन्ते समशीलशस्त्रैः । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायशत्रु शमसाधुयोधाः कुर्वन्तु ते सिद्भिवधूवरत्वं ॥ ५ ॥ यस्याः प्रसादन विनीतचेता दुर्लध्यशास्त्रार्णवपारमेति । सरस्वति मे विदधातु सिद्धि सा चिन्तिता कामदुधेव धेनुः ॥ ६ ॥ स्तवैर मीभिर्ममधूयमानाः नश्यन्तु विघ्नाः क्षणतः समस्ताः । उद्वेजयन्तो जनतां प्रवृद्धः सद्यः समरिरिव रेणुपुञ्जाः ॥ ७ ॥ दोहरो. पंचपरमपद बंद करि, धर्म परिक्षा ग्रन्थ । लिखू वचनिकामय सरल, जो शिवपुरको पन्थ ॥ जेनो ज्ञानरुपी दीवो त्रणं वातवलयरुपी उंचा मनोहर कोटवाला आ जगतरुपी घरने चारे तरफ अजवालं करे छे, ते तीर्थङ्कर भगवान् आपणी कल्याणरुपी लक्ष्मीने माटे कारणरुप थाओ ॥ १ ॥ जेओ सघळां कर्मोना नाश थवाथी पूज्य, अति पवित्र अने पारकी पीडाथी रहित पोताना स्वरुपने प्राप्त थइने त्रण लोकमां शिरोमणिभूत थाय छे, ते सिद्ध भगवान मारी मुक्तिने माटे कारणभूत थाओ, ॥ २ ॥ जेना वचनरुपी किरणोथी भव्य पुरुषोना मनरुपी कमल प्रफुल्लित थइने फरीथी संकोचपणाने प्राप्त थतां नथी अने दोषरुपी रात्रीना उदयने दूर करवावाला छे, एवा आचार्योमां सूर्य समान आचार्य परमेष्टी मारी वर्तणुकने निर्दोष करो ॥ ३ ॥ जे प्रमाणे भक्तिमान पुत्रने तेना माता पिता धन वगेरे सम्पत्ति आपेछे ते प्रमाणे पोताना शिष्यवर्गोने धार्मिक शिक्षारुपी धन आपवावाला उपाध्यायजी मारा सघळां दुख हरो ॥ ४ ॥ जेओ त्रण जगतने पीडा करवावाला कषायरुपी शत्रुने समता शील वगेरे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रोथी जीते छे, एवा समभावना धारक साधुरुप योया मने मोक्षरुपी लक्ष्मानोधणी करो॥५॥ जेनी कृपाथी विनयवान पुरुष अत्यंत कठीन शास्त्ररूपी समुद्रने ओळंगी जाय छे एवी सरस्वति (जिनवाणी) कामधेनुनी माफक मारी मनकामना पूर्ण करो ॥ ६ ॥ जे प्रमाणे जोरावर पवनथी रेतीनोढगलो जलदी उडी जाय छे, ते प्रमाणे आ स्तवनो वडे जगत्ने उपद्रव करवावाला कम्पायमान थतां मारा सघलां विघ्नो थोडीवारमां नाशने प्राप्त थाओ ॥७॥ जेप्रमाणे पोताना किरणोथी रात्रिने शोभायमान करवावाला चंद्रमाने जोइने राहु कोप करे छे, ते प्रमाणे पोताना गुणोथी त्रणे लोकने आनंद आपवावाला सारा माणसउपर दुष्ट माणस कोप करे छे. ॥ ८ ॥ केमके सत्पुरूषने जोइने दुर्जन, त्यागी ब्रह्मचारीने जोइने कामी, रातमां जागवावालाने जोइने चोर, धर्मात्माने जोइने पापी, शूरवीरने जोइने कायर, अने कविने जोइने मूर्ख कोपने प्राप्त थाय छे ॥ ९॥ मने शंका छे के विधाताए सर्प, खल अने काल (यमराज) पारकाना अपकारने माटेज बनाव्या छे, कदाच ए प्रमाणे न होत तो एओ आ सघळी सुखरूप रहेती प्रजाने जोइ शामाटे उद्वेगरूप करते ? ॥ १० ॥ कविओवडे सत्कारने पामेलो खल पुरुष पण पोतानी दुष्टताने छाडतो नथी. जे प्रमाणे पारकाने तपाववामा प्रवीण आग्नि, पूजा करेली छतां पण सळगावी मुके छे, अने पोताना स्वभावने छोडती नथी ॥ ११ ॥ आचार्य शंका करे छे के विधाताए मेघ, चन्दन, चन्द्रमा अने सत्तपुरुष ए ४ पदार्थ एकज जातिना बनाव्या छे. जो ए प्रमाणे न होत तो ए सघळा विना कारण माणसोनो निरंतर मोटो उपकार केम करते ? ॥ १२ ॥ शुं राहुथी पीडित थयलो चन्द्रमा पण पोताना अमृत मयी किरणाथी तृप्त नथी करतो ? अवश्य करछे. एज प्रमाणे दुर्जनोवडे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरस्काररुप थयला पण सज्जन पुरुष पोताना गुणोथी हमेशां उपकार करे छे ॥ १३ ॥ जे प्रमाणे स्वभावथी चन्द्रमाने शीतल अने सूर्यने उष्ण जोइ कोइ पण रागद्वेष करता नथी, ते प्रमाणे सज्जनमां गुण अने दुर्जन मां दोष जोईने सत्पुरुष कांइ पण हर्ष विषाद करता नथी ॥ १४ ॥ जे धर्मनी गणधरोवडे परीक्षा थयली छे ते धर्मनी परीक्षा माराथी केवी ते थई शके ? केमके जे वृक्षने हाथी तोडी नांखे छे तेने शशक [ खर गोश] कदापि तोडी शकतो नथी ॥ १५ ॥ परंतु प्रवीण आचार्योए जे धर्ममां प्रवेश करीने तेने सरल करी दीधो, तेमां मारा सरखा मूर्खनो पण प्रवेश थई शके छे, केमके हीरानी सोयथी वांधेला मोतीमां नरम सूतर पण प्रवेश करतुं जोईए छीए ॥ १६ ॥ लौकिक जम्बूवृक्षवडे विंटलायलं अनेक रत्ननी रचना वडे युक्त तथा अनेक राजाओथी सेवाकरायला चक्रवर्ति राजानी माफक चारे तरफथी अनेक द्वीप समुद्रोथी विंटायलो लाख योजन छे व्यास जेनो एवो गोलाकार आ जम्बूद्विप छे ॥ १७॥ एमां हिमाचल पर्वतनी दक्षिण तरफ त्रण समुद्रोवडे विंटलायलं धनुषाकार अति मनोहर आ भरतक्षत्र छे, जे एवं शोभे छे के जे पोतानी धनुषाकाररुप शोभाथी कामदेवना धनुषने पण तिरस्कार करे छे ॥ १८ ॥ अने षट् आवश्यको वडे मुनिओना निर्दोष चारित्रनी माफक पोतानो अति मनोहर छ खंडाथी मनुष्योने याचना करवालायक चक्रवर्तिना जेवी लक्ष्मिने [शोभाने] प्रकट करे छे ॥ १९ ॥ केमके आ क्षेत्रना हिमाचलमांथी निकलेली गंगा सिन्धु बे मोटी नदिओथी तथा विजयाई पर्वतवडे विभाग करला ६ खंड थई गया छे. के जे प्रमाणे शुभ अशुभरुप कर्मोना समूहना अनेक विशेषता Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटे मन वचन कायाना त्रणे योगोथी ६ विभाग थई जाय छे. ॥ २० ॥ आ भरतक्षेत्रनी वचमां अनेक रमणीय स्थानोथी संयुक्त पूर्वना समुद्र किनाराथी पश्चिम समुद्रना किनारा पर्यंत लांबो यथार्थ नामनो धारक विजया नामनो पर्वत छे, ते एवो शोभे छे के जाणे पोतानुं शरीर पाथरीने शेषनागज पडेलो छे ॥ २१ ॥ ए विजयाई पोताना किर णोना समूहथी नाश कर्यों छे मोटो अन्धकार जेणे एवो प्रकाशमान थतो पृथ्विने फाडीने निकळेलो बीजा सूर्यनी माफक शोभी रह्यो छे ॥ २२ ॥ आ विजया पर्वतनी उत्तर अने दक्षिण तरफ विद्याधरोथी सेवनीय बे श्रेणी छे, ते केवी छे के सांभळवालायक मनोहर छ गीत जेना एवा भमराओ सहित हाथीना बन्ने गंडस्थलो उपर जाणे मदरेखाज छे ॥ २३ ॥ तेमांथी दाक्षिण श्रेणीपर ५० अने उत्तर श्रेणीपर ६ ० ए प्रमाणे ११० निर्दोष कांतिवाला विद्याधरोना नगर द्वादशांगना ज्ञाता गणधर भगवाने कह्या छे ॥ २४ ॥ ए ऊंचो विजयाई पर्वत विचित्र प्रकारना पात्र [ पुज्य पुरुष ] कटक [ सेना ] अने रत्नोना खजानाथी प्रकाशमान देव विद्याधरोथी सेवनीय छे चरण जेना एवा चक्रवर्ति राजानी समान शोभे छे ॥ २५ ॥ एना उपर सिध्धवरकूटना अलौकिक चैत्यालयोमा विराजमानः : जिनेन्द्र भगवानना अलौकिक प्रतिबिम्ब सेवन करेला भव्य पुरुषोना दुःखोने जेम अग्निज्वालाथी शीतनो नाश थाय तेम नष्ट करे छे ॥ २६ ॥ ज्यां आगल कर्मरुपी रजने नष्ट करवामां तत्पर एवा चारणऋध्धिना धारक मुमुक्षु [ मोक्षनी इच्छा करवावाला ] मुनीगण पोताना वचनोथी अहंकास्ने दूर करवामां तत्पर एवा गंभीर शब्दवाला वादलोनी वर्षा सामन जनसमूह ने आशीर्वाद आपता उपदेश करे छे ॥ २७ ॥ए विजया पर्वतनी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण श्रेणी उपर वैजयंती नामनी प्रसिध्ध नगरी छे, ते एवी छे के जाणे अनेक प्रकारना प्रकाशमान पोताना विमानोवडे शोभित देवोनी नगरीने पण ते जीते छे ॥ २८ ॥ ए नगरीमां सघळा लोको भोगभूमि ओनी माफक निराकुलतापूर्वक मनोवांछित भोगोने भोगवता परस्पर अत्यंत प्रेम सहित सुखथी काल निर्गमन करे छे ॥ २९ ॥ आचार्य शंका करे छे के मानो के प्रजाने सघळी सुन्दरता एकज जगाए बताववाने माटे विधाताए ए नगरीमा सघळां घरो उत्तमोत्तम मनोहर जोई जोईने बनाव्या छे ॥ ३० ॥ आचार्य कहे छ के, जे नगरीमां पोतानी प्रभावडे करीने स्त्रीयोए तो स्वर्गनी देवांगनाओने, विद्याधरोए देवोने, विद्याधरोना राजाओए इन्द्रोने, मकानोए विमानोने जीती लीधा छे एवी वैजयन्ती नगरी नुं वर्णन हमाराधी केवी रीते थइ शके ? कदापि थइ शके नहि ॥ ३१ ॥ ___ए नगरीमा स्वर्गना इन्द्रनी समान पोताना प्रतापवडे तिरस्कार कर्यु छे शत्रु- तेज जेणे एवा, तथा वज्रथी [ वज्रशस्त्र अथवा हीरामणिथी ] शोभायमान छे हाथ जेना एवा जितशत्रु नामना विद्याधरोना मंडलीक राजा राज्य करता हता ॥ ३२ ॥ जो के ए राजा पारकाना दोष प्रकट करवामां तो मौन हतो, परंतु न्याय शास्त्रनो विचार करवामां मौन नहोतो ए राजा पारकुं धन हरखामां तो हस्त रहित हतो, परंतु अहकारी शत्रुओ नो गर्व दूर करवाने माटे हाथ रहित नहोतो ॥ ३३ ॥ तथा परस्त्री जोवाने माटे जोके ते आंधळो हतो, परंतु जिनेन्द्र भगवाननी मनोहर प्रतिमाओना दर्शन करवाने माटे आंधळो नहोतो. जोके पाप कार्य करवाने माटे शक्तिरहित निर्बळ हतो, परंतु शिवसुखकारी धर्म कार्याने ग्रहण करवाने माटे शक्तिहीन नहोतो ॥ ३४ ॥ चन्द्रमातो कलंकी छे, सूर्य Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतापवालो छे, समुद्र जडरुपछे, सुमेरु पर्वत कठोर छे अने इन्द्र गोत्र भेदी छे ए कारणथी चन्द्र, सूर्य, समुद्र, सुमेरु अने इन्द्र ए राजानी समान थइ शकता नथी, केमके ए राजामां उपला अवगुणामांथी एक पण अवगुण नहोतो ॥ ३५ ॥ जोके ए राजा पार्थिव हतो परंतु पार्थिव एटले पृथ्विनो विकार पाषाणादि जडरूप अज्ञानी नहोतो, पण उत्तम ज्ञाननो धारक हतो. तथा ए राजा पावन [पवित्र ] हतो, परन्तु पावन एटले पवननो विकार अस्थिर नहोतो, एटले स्थिर चित्तवालो हतो. तथा ए राजा कलानिधान [ कलाओनो भंडार चतुराइनो सागर ] हतो, परन्तु कलानिधान एटले चन्द्रमानी माफक कलंकी नहोतो, एटले सर्व दोषरहित हतो. ए सिवाय ए राजा वृषवर्धन [ धर्मने वधारवावालो ] हतो, छतां वृषवर्धन कहिये महादेवनी माफक स्त्रीनो अनुरागी नहोतो, परंतु साचाउपर प्रीतिवालो हतों ॥ ३६ ॥ ए राजाने जिनधर्म संबंधी पारमार्थिक तथा संसारिक विद्याओनी जाणकार अने वृध्धिरुप छे कामरुपी पवननो वेग जेने एवी वायुवेगा नामनी विद्याधरी अतिशय प्यारी राणी हती ॥। ३७ || कोइ कोइ स्त्रीमां आंखने हरण करवावाळं रूप होय छे, अने कोइ कोइ स्त्रीमां विद्वानोथी प्रशंसनिय शील पण होय छे, परंतु वायुवेगा राणीमां अनन्यलभ्य कहिये बीजी कोइ स्त्रीमां न होय एवं महाकान्ति सहित रूप अने शील बन्ने हतां ॥ ३८ ॥ महादेवने पार्वतीनी माफक, विष्णुने लक्ष्मिनी माफक दीवाने दीवेटनी माफक, साधुने दया समान, चन्द्रमाने चांदनी समान, सूर्य्यने प्रभा समान, जितशत्रु राजाने ए राणी मृगाक्षी अभिन्नरूप [ बे देह - होवा छतां पण एक रुप ] प्रिया हती ॥ ३९ ॥ आचार्य कहे छे के विधाताए ए महा कान्तिवाली वायुवेगाने बनावीने एनी रक्षा करवाने माटे काम जाणे रक्ष Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज बनाव्यो छे. जो ए प्रमाणे न होय तो एने जावावाला सघळा माणसोने कामदेव पोताना बाणोथी शामाटे वींधते ? एटले ए राणी घणी रुपवती हती. एने जे कोइ जोतुं ते कामबाणने लीधे पागल जेवू थइ जतुं हतुं ॥ ४० ॥ ए वायुवेगा हाथोवडे पत्रवाली, नेत्रावडे पुष्पवाली, स्तनोवडे फळवाली अने तरुण पुरुषाना नेत्ररुपी मृगोथी अवगाहित तरुणतारुपी मनोहर वेलीनी समान शामती हती ॥ ४१ ॥ चितवन करतानी साथे प्राप्त थाय छे मनोहर भाग जेने एवो परम सुंदर जितशत्रु राजा ए वायु वेगानी साथ रमता सचीनी साथे इन्द्र तथा रातनी साथे कामनी माफक समय गाळतो हतो ॥ ४२ ॥ हवे ए विद्याधरोना राजाथी सेवन करायली वायुवेगाने वखाणवा जेवो छे वेग जेनो, महा उदयरुप शोकने दूर करवावालो नीतिनी माफक प्रार्थना करवालायक मनोवेग नामनो पुत्र उत्पन्न थयो ॥ ४३ ॥ जेणे पोतानी कलाना समूहथी चन्द्रमानी माफक नष्ट कर्यो छे अन्धकार जेणे एवो निर्मळ चारित्रवाळो ए कुमार दिवसे दिवसे पोताना निर्मळ गुण समूहनी साथे मोटो थवा लाग्यो । ४४ ॥ जे प्रमाणे लक्ष्मी नुं [ रत्नोनुं ] घर, स्थिर गंभीर समुद्र पोतानी लहेरोथी नादओने ग्रहण करे छे, ते प्रमाणे ए कुमार पण पोतानी निर्मळ बुध्धिथी राजाओनी चार प्रकारनी विद्याओ ग्रहण करवा लाग्यो ॥ ४५ ॥ तथा ए मोटो अनुभवी बाल्यावस्थानांन मुनींद्र महाराजोना चरणकमळोना भँवरा, जिनेन्द्र भगवान ना वाक्यामृतना पानथी पुष्ट समीचीन जैन धर्मनो अनुरागी पूजनीय बुद्धिनो धारक थयो ॥ ४६ ॥ अनंत छे सुख जेमां एवी परमपूज्य सिध्ध वधुने जलदी वश करवामां समर्थ, भवरुपी आग्निने जलसमान ए प्रमाणे, क्षायिक सम्यक्तरुपी रत्नने ते कुमार धारण करवा लाग्यो । ४७ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए सुचतुर मनोवेगनो मनवांछित कार्यनी सिद्धि करवात्रालो प्रियापुरी नगरीना विद्याधर राजानो वेगशाली पवनवेग नामनो पुत्र प्रिय मित्र थयो. जे प्रमाणे अग्निने वेगरुप करवाने माटे पवन होय छे, ते प्रमाणे आ पवनवेग पण मनोवेगना मनने. वेगरुप (चंचल) करवात्राळो मित्र हतो ।। ४८ ॥ ए बन्ने मित्र परस्पर एक बीजा बिना एक क्षण पण रहेवामां असमर्थ, मोटा प्रतापशाली, सूर्य अने दिवसनी माफक एक जग्या मा रहेवावाला, सज्जन पुरुषोने सन्मार्ग प्रकाश करवामां प्रवीण थवा लाग्या ॥ ४९ ॥ आ बेमांथी प्रियापुरीना राजानो पुत्र पवनवेग महा मिथ्यात्वरुपी विषयी मूर्छित, जिनेन्द्र भगवानना कहेलां तत्त्वोथी उलटो, कुतर्क अने खोटा दृष्टांत कहेवा वगेरेमां मोटो विवाद करवावालो हतो । ॥ ५० ॥ परंतु जिनेन्द्रना धर्मरुपी अमृतमा मग्न छे चित्तनी वृत्ति जेनी एवो भव्य मनोवेग, पवनवेगने जिनधर्मथी उलटो मिथ्याती जोइने मनमाने मनमा शोकनो मार्यो संतापित थतो हतो ॥ ५१ ॥ मोटा कष्टथी छे अंत जेनो एवा दुःखमां पडता मिथ्यात्वथी मूर्छित आ मारा मित्रने निवारण करीश, केमके सारा लोको तेनेज खरो मित्र कहे छे के ने कुमार्गमांथी छोडावीने साचा पवित्र धर्ममां दखल करे छे ॥ ५२ ॥ पोताना मित्रने मिथ्यात्वमाथी छोडावीने केवीरीते जिनधर्ममां लगाडवो जोईए वगेरे विषयोर्नु रात दीवस चितवन करता करतां मनोवेग निद्रा रहित थइ गयो, एटले आ चिंताना कारणथी मनोवेगने रातमा निद्रा पण आवती नहोती ॥ ५३ ॥ ए मनोवेग दररोज अढाईडिपना कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालयोनां ( मंदीरोना) दर्शन करवा फरतो हतो, केमके सत्पुरुषो धर्म कार्योमां कदापी आलस्य करता नथी ॥ १४ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे एक दिवस मनोवेग कृत्रिम अकृत्रिम बे भेदरूप सघळा चैत्यालयोनां दर्शन करीने पोताने घेर पाछो आवतो हतो, एवामां मार्गमां एक जगाए एनुं विमान अटकी गयुं ॥ ५५ ॥ पोतानुं विमान अटकी जवाथी घभराई गयुं छे चित्त जेनुं एवो मनोवेग विचार करवा लाग्यो के आ विमान कोई शत्रुए अटकान्युं, अथवा कोई ऋद्धिधारी मुनिना प्रभावथी अटक्युं छे ? ॥ ५६ ॥ विमान अटकवानुं कारण जाणवाने माटे मनोवेगे नीचे पृथ्वी तरफ जोयुं, तो तेणे अनेक शहेर अने गामोथी अत्यंत रमणीय मालव देशने जोयो ॥ ५७ ॥ ते मालव देशना मध्य भागमां जगत् प्रसिद्ध मोटा विस्तारवाली पृथ्वीनी उत्तम ऋद्ध अने शोभाने जोवाने माटे जाणे स्वर्गपुरीज आवी होय, एवी उज्जयिनी नामनी नगरी जोई ॥ ५८ ॥ ए नगरीनो कोट चंद्रमाना किरण जेवो उज्ज्वल अने बहु उंचो शोभायमान छे, ते जाणे उज्जवल रत्नथी विभूषित मस्तकथी पृथ्वीने भेदीने स्वर्गने जोवाने माटे शेषनागज प्रवर्तेलो छे ॥ ५९ ॥ ए नगरीनी चारे तरफ वेश्यानी मनोवृत्तिनी माफक उप्तन्न थयां छे मोटा मोटा जलजंतु जेमां तेनाथी व अने कष्टरूप छे प्रवेश जेनो तथा अतल स्पर्श छे मध्यभाग जेनो एवी शोभायमान खाई छे. भावार्थ:- ते खाई वेश्याना मनोभावने दुर करवावाली छे ॥ ६० ॥ ए नगरीमां एवा मकानो छे के जेनी टोच आकाशनी साथै स्पर्श करे छे, अने ज्यां मृदंगादी अनेक प्रकारना वाजांना शब्द थई रह्या छे. जाणे ए राजभवन पोताना पर फेवता ध्वजारूपी हाथ वडे कलिना प्रवेशने निवारणज करी रह्या छे ॥ ६१ ॥ ए नगरीमां स्त्रीओ घणी चतुर, रमणीय रुपवती शोभायमान भमरारुपी धनुषवडे नेत्रोना कटाक्षरुपी बाणो चलावीने तरुण माणसाना समुहने पीडा करती Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गनी देवांगनाओने पण जीते तेवी हती ॥ ६२ ॥ ग्रन्थकर्ता कहे छे के से नगरीने जोईने महानिधानना अधिपतिपणानो गर्व राखवावाला कुबेर पण पोताना हृदयमां दुर्निवार लज्जाने प्राप्त थाय छे, एवी नगरीनुं वर्णन केवी रीते थई शके ? ॥ ६३ ॥ ___ए नगरीनी उत्तर दिशामां परस्पर विरोध राखवावाला जीवोथी भरेलु सघळी दिशाओने उद्योत करवावालुं एक मनोहर वन सत्पुरुषोनी माफक तरत फल आपवावाळु तथा तृप्त कर्या छे सघळा प्राणीओना समूह नेणे एवं, अने सघळी ऋतु संबंधी देखाय छे विचित्र शोभा जेने एवं समस्त इन्द्रियोने आनंद आपवावाला अने मनने अतिशय प्रिय एवा जीवोनी माफक अनेक महाफलोथी शोभायमान छे ॥ ६४-६५ ॥ ए वनमा मनुष्य देवो अने विद्याधरो वडे उपासित, केवल ज्ञानी, नष्ट कयों छे घातिया कर्म नेणे, संसार समुने तरवाने नौका समान, बहु ऊंचा स्फटिकमयी सिंहासन उपर बिराजमान, प्रफुल्लित किरणोना समूह वडे चन्द्रमानी माफक मुनिओवडे सेवित, पोताना यशरुपी पुंजने प्रकाश करता एक मोटा मुनिराज जोया ॥ ६६-६७ ॥ त्रण भुवनना ईन्द्रोथी वंदनीय एवा मुनिश्वरने जोईने जे प्रमाणे धूळने हरण करवावाळा मेघने जोई अथवा घणा वखतथी विखूटा थयला प्रिय मित्रने जोईने आनंद थाय छे, ते प्रमाणे मनोवेगने वणो आनंद थयो ॥ ६८ ॥ ए पछी मनोवेगे मुनिमहाराजनां चरणोनां दर्शन माटे घणा उत्सुक थईने आकाशथी उतरीने इन्द्रनी माफक वनमा प्रवेश कर्यो, ए मनोवेग कृती कहिये पंडित छे, अने फेलायली छे रत्नोनी ज्वाला जेमांथी एवा मुगटवडे अत्यंत शोभायमान छे ॥ ६९ ॥ प्रमाण राहत छे श्रुत अवधि कोरे ज्ञानना भेद जेने, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तकपर स्थाप्यो छे हाथ जेणे एवो, मनुष्य विद्याधर देवना समूहयी वंदनीक, यति मुनिओ सहित जिनेन्द्र केवाल भगवानने वारंवार नमस्कार करीने मनोवेग सन्तुष्टचित्त थईने मुनिओनी सभामां बेठो ॥ ७० ॥ . ___आ प्रमाणे श्री अमितगति आचार्यकृत 'धर्म परिक्षा' नामना संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषा टिकामां प्रथम प्रकरण पूर्ण थयुं ॥.१ ॥ - M ORE Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ जुं. ए पछी ते सभामां कोई एक भव्य पुरुषे अवधिज्ञानी मुनिमहाराजने नमस्कार करीने विनय सहित पूछयुं के ॥ १ ॥ हे भगवान् ! आ संसारमा फरता जीवोने सुख केटलुं छे अने दुःख केटलुं छे ते कृपा करीने मने कहो ॥ २॥ आ प्रश्न सांभळी मुनिराजे कां के हे भाई ! संसारना सुख दुःखना विभाग करीने कहे, घणुं कठण छे, तोपण एक दृष्टान्तथी किंचित्मात्र कहुं छु, केमके दृष्टान्त वगर अल्पज्ञ जीवोनी समममां आवतुं नथी, ते तुं ध्यान दईने सांभळ ॥ ३-४ ॥ ... अनेक जीवोथी भरली आ संसाररूपी अटवी समान एक मोटा वनमां दैवयोगथी कोई एक मुसाफर, प्रवेश करतो हतो ॥५॥ तेणे ते वनमा यमराजनी माफक सूंढने ऊंची करेली एवा क्रोधायमान बहु मोटा भयंकर हाथीने पोतानी सामे आवतो जोयो ॥ ६ ॥ ते हाथीए ते भयभीत मुसाफरने भीलोना मार्गथी पोतानी. आगळ करी लीधो, ते मुसाफर भयथी हाथीनी आगळ दोडतो दोडतो एक अंधारा कुवामां पडयो ॥ ७ ॥ जे प्रमाणे दुर्गम नरकमां नारकी धर्मनु अवलंबन करीने रहे छे, ते प्रमाणे आ भयभीत मुसाफर कुवामां पडतो पडतो वडनी मूळीओने पकडीने लटकतो रह्यो ॥ ८॥ हवे ए मुसाफर हाथीना भयथी भयभीत थईने नीचे जुए छे तो ते कुवामां यमराजना दण्डनी माफक पडेलो बहु मोटों एक अजगर जोयो ॥९॥ फरी ऊंचे जोयुं तो ते वडनी मूळीओने एक सफेद अने एक Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काळो एवा बे उंदर हमेशां कापी रह्या छे, के जे प्रमाणे शुक्लपक्ष अने कृष्णपक्ष मनुष्यना आयुषने कापे छे ॥ १० ॥ ए सिवाय ते कुवामां चार कषायोनी माफक बहु लांबा घणा भयानक चालता फरता चार दिशा ओमां चार सर्प जोया ॥ ११ ते वखतमां ते हाथीए क्रोधित थईने संयमने असंयमनी माफक कूवानी पासेना एक झाडने पकडीने जोरथी हलाव्युं ॥ १२ ॥ तेना हलाववाथी ते झाडउपर जे मधमाखीओनो मधपूडो हतो तेमाथी सघळी माखीओ नीकळीने पेला मुसाफरना शरीरपर वळगीने बहु दुःख देवा लागी ॥ १३ ॥ त्यारे ते मुसाफर चारो तरफथी मर्मभेदी पीडा आपवावाळी मधमाखीओथी घभराइने अतिशय दुःखीत थईने उपर जोवा लाग्यो ॥ १४ ॥ वृक्षनी तरफ मोढुं ऊंचुं करीने जोतांनी साथे तेना होठ उपर एक नानुं मधनुं टीपुं आवीने पडयुं ॥ १५ ॥ त्यारे ते मूर्ख नर्कना दुःखथी पण अधिक दुःखने कंइपण दुःख न समजीने ते मधना टीपांना स्वादने लईने पाताने बहु सुखी मानवा लाग्यो ॥ १६ ॥ ए कारणथी ते अधम मुसाफर आ सघळां दुःखोने भुलीने आ मधना टीपांमांज आशक्त थईने पार्छ बीजुं टीपुं पडवानी अभिलाषा करतो स्थिर मोढुं राखीने लटकतो रह्यो ॥ १७ ॥ माटे हे भाईओ ! ते वखते मुसाफरने जेटलुं सुख दुःख छे तेटलुंज सुख दुःख मोटा कष्टोनी खाण रुप आ संसाररुपी घरमां आ जीवने छ ।॥ १८ ॥ जिनेन्द्र भगवाने कह्यु छे केः-आ वन तो पाप छे अने मुसाफर छे ते जीव छे. हाथी छे ते मृत्यु (यमराज) नी समान छे. ते वडनी डाळीओ छे ते जीवन आयुष्य (उमर) छे अने कुवो छे ते संसार छे ॥ १९ ॥ अजगर छे ते नर्क छे. सफेद अथवा काळो ऊंदर छे ते शुक्ल [ सुद ] अने Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण (वद) बे पक्ष छे, ते आयुष्य घटाडी. रया छे अने चार सर्प छे ते क्रोध, मान, माया लोभ ए चार कषाय छे. तथा मधमाखीओ छे ते शरीरनो रोग छे ॥ २० ॥ मधना टीपांनो स्वाद छे ते इन्द्रयजनित मुखनो आभाश मात्र छे. ए प्रमाणे संसारमा सुख दुःखनो विभाग छे ॥ २१ ॥ हालमां आ संसारमा भ्रमण करता जीवोना सुख दुःखनो विभाग करीए तो मेरु पर्वतनी बराबर तो दुःख छे अने एक तल मात्र मुख छे. ए कारणथी संसारनो त्याग करवाने निरंतर उद्यम करवो जोइए ॥ २२-२३ ॥ जे मूढ माणसो रंज मात्र सुखने माटे विषयभोग सेवन करे छे, तेओ जाणे शियाळानी टाढ दूर करवाने माटे विजलीनी अग्निनी साथे तापवानी इच्छा करे छे ॥ २४ ॥ जो शोधीए तो कोइ जग्याए अग्निमांथी पण बरफ मळी शके परंतु संसारमा सुखनी प्राप्ति कोई काळमां पण कोइ जग्याए नथी ॥ २५ ॥ मूर्ख लोको विषयभोगसंबंधी दुःखोने सुखना नामथी कहे छे, परंतु खरं जोतां ते सुख नथी. जे प्रमाणे होलवाई गएला दीवाने वधी गयो कहे छे ते प्रमाणे आ पण छे ॥ २६ ॥ जे प्रमाणे धंतूराना पीवाथी मनुष्यने नीशा थयेथी सघळु पालुंज पीळु देखाय छे, ते प्रमाणे विषयोनी आकुलता थी संसारी जीव दुखदायक भोगोने पण सुखदायक माने छे ॥ २७ ॥ मुख धर्मना प्रभावथीज थाय छे माटे धर्मनी रक्षापूर्वक विषयसुख भोगव, मोइए. ने प्रमाणे वृक्ष- फळ मळे छे, परंतु वृक्षनी रक्षा करीने फळने भोगव, जोईए. नहि के वृक्षने बगाडीने ॥२८॥सज्जन पुरुष छे ते पापथी उत्पन्न थतां दुःखने जोईने पापने छोडे छे केमके एवो कोण मूर्ख छ के जे अग्निथी आताप थाय छे एम जाणवा छतां पण आग्निमां प्रवेश करे? ॥ २९ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ जीव धर्मना प्रभावनि सुंदर, सौम्य, उच्चकुल, शीलवान, पंडित चंद्रमानी माफक उज्जवल स्थिर कीर्तिनो धारक थाय छे ॥ ३० ॥ अने पापना प्रभावथी कुरुप, दरिद्री, सघळाने नठारो लागवावालो नीचकुल कुशील, मूर्ख बदनामी अने दुष्ट थाय छे ॥ ३१ ॥ धर्मना प्रभावथी तो आ जीव हाथीउपर बेसीने सघळानो आदरसत्कार पामीने चाले छे अने पापना प्रभावथी निन्दित थईने तेनी आगल दोडे छे ॥ ३२ ॥ धर्मना प्रभावथी तो मुंदरताने उत्पन्न करवावाली पृथ्वि समान प्रिय स्त्रिओ मळे छे अने पापना प्रभावथी बिचारा गरिब थईने तेज स्त्रिओने पालखीमां बेसाडीने भोई [ कहार ] बनीने उचकीने फरे छे ॥ ३३ ॥ धर्मना प्रभावथी कोई तो कल्पवृक्षनी समान दान करे छे, अने कोई पापना प्रभावथी रोज हाथ पहोळा करीने भीख मांगे छे ॥ ३४ ॥ धर्मात्मा पुरुषो छे ते तो मनोहर स्त्रिओने आलिंगन करता रत्नमयी महेलमां सुए छे, अने पापीओ छे तेओ हाथमां शस्त्र धारण करीने तेओनी रक्षा करे छे एटले पहरो भरे छे ॥ ३५ ॥ धर्मात्मा पुरुषो तो सोनानां वासणमा मिष्ट भोजन करे छे, अने पापी छे तेओ कूतरानी माफक तेनुं एंठं खाय छे ॥ ३६ ॥ धर्मात्मा पुरुष तो मोघां कोमल सारां वस्त्रो धारण करे छे, अने पापीओने सेंकडो काणांवाली एक लंगोटी पण मळती नथी ॥ ३७ ॥ पुण्यना प्रतापथी तो मोटा पुरुषोना लोकमां प्रसिद्ध, यशोगान थाय छे, अने पापी छे तेओ तेज लोकनी आगळ घणी खुसामद करे छे ॥ ३८ ॥ दशे दिशाओ मां फेलायली छे कीर्ति जेनी एवा तीर्थकर चक्रवति नारायण प्रतिनारायण वगेरे महापुरुष पण धर्मना प्रभावथीज थाय छे ॥ ३९ ॥ अने पापना प्रभावथी लोकमां निंदनीक बहेरा पांगला, लंगडा, अधिक रोमवाला, पारकाना दास, दुष्ट Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने नीच थाय छे ॥ ४० ॥ धर्म मनोवांछित भोग धन अने मोक्ष ने आपवावालो छे, अने पाप ए सघळानो नाश करवावाळु सघळा अनर्थोनी खाण छे ॥ ४ १ ॥ ज्ञानी अज्ञानी सघळा माणस कहे छे के आ संसारमा जे कई भलुं छे ते तो धर्मथी थाय छे अने बूलं (अनिष्ट)छे ते पापथी थाय छे.आ नियम जगतमा प्रख्यात छ ।॥४२॥ आ प्रमाणे प्रत्यक्ष धर्भ अधर्मनुं फळ जाणीने बुद्धिमान पुरुषो अधर्मनो हमेशा त्याग करीने सदैव धर्माचरणज करता रहेछे ॥ ४३ ॥ अने नीच छे तेओ आ जन्मने माटे एवं कंइ अकर्म करे छे के जेनाथी तेओ लाखो भवमां अनेक प्रकारनों दुःख भोगवे छे ॥ ४ ४ ॥ . असह्य दुःखोने वधारवावाला विषयरुपी मदिराथी मोहित थयेला कुटिल माणसो आजकालना [ मात्र बे दिवसना ] जीवनमां पण पाप कार्यो करे छे ॥ ४५ ॥ आ क्षणभंगुर संसारमां एवी कोइ पण वस्तु नथी के जे सुखदायक, साथेआववावाळी, पवित्र, स्वाधिन अने आविनश्वर होय ॥ ४६ ॥ केमके तरुण अवस्था तो घडपणथी भक्षित छे, आयु मृत्युवडे अने संपत्ति विपत्तिवडे भक्षित छे. निरुपद्रव एक मात्र पुरुषोनी तृष्णाज छे ॥४७॥आ प्राणी चाहे पर्वतपर चढे, चाहे पाताळमां पेसी जाय, चाहे पृथ्वि मात्रमा भ्रमण करतो रहे, परंतु काळ (मृत्यु) तो कोई जग्याए पण छोडतो नथी ॥ ४८ ॥ काळरुपी मदान्मत हाथीने आवतो रोकवाने माटे, सज्जन, माता, पिता, स्त्री, बहन, भाई, पुत्र वगेरे कोई पण समर्थ नथी ॥ ४९ ॥ काळरुपी राक्षसवडे भक्षण थता जीवनी रक्षा करवाने हाथी, घोडा,स्थ, पायदळ,एनाथी आतिपुष्ट चार प्रकारनी सेनापणसमर्थनथी॥ ५० ॥ क्रोधीत थएलो यमरुपी सर्प दान, पुजा, मिताहार [ ऊनोदरतप] मंत्र तंत्र अने Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફૂલ रसायणी वडे पण निवारण करवो अशवय छे ॥ ११ ॥ बळती एवी मृत्युरुपी अग्नि, बालक, युवान, वृद्व, दरिद्री, धनाढ्य, निर्धन, मूर्ख, पंडित, शूर, कायर, समर्थ, असमर्थ, दानी, कृपण, पापी, धर्मात्मा, सज्जन, दुर्जन, वगेरे कोइ जीवने पण छोडती नथी, एटले काळ कोइने पण छोडतो नथी ॥ ५२-५३ ॥ जे मृत्यु बलवान इन्द्रो सहित देवोने पण हणेछे, ते मृत्युने मनुष्यने मारवाने तो कंइ पण खेर नथी. ॥ ५४ ॥ केमके जे अग्नि द्रढ पाषाणोथी बांधेला पर्वतोने बाळी मूके छे तो ते तृण समूहने केम छोडशे ! ॥ ५५ ॥ जीवने भक्षण करवाने तैयार थरलो काळ निवारण कराय एवो कोई पण ऊपाय थतो नथी, थयो पण नथी अने थई शकवानो पण नथी ॥ ५६ ॥ अथवा रत्नत्रयरूप छे लक्षण जेनुं एवा सर्वज्ञ भाषित धर्मना सिंवाय घडपण अने मरणने मंदन करवामां बीजु कोई पण समर्थ नथी ॥ ५७ ॥ जीवन, मरण, सुख दुःख, सम्पत्ति, विपत्तिमां आ जीव सदाकाळ एकलोज रहे छे, एनुं कोई पण सहायक नथी ॥ ५८ ॥ आ जीवना बान्धवादि कुटुंबी माणस छे ते आ जन्ममांज जुदा जुदा स्वभावना धारक जुदा जुदा छे, तो ते पोताना कर्मोने वशीभूत रहेवावाळा आगला भवमां केवी रीते जुदा नहि थाय ? जरुर थशेम ॥ ५९ ॥ ए कारणथी खरुं जोतां विचार करिए तो आ आत्माने पोताना वगर बीजुं कोई पण पोतानुं नथी. अने आ मारुं छे, आ तारुं छे वगरे जे कल्पना छे ते मात्र मोहकर्मजनित कल्पनाज छे ||६०|| जे आत्मानी देहनी साज एकता नथी, तो तेना प्रत्यक्षमां बाह्यभूत मित्र पुत्र स्त्री धनादिक साथ केवी रीते एकता थइ शके ? ॥ ६१ ॥ जगतना समस्त माणसो पोतानो स्वार्थ जोइनेज मनुष्यनी सेवा करे छे. ज्यारे स्वार्थ सधातो नथी, त्यारे पोतानुं एक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ वचन मात्र पण पाळता नथी ॥ ६२॥ एतो निश्चित छे के स्वार्थ वगर कोइ पण स्नेह करतुं नथी. बीजुं तो शुं ? नानुं बाळक पण माताना स्तनोने दूध रहित थवाथी झट छोडी दे छे ॥ ६३ ॥ संसारी माणस दुःखदाताने सुखदाता, विनस्वरने स्थिर अने अनात्मीयने पोतानुं स्वरूप मानीने पापनो संग्रह करे छे, जे घणुं खेदकारक छे ॥ ६४ ॥ संसारी माणस केवा मूर्ख छे के पाप तो पुत्र मित्र अने शरिरने माटे करे छे, परंतु नरकादिकनुं घोर दुःख पोते एकलाज सहन करे छे ॥ ६५ ॥ संसाररूपी समुद्रमां ढूंढीए तो कोइ पण जग्याए सुख देखातुं नथी. जेमके केळना थडने छोलीए तो शुं तेमांथी कोइए सार (गर) नीकळतो जोयो छे ? कदापि नहि. तेज प्रमाणे आ संसार सार रहित छे ॥६६॥ काई पण पोतानी साथै जइ शकतुं नथी, ए प्रमाणे जाणवा छतां पण जेओतेने माटे पापनो आरंभ करे छे, तो एनाथी बोजी वधारे मूर्खता कई हशे ? ॥ ६७॥ इन्द्रियजनित विषयाने भोगववाथी दुःखज थाय छे अने तपादिकमां क्लेश करवाथी सुख थाय छे. ए कारणथी ते सुखनी रक्षाने माटे विद्वान माणसो इन्द्रियजनित सुखने छोडीने तपवरणन करे छे ||६८|| जे विषय ग्रहण करलोज निरंतर महादुःखदायक छे, तो ते विषयो सिवाय बीजो वैरीं कोण छे के जे विषय दुःख दीधा वगर छोडतो नथी. ॥६९॥ जेओ प्रार्थना करवाथी आंवे नहि अने मोकल्या वगर पोतानी मेंळे चाल्या जाय, एवा धन कुटुम्ब घर वगेरे आपणां केवी ते थइ शके ? ॥ ७० ॥ जे संसारमां विश्वास छे, त्यांतो भय छे अने जे मोक्षमां विश्वास नथी त्यां सदा श्रेष्ठ सुख छे ॥ ७१ ॥ जे जीव पोताना आत्मकल्याणने छोडीने पोताथी भिन्न आ देहना कार्यमां लागेला छे, तेओ पारकाना दास छे; तेनाथी वधारे निन्द्य बीजो कोइ नथी ॥ ७२ ॥ जे अनेक भवन पवित्र सुख हरी ले छे, ते पुत्रादिक कुटुंबी माणसोथी अधिक केम Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न होय ! अवश्य होय || ७३ ॥ विद्वानोए संसारिक सघळां सुखोने अनात्मीय जाणीने सदा जिनेन्द्र भगवाने कहेला आत्मीय धर्मने धारण करवो जोइए ॥ ७४ ॥ जेओ क्षमाथी क्रोधने, मार्दवथी मानने, आर्जवथी मायाने अने संतोषवडे लोभने नष्ट करी दे छे, तेनेज धर्म थाय छें ॥ ७५ ॥ तथा शुद्ध ब्रह्मचर्य धारण करवावाळाने, भगवाननी पूजा करवावाळाने, उत्तम पात्रोने दान पावलाने, पर्व (२-१-८-११-१४ ) ने दिवसे उपवास धारण करवावाळाने, जीवोनी रक्षा करवावालाने, सत्य वचन बोलवावालाने, अदत्त ग्रहण न करवावालाने, राक्षसीनी माफक स्त्रीनो त्याग करवावालाने, * सन्तोषरूपी अमृतना पानथी परीग्रह तजवावाळा धीर वीरोने, वात्सल्य [ धर्मेवर प्रीति ] करवावाळाने अने विनयी पुरुषोनेज पवित्र धर्म थाय ॥ ७६-७७-७८ ॥ जे कोई जिनेंद्र भगवाने कहेला धर्मने चित्तथी धारण करेछे, तेओ आ महा दुःखदायक संसाररूपी दावानलने जलदीथी तरी जाय छे ॥ ७९ ॥ जे प्रमाणे तपेली पृथ्वि मेघना जळथी शीतल थई जाय छे तेम योगीराजनाआप्रमाणे धर्मोपदेशथी सघली सभा तृप्त थई गई ॥ ८० ॥ अत्रविज्ञान छे नेत्र जेमनां, वात्सल्य कार्यमा कुशल, धर्मोपदेश आपवामां सदा तैयार एवा ते योगिराजे जितशत्रुना पुत्र मनोवेगने जैनमति जाणीने नीचे प्रमाणे कुशल समाचार पूछया, केमके धर्मात्मा पुरुषोने पण भव्य पुरुषोने माटे पक्षपात होय छे ॥ ८१ ॥ " हे भाई, धर्म कार्योंमां तत्पर तमारा पिता स्वजन परिवार सहित कुशलरूप तो छे केनी ? " आ प्रश्न सांभलीने विद्याधरना पुत्र मनोवगे पसन्नचित्त थईने आ प्रमाणे कह्युं के ॥ ८२ ॥ हे भगवान ! जेनी रक्षा हमेशा आपना चरणाविंद करे छे, ते विद्याधर पति जितशत्रुने केवी रीते विघ्न थई शके ? केमके जेनी रक्षा साक्षात Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुडराज करे छे, तेने कोई कालमां पण सर्पनी पीडा थई शकती नथी ॥ ८३ ॥ आ प्रमाणे कहीने माथा उपर हाथ राखी विनयपूर्वक उभा थईने केवलज्ञानरूपी किरणोथी प्रकाशित कर्या छे सघळा पदार्थ जेणे एवा केवलरुपी भगवानने विनय साथे नमस्कार करीने मनोवेगे नीचे प्रमाणे प्रश्न कयों, केमके एवा सूर्य वगर समस्त प्रकारना संशयरुपी अन्धकारनो नाशक बीजो कोई नथी ॥ ८४ ॥ हे देव ! प्राण करतां पण वहालो मारो मित्र पवनवेग विद्याधर मिथ्यात्वरूपी विषथी आकुलित श्रद्धान थईने प्रवर्ते छे, ते कोई वखत पण आ पवित्र जैनधर्मनां प्रवर्तशे के नहि ते कृपा करीने मने सुचित करो ॥ ८५ ॥ हे देव ! ए पवनवेगने कुमार्गमा प्रवर्ततो जोईने मारा हृदयमां वज्राग्निनी शिखा समान अनिवार्य तापने उपजाबवावाळी चिन्ता उत्पन्न थायछे, केमके समानशील गुणवाळानी साथे करेली मित्रताज सुखदायक होयछे ॥ ८६ ॥ जे अनेक प्रकारना दुःखोनी खाणरुप मिथ्यात्वमार्गमां लवलीन चित्त थईने चालता पोताना मित्रने निवारण करतो नथी; ते निश्चय करीने तेने सर्पोथी भयंकर महागंभीर कूवामां नांखे छे ॥ ७ ॥ जीवोने मिथ्यात्व समान तो बीजो महा अन्धकार नथी अने सम्यक्त्वनी समान बीजं कोई विवेककारी नथी.जे प्रमाणे संसारनीबराबर बीजी कोई निषेध करवाजेवी वस्तु नथी तेज प्रमाणे मोक्षनी बराबर बीजी कोई प्रार्थना करवायोग्य वस्तु नथी ॥ ८८ ॥ हे भगवान ! तेने पवित्र भव्यपणुं छे के नहि ? केमके भव्यता विना तत्वसमूहनी रचना व्यर्थं थाय छे.जे प्रमाणे कांगरुमगने सिजाववाने माटे सघळा प्रकारना करला उपाय व्यर्थ जायछे,तेप्रमाणे अभव्यने वस्तुनुस्वरुप समजाव, पण व्यर्थ छ ॥ ८९ ॥ आ प्रमाणे प्रश्न करीने मनोवेग चूप रह्या बाद केवली भगवाननी उज्वल मनोहर वाणी प्रगट थइ के हे Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाई, पुष्पनगर (पटना) मां लई जईने तत्वोपदेश करीने समजावशे तो तारो मित्र तरतज मिथ्यात्वरुपी पापने छोडी देशे ॥ ९० ॥ हे सुबुद्धे ! जे प्रमाणे निरंतर असह्य दुःख देवावाला शरीरमा पेठेला कांटा वगेरेने सोय चिपिया वगेरेथी काढे छे, ते प्रमाणे पवनवेगना मनमां ठसेला मिथ्यारुपी कांटाने अनेक दष्टांतोथी उपदेश करीने काढजे ॥ ९१ ॥ त्यां पटनामां पूर्वापरादि अनेक दूषणोथी दूषित अन्यमतोने प्रत्यक्ष देखतो तारोमित्र अनेक दोषवाळा मिथ्यात्वरुपी अन्धकारने छोडीने तरतज ज्ञानरुपी प्रकाशमां आबी जशे ॥ ९२ ॥ ज्यां सुधी लोकमां जिनेंद्र भगवानना वचनोनो प्रकाश नथी त्यां सुधी मिथ्याद्रष्टिओना वचन प्रकाशरुप छे. जगत मात्रने प्रकाश मान करवामां कुशल एवा सूर्यनो प्रकाश थवा छतां शुं तारानां समूहनो प्रकाश थइ शके छ ? कदापि नहीं ॥ ९३ ॥ विपरीत द्रष्टिवाला अभव्यना सिवाय एवो कोण जीव छे के जेने जिनेंद्र भगवानना कहला निर्दोष वाक्योथी प्रतिबोध नहि थाय ? केमके घुवडना सिवाय सघळा जण महा अन्धकारनो नाश करवावाला सूर्यना किरणोना प्रभावथी पदार्थोने जुए छे ॥९४॥ आ प्रमाणे महा आनंददायक वचनो सांभळीने पापनो नाश करवावाला जिनेंद्र भगवानना चरणकमलोने सारी रीते नमस्कार करीने पोतानी विद्याना प्रभावथी रचेला सुंदर विमानमां बेसी ते मनोवेग विद्याधर जलदीथी पाताने घेर जवा लाग्यो ॥ ९५ ॥ आ प्रमाणे श्री अभितगति आचार्यकृत 'धर्मपरिक्षा' संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषा टिकामां बीजुं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ २ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ जु. हवे देवतुल्य स्फुरायमान छे कांति जेनी एवो ते मनोवेग सुंदर विमान उपर बेसीने पोताना नगर तरफ जाय छे ॥ १ ॥ ए अरसामां जे प्रमाणे विमान उपर बेठेला देव बीजा देवने मळे, ते प्रमाणे सामेथी आवता पवन वेगे मनोवेगने जोयो ॥ २ ॥ पवनवेगे मनोवेगने जोतांज कधुके जे प्रमाणे कामातुर न्याय रहित थईने रहेछे, ते प्रमाणे मने छोडीने आटलो वखतसुधी तुं क्या रह्यो ? ॥ ३॥ हे मित्र, सूर्यना वगर दिवसनी माफक हुँ तारा विना एक क्षण पण रहेवाने असमर्थ छु, तो आटलो वखतसुधी तारा विना केवी रते रही शकुं ?॥ ४ ॥ हे मित्र, जे प्रमाणे शुद्धश्रद्धानी मोक्षनो दाता धर्मने ढूंडे छे तेम में तने सघळे ठेकाणे शोध्यो ॥ ५ ॥ ज्यारे में बाग, नगर, बजार, राजगृह अने सघळा जैनमंदिरोमां तने नहि जोयो ॥ ६ ॥ त्यारे धभराईने तारा पिता कुटुंबीओने जईने पूछयुं, ते ठीकज छे. वहालाना संयोगनी इच्छा करवावाळो शुं नथी करतो ? एटले सघळु करेछे ॥ ७ ॥ ज्यारे आ प्रमाणे सघळे पूछवाथी पण तारो पत्तो नहि लाग्यो त्यारे दैवयोगथी आहया आवतो तने जोयो ॥ ८ ॥ हे मित्र ! जे प्रमाणे संयमी संतोषने छोडीने पोतानी इच्छाप्रमाणे आहयां तहियां भटके छे, ते प्रमाणे तने आनंद उपजाववामां समर्थ तथा तारो वियोग सहनकरवाने असमर्थ एवा माराजेवा मित्रने छोडीने तुं केवी रीते फरे छे ? ॥ ९ ॥ जो आपणो बन्नेनो कदापि वियोग पण थाय तो तिर्यक अने ऊर्ध्व गमन करवावाळा वायु अने आग्निनी माफकज थर्बु जोईए, के जेनी लोकमां मित्रताज प्रसिद्ध छे, परंतु ॥ १० ॥ जेनो देह अने आत्मानी माफक जन्मथी मरण पर्यंत Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियोग न थाय तेनीज मित्रता सर्वोत्तम छे ।। ११ ॥ एक गरम अने एक शीतल एवा सूर्य अने चन्द्रमानी प्रीति केवी? के जेनो माहनामां एकबार मेलाप थाय छे ॥ १२ ॥ बुद्धिमानोए एवो मित्र अथवा मनोहर स्त्री करवी जोईए के जे चित्रनी माफक कोई कालमां पण पराधिन न थाय ॥ १३ ॥ जगत्मां तेनीज मित्रता प्रशंसनीय छे के जे दिवस अने सूर्यनी माफक निरंतर अव्यभिचारपणाथी ( भेदभाव रहित एकत्र ) रहे छे ॥ १४ ॥ हे मित्र ? जे मित्रना क्षीण थवापर क्षीण थाय छे अने वृद्धि थवाथी वृद्धिरुप थायछे तेनेज साचो मित्र कहे छे अने तेज प्रशंसनीय छे. जे प्रमाणे समुद्रनी साथे चन्द्रमानी मित्रता छे, एटले चन्द्रमानी कला वधवाथी समुद्र वधे छे अने चन्द्रमानी कला जेम जेम क्षीण थती जाय छे तेम तेम समुद्रनुं पाणी पण घटतुं जायछे ॥ १५ ॥ आ प्रमाणे सांभळीने मनोवेगे का के हे महामते ! आ प्रमाणे कोप न कर, केमके आज हुँ आ मध्यलोकनी सघळी जिनप्रतिमाओना दर्शन माटे गयो हतो ॥ १६ ॥ त्यां देवताओने वंदनीक अढाई द्विपनी वच्चे जे कृत्रिम अकृत्रिम अनेक चैत्यालयो छे, ॥ १७ ॥ ते सघळानी में भक्तिपूर्वक पूजा वन्दना स्तुति करीने सघळां दुःखोने नष्ट करवावाळु पुण्य उपार्जन कीधुं ॥ १८ ॥ हे मित्र ! तारा वगर हुं क्षणमात्र पण रही शकतो नथी के जे प्रमाणे साधुना हृदयने सन्तुष्ट करवावाळा समताभाव वगर संयम रहेतो नथी. ॥ १९ ॥ भरतक्षेत्रमा भ्रमण करतां में स्त्रिओना सघळां आभूषणोमां तिलकनी समान अत्यंत शोभायमान वहु जातनी वस्तीवाळु पटना नामनुं एक नगर जोयुं ॥ २० ॥ जेमां निरंतर जग्याए जग्याए भ्रमरोना समूहनी माफक अथवा स्त्रीना केशोनी माफक श्यामवर्ण यज्ञनो Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुमाडो आकाश मार्गमा फेलाई रहेलो छे ॥ २१ ॥ ज्यां आगळ बहेरुं कर्यु छ आकाश जेणे एवी चार वेदनी ध्वनि सांभळीने मोरो मेघनी गर्जना माफक शंका करीने नृत्य करी रह्या छे ॥२२॥ तथा वशिष्ट, व्यास, वाल्मकिी, मनु, ब्रह्मा वगेरेए रचेली वेदना अर्थने प्रतिपादन करवावाळी स्मृतिओ संभळाय. छे ॥ २३ ॥ ज्यां आगळ चारे तरफ सरस्वातना पुत्रनी माफक बगलमां पुस्तक लईने घणा चतुर विद्यार्थीओ जता नजरे पडे छ ॥ २४ ॥ ते नगरमां परस्पर मर्मभेदी वचनोद्वारा वाद करता वादी एवा शोभे छे के जाणे मर्मभेदी बाणोद्वारा क्षोभरहित योद्धाज युद्ध करी रह्या छे ॥ २५ ॥ जे प्रमाणे भमराना समूहथी सरोवर शोभे छे ते प्रमाणे ते नगरना पंडित माणसो होशीयार शिष्योना समूहथी मनोहर देखाय छे. ॥ २६ ॥ अने गंगाना किनाराउपर चारे तरफ ध्यानमां निमग्न माथु मुंडेला भद्र सन्यासीज सन्यासी नजरे पडे छे ॥ २७ ॥ ज्यां आगळ शास्त्रार्थनो निश्चय करती वादरुपी नदीनो शब्द सांभळीने वाद करवाने आवेला वादीगण जलदी नासी जाय छे ॥ २८ ॥ आग्नहोत्रादि कर्म करता अनेक विद्वान ब्राह्मण त्यां रहे छे ते जाणे मूर्तिमन्त वेदज छे ॥ २९ ॥ तथा सघळा शास्त्रोनो विचार करवावाळा मीमांसक द्विज दररोज मीमांसा ( वेदान्त ) शास्त्रना विचार करी रह्या छे ते जाणे सरस्वतीना विभ्रम कहिए विलासज छे ॥ ३० ॥ तथा दुःखरुपी काष्टने आग्निनीसमान जे धर्म तेने प्रकाश करवाने माटे हजारो ब्राह्मण १८ पुराणोनां व्याख्यानो करी रह्या छे ॥ ३१ ॥ ते नगर जग्याए जग्याए तर्क, [ न्याय ] व्याकरण, काव्य, नीतिशास्त्रनुं व्याख्यान करवावाळा विद्वानोवडे सरस्वतिना मंदिरनी माफक देखाय छे ॥ ३२ ॥ माटे हे भाई, एं सघळु चारे तरफ जोतां Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोतां मने बहु वखत लागी गयो, केमके मोहितचित्त थवाने लीधे वखत जतो मालुम पडतो नथी ॥ ३३ ॥ हे मित्र, ते आश्चर्यकारक स्थानमा जे जे आश्चर्यों में जोयां, ते मोंढेथी कही शकाय तेवां नथी ॥ ३४ ॥ केमके जे विषयनो शरीरधारीओनी इन्द्रिओथी अनुभव थाय छे, तेने सरस्वति पण मोंढथी कही शकती नथी ॥ ३५ ॥ हे मित्र, धर्मना समान तने छोडीने हुं आटलो वखत त्यां रह्यो, माटे मने अविनयीने ए अपराध क्षमा करवो जोइए ॥ ३६ ॥ आ वातो सांभळीने पवनवेग शुद्ध चित्तथी हास्यपूर्वक कहवा लाग्यो के, एवो कोण मूर्ख छ के जे धूर्ताना मिठां वचनो सांभळीने न ठगाय ? ॥ ३७ ॥ हे मित्र, जे कौतुक तें जोयां ते मने पण बताव ! केमके जे सज्जन पुरुष होयछे ते भाग कर्या वगर कई पण भोगवतो नथी ॥ ३८ ॥ मित्रवर्य, मने ते कौतुकने जोवानी घणी उत्कंठा छे, माटे त्यां पाछा चालो. जे मित्र छे ते मिलनी वातने कदापि नाकबुल करतो नथी ॥ ३९ ॥ आ प्रमाणे सांभळीने मनोवेगे कडं के हे मित्र, नक्की जइशुं परंतु जलदी न करो, केमके उदम्बर फल जलदीथी पाकतुं नथी ॥ ४० ॥ माटे काले सवारमांज भोजन करीने निराकुलताथी जईशुं. केमके भूख लागवाथी जेनुं चित्त ग्लानिरुप थई जाय तेनो सघळो आनंद जतो रहे छे ॥ ४१ ॥ ए पछी बन्ने मित्रो एक साथे थइने पोताने घेर चाली गया. आ मित्रो एवा छे के प्रकाशमान छे शोभा जेनी ते जाणे उत्साह अने नय बन्ने एकज रुप थइ रह्या छे ॥ ४२॥ पोताने घेर पहोंचीने ते बन्ने मित्रो मळी साथे साथे भोजन करीने बेठा अने सूता ते पण ठीकज छे, केमके स्नेहथी वशीभूत छे चित्त जेतुं एवा पुरुष एक क्षण पण परस्परनो वियोग सहन करी Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ शकता नथी. ॥ ४३ ॥ बीजे दिवसे सवारमा पोतानी ईच्छाप्रमाणे विमानमां बेसीने ते बन्ने मित्रो दिव्य मनोहर वस्त्राभूषण पहेरीने श्रेष्ट आकारना धारक देवो समान पटना नगरनी तरफ चाल्या ॥ ४४ ॥ ते ओ त्यांथी चालीने जलदीथी अनेक प्रकारना आश्चर्योथी भरेला मनोवांछित ते पटना नगरमां पहोंच्या ॥। ४५ ।। त्यां पचीने मनोवांछित फळ आपवावाळा अनेक प्रकारना वृक्षोथी भरेला पटना नगरना एक बागमां देवोनी माफक उतर्या ॥ ४६ ॥ ते बागना सवळां वृक्षो फुलोना गुच्छा वडे घणां शोभतां हतां ॥ ४७ ॥ त्यां उतरीने मनोवेगे पवनवेगने क के जो तमने कौतुक जोवानी इच्छा होय तो जे प्रमाणे हुं कहुं ते प्रमाणे करवाथी तमारी इच्छा पुरी थशे ॥ ४८ ॥ मनोवेगनी वात सांभळीने पवनवेगे कह्युं के हे महामते ! तुं कोइ प्रकारनी शंका न कर. जे प्रमाणे तुं कशे ते प्रमाणे करवाने हुं तैयार छु ॥ ४९ ॥ हे मित्र, तारा कहेला वचन मानवानो में जरुर निश्चय करी लीधो छे, केमके जे परस्पर एक बीजानुं क न माने तेनामां मित्रता केवी रीते थई शके ॥ ५० ॥ आ प्रमाणे पोताना मित्रनां वचन सांभळीने मनोवेगे पोताना मनमां विचार कर्यो के नक्की ए सम्यग्दृष्टि थई जरो, केमके केवली भगवाननुं कहेलुं खोटुं पडतुं नथी ॥ ५१ ॥ मनोवेगे प्रसन्नचित्त थईने पवनवेगने कह्युं के जो ए प्रमाणे छे तो हे मित्र चालो ! नगरमा प्रवेश करी ॥ ॥ ५२ ॥ ते पछी ए बन्ने मित्रो विचित्र प्रकारना मोघां वस्त्रो पहेरीने, घास अने लाकडांनो भारो माथा उयर लईने पटना नगरमा आश्चर्यतानी साथे फरवा लाग्या || २३ || आ प्रमाणे आ बन्नेने जोईने नगरना लोको Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बहु आश्चर्य थया, केमके पृथ्विमां एवो कोण छे के जे अपूर्व वस्तुने जोवाथी मोहित न था ? ॥ ५४ ॥ जे प्रमाणे गोळना माटलांने गुंजार करती माखीओ वींटलाई जाय छे, ते प्रमाणे ते बन्नेनी चारे तरफ जोवावाळा लोको वीटलाई वळया ॥ ५५ ॥ तेमां कोई तो कहेवा लाग्या के ओहो ! बहु आश्चर्य छे. जुओ, आ भारी वस्त्रो पहेरीने सुंदराकार आ बन्ने जणा घास अने लाकडांनां भारो केम उठावे छे ! ॥ ५६ ॥ कोई कोई तो कहे छे के आ बन्ने पोतानां मोघां वस्त्रो वेचीने सुखथी पोताने घेर केम नथी रहता ! घास लाकडां केम वेचे छे? ॥ ५७|| बीजा केटलाक मनुष्यो आ प्रमाणे कहेता हता के ओहो! ए घास लाकडां बेचवावाला नथी; ए देव अथवा विद्याधर छे. कोई कारणथी आ प्रमाणे प्रकट थईने फरे छे || १८ || केटलाक भला माणसो कहवा लाग्या के आपणे पारकी वातनुं शुं काम छे ? केमके जे लोको पारकी चिन्तामा लागे छे तेने पाप बन्ध सिवाय कांइ पण फळ मळतुं नथी || १९|| प्रफुल्लित छे कांति जेनी एवाए बन्ने मित्रोने जोड्ने नगरनी केटलीक स्त्रीओ कामदेवने वशीभूत थई पोताना कार्यने छोडी ने चिंताने प्राप्त थई गई ॥ ६० ॥ केटलीक स्त्रीओ तो कहेती हती के, जगतमां कामदेव एक छे एवं प्रसिद्ध छे, परंतु ते प्रसिद्धीने प्रत्यक्ष असत्य करवाने माटेज जाणे कामदेवे बे देह धारण कर्या छे, ॥ ६१ ॥ कोई स्त्री कहे छे के आवी असाधारण शोभाने धारणकरवावाला महा रूपवान पुरुषने घास लाकडां बेचता में तो कदी जोया नथी ॥ ६२ ॥ कामथी पीडित एवी बीजी स्त्रीओ तेनी साथे वचनालाप करवाने माटे पोतानी सखीने कहेवा लागी के, हे सखी! ए घास लाकडां बेचवावाळा ने जलदीथी अहींआ तेडी लाव || ६३ || ए जेटली किंमतमां घास लाकडां Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपशे तेटली किंमतमा हुं लई लईश, केमके सारा माणसोनी साथे वस्तु नी प्राप्तिमां कोई प्रकारनी गणत्री कराती नथी ॥ ६४ ॥ आ प्रमाणे नगरना लोकोनी वातो सांभळता सांभळता सुंदर शरीरना धारक ए बन्ने मित्रो सोनानुं छे सिंहासन जेमां एवी वादशालामां पहोंच्या ॥ ६५ ॥ अने घास लाकडानां भाराने नांखीने मोटा जोरथी वादनो घंट वगाडीने सिंहनी माफक निर्भय थईने सोनाना सिंहासन' उपर जईने बेठा ॥ ६६ ॥ ते घंटनो शब्द सांभळीने पटना नगरना सघळा ब्राह्मणोने चिंता प्राप्त थई, अने 'कोइ जग्याएथी कोइ वादी आव्यो छे' ए प्रमाणे कहेता, वादनी लालसा राखवावाला निरंतर विद्यानी गर्वरुपी आग्निमां बळता परवादीने जीतवानी इच्छा करीने सघळा ब्राह्मणो। तरतज पोतपोताना घरनी बहार नीकळी पडया ॥ ६७-६८ ॥ कोइ तो कहता हता के तर्कशास्त्रना वादमां तो आजसुधी कोई पण विद्वान हमने जीतीने गयो नथी ॥ ६९ ॥ कोई कोई विद्वानो बीजा विद्वानोने कहता हता के तमे तो अनेक काठन वादो जीत्या छे माटे तमे तो मूंगा बेसजो, हवे हमे एनी साथे वाद करीशुं ॥७० ॥ केटलाक ब्राह्मणो विद्याना मदमां उमन्त थइने कहवा लाग्या के अवादिओमां रहेवाथी हमारो तो भणवानो वखत अने महेनत फोकट चाल्या गया ॥७१॥ कोई कहेता हता के आ वादरुपी वृक्षने परवादीने जीतवारुपी दंडथी तोडीने यशरुपी फळ ग्रहण करीशुं ॥७॥ वगेरे वातो करता करता वादनी खणखोस सहित ते ब्राह्मण विद्वानो ब्रह्मशालामां पहोंच्या ॥ ७३ ॥ अने हार, कंकण, कडां, श्रीवत्स अने मुकुट वगेरेथी अलंकृत मनोवेगने जोईने सघळा ब्राह्मणो आश्चर्य थई गया ॥७४॥ खरेखर आ विष्णु भगवानज बाह्मणोने जोवानी इच्छाथी आव्या छे, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केमके शरिरनी आवी मनोहर शोभा बीजा कोइमा होवी असंभव छे. आ प्रमाणे कहीने भक्तिना भारथी नम्राभूत थइने नमस्कार करखा लाग्या, ते ठीकज छे. जेनी बुद्धि भ्रमित थई गई छे तेनाथी प्रशंसनीय काम कदापि थतुं नथी ॥ ७५-७६ ॥ कोई कोई कहेता हता के निश्चय करीने आ पुरंधर एटले इन्द्रज छे, केमके जगतने महा आनंद आपवावाली कान्ति बीजा कोइने होई शकती नथी ॥ ७७ ॥ केटलाक महाशयो कहवा लाग्या, के आ पोताना त्रीजा नेत्रने अदृश्य करीने पृथ्वी जोवाने हामदेवजी आव्या छे, केमके आवु रुप महादेवजी सिवाय बीजा कोइने होई शकतुं नथी । ७८ ॥ बीजा महाशयो कहेवा लाग्या के आ कोई महा उद्धत विद्याधर छे जे पृथ्विने जोतां जोतां अनेक प्रकारनी लीला करे छे ॥ ७९ ॥ आ प्रमाणे विचार करतां छतां पण ते सघळा, अनवाला रुप करी छे दशे दिशा जेणे एवा विश्वरुप मणिनी समान मनोवेगनो कई पण निर्णय करी शक्या नहि, के ए कोण छे ॥ ८० ॥ त्यारे कोईएक प्रवीण ब्राह्मणे कडं के निश्चय करवाने माटे एने केम नथी पूछता ? केमके बुद्धिमान पुरुष हाथमां कंकण होय तो आरसीमां जोवानी इच्छा करता नथी ॥ ८१ ॥ जो ए वाद करवाने आव्यो छे तो वादिओने जीतवाने आशक्त छे मन जेनुं एवा आपणे, सघळा शास्त्रो अने परमार्थना जाणकार एनी साथे वाद करीशुं ॥ ८२ ॥ पंडितोवडे भरेला आ नगरमा छ दर्शनोमांथी एवं कयुं दर्शन छे के जेने वास्तवीक रीते आपणे सघळा न जाणता होइए? ए सिवाय ए टुकी बुद्धिवाला बीजुं शुं कहशे ? ॥ ८३ ॥ आ प्रमाणे वातो सांभळीने एक ब्राह्मण आगळ आवीने मनोवेगने Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केहवा लाग्या के आप कोण छो अने विरुद्ध छे हेतु जेनो एवा आप शा कारणथी आव्या छो ते कहो ॥ ८४ ॥ ए सोभळीने मनोवगे कह्यु के हे भद्र, हुं एक गरिबनो छोकरो छु, आ श्रेष्ठ नगरमां लाकडांनो भारो वेचवाने आव्यो छु ॥ ८५ ॥ आ सांभळी ते ब्राह्मण मनोवेगने कहेवा लाग्यो के, हे भद्र, तुं वाद जीत्या वगरज आ पूज्य सिंहासन उपर तरत वादनी सूचना करवावालो घंट वगाडीने केम बेसी गयो?॥ ८६ ॥ जो वाद जीतवाने तारामां शक्ति छे तो तुं वादीओना घमंडनो नाशकरवावाळा निर्दोष बुद्धिना धारक आ द्विजोत्तम पंडितोनी साथे वाद कर ॥ १७ ॥ हे मूर्ख! आ नगरमांथी आज सुधी कोई पण विद्वान वादने जीतिने यश मेळवीने गयो नथी. एवो कोण पुरुष छे के जे नागभुवनमाथी शेषनागना मस्तकनी मणिथी भूषित थईने जई शके ? ॥ ८८ ॥ तुं दिव्य मणिरत्नोथी भूषित थईने घास लाकडां वेचे छे, माटे तने तो वायुरोग छ, अथवा तो तने पिशाच वळग्यो छे, अथवा जुवानीना वधेला कामरुपी मदथी पागल थई गयलो देखाय छे, केमके-॥ ८९ ॥आ जगतमां द्रढ चित्तवाळा अथवा भोला जीवोना मनने मोहित करवावाळा अनेक ठगो छे, परंतु तारा सरखा पंडितोना मनने पण मोहित करखावालो मोटो ठग आ त्रण लोकमां कोई पण देखातो नथी ॥ ९० ॥ आ प्रमाणे वचन सांभळीने ते मनोवेग विद्याधर कहेवा लाग्यो के, हे विप्र, फोकट शुं काम कोप करो छो ? वगर कारणे तो सर्प पण रोष करतो नथी, तो पछी विद्वज्जन तो करशेज केवी रीते ? ॥ ९१ ॥ हे ब्राह्मण, हुं आ सोनाना सिंहासनने बहु मनोहर जोईने कौतुकथी तेना उपर बेसी गयो, भने , आ घंटनो भवाज आकाशमां क्यांसुधी थाय छे" एवो Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार करीने में जरा आ घंट वगाड्यो छे ॥ ९२ ॥ हे भट्ट ! हमे घासलाकडां वेचनारना पुत्र छाए अने हमे शास्त्रना मार्गने कई पण जाणता नथी; अने “ वाद " एवं नाम तो में निर्बुद्धिए हमणां तारे मोंढेथीज सांभळ्युं छे ॥ ९३॥ हे ब्राह्मण, तमारा भारतादि ग्रंथोमां शुं मारा सरखा घणा पुरुषो नथी ? जगतमां फक्त पारकांना दूषणज देखे छे. पोताना दूषण कोई जोतुं नथी ॥ ९४ ॥ कदाच आ सोनाना सिंहासन उपर मारा बेसवाथी तमारा मनमा हानि छ तो लो, उतरी जाउं छु. आ प्रमाणे कहीने ते अप्रमाण ज्ञाननो धारक मनोवेग तरतज सिंहासन उपरथी उतरीने नीच बेसी गयो ॥ ९५ ॥ आ प्रमाणे श्री अमितगति आचार्य कृत ' धर्म परिक्षा' संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषा टीकामां त्रीजुं प्रकरण पूर्ण थयु. ॥ ३ ॥ -- Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ प्रकरण ४ थुं. हवे ते ब्राह्मण मनोवेगने सिंहासन उपरथी उतरेलो जोईने कहेवा लाग्यो के रत्नोथी विभूषित घासलाकडां बेचनारा में कदी जोया नथी, केमके ॥ १ ॥ पारकी नोकरी करवावाला मनुष्य रत्नमयी सुंदर आभुषण वडे शोभित घासलाकडां बेचता कदी जणाता नथी ॥ २ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्युं कः- भारत रामायणादिक पुराणोमां एवा हजारो मनुष्य संभळाय छे, परंतु तमारा सरखा आ शास्त्रीय विधानोने जाणो छो परंतु तेनी प्रतीति करता नथी ॥ ३ ॥ त्यारे ते ब्राह्मणे कह्युं के, जो तें भारत अथवा रामायणमां एवा पुरुष जोया होय तो कहे; हमे विश्वास करीशुं. आ प्रमाणे ब्राह्मणना कहेवाथी मनोवेग बोल्यो केः॥ ४ ॥ हे ब्राह्मण ! हुं कहुं तो खरो परंतु कहेतां मने मोटो भय लागे छे, कारण के तमारामां विचारवान होय एवो कोई पण देखातो नथी ॥ ५ ॥ केमके विचार वगरनो मूर्ख सत्य कहलाने पण असत्य बुद्धिथी ' सोलह मुक्की न्यायनी ' रचना कर्या करे छे ॥ ६ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्युं के, हे महाबुद्धे ! ' सोलह मुक्की न्याय' केवो होय छे? ते कहे. आ सांभळीने मनोवेगे कधुं के, बहु सारुं हुं तमने कहुं हुं ते सांभळो ॥ ७ ॥ मलय देशमां सुखरुप संगाळ नामनुं एक गाम छे, त्यां कोई एक अन्नदाता गृहस्थने मधुकर नामनो एक पुत्र हतो ॥ ८ ॥ एक वखते मधुकर पिताने घेरथी रीसाईने नीकळीने पृथ्विमां फरवा लाग. ये रोषथी ते Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ शुं नथी थतुं ? ॥ ९ ॥ ज्यारे ते आभीर देशमां गयो त्यां तेणे चणानी दाळना 'मोटा मोटा अनेक ढगलाओ जोया ॥ १० ॥ तेने जोईने ते मूर्ख, विस्मित चित्तथी ओहो में मोहुं आश्चर्य जोयुं, में मोढुं आश्चर्य जोयुं आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो. ॥ ११ ॥ त्यारे त्यांना गामपतिए पूछयुं के, तें शुं आश्चर्य जोयुं ? त्यारे ते मूर्खे नीचे प्रमाणे कयुं, जे ठीकज छे. मूर्ख लोक आवती आपदाने जाणता नथी ॥ १२ ॥ जे प्रमाणे आ देशमां चणाना ढगला छे, तेज प्रमाणे हमारा देशमां मरचाना ढगला छे ॥ १३ ॥,आ सांभळी क्रोधित थईने गामपतिए कह्युं के, शुं तने वायुरोग थयो छे के आवुं असत्य भाषण करे छे ? ॥ १४ ॥ हे दुष्टबुद्धि, चणाना ढगलानी बराबर मरचांना ढग हमे कोई पण देशमां कदी दीठा नथी || १५ || आ दुष्ट एवं जाणीने हमारी हांसी करे छे के खरेखर आ चणावाला देशमां मरचानी वणी नवाई छे, अने हमारा देशमां मरचानी कई गणना नथी. आ प्रमाणे मूर्खपणाना भ्रमथी गामपतिए कहां के एने तरतज शिक्षा करवामां आवे छे ॥ १६-१७ ॥ आ गामपतिना वचन सांभळीने तेना कुंटुबी माणसो ( नोकर चाकर) ते मधुकरने बांधवा मंड्या, जे बरोबरज छे, खोटा वचन बोलवावालो केम न बंधाय ? ॥ १८ ॥ त्योर कोई दयावान सेवके कह्युं के, हे भद्र! एने आ अपराध प्रमाणेज शिक्षा करवी जोईए ॥ १९ ॥ त्यारे तेणे आज्ञा करी के एना चपटा माथा उपर मुट्ठिओना आठ भडाका करवा जोईए, जेथी ए फरीथी कोईनी हांसी करे नहीं ॥ २० ॥ पटेलना आ प्रमाणे वचन सांभळीने तेना निर्दयी सेवकोए मधुकरने छोडीन तेना चपटा माथापर मुट्ठिओना आठ भडाका मारी दीधा ॥ २१ ॥ एणे मने आठ धोल लगावीने Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोडी दीधो तेथी मने मोटो लाभ थयो, केमके दुष्टोनी साथे रहेवा. वालाने जीववामां पण भय रहे छे ॥ २२ ॥ एवो विचार करीने ते मधुकर भयभीत थईने तरतज पोताने देश चाल्यो आव्यो, जे योग्यज छे-मूर्ख लोक दुःख पड्या वगर कोई काममां नित थता नथी । ॥२३॥ते पछी ते मधुकरे पोताना संगालगामने प्राप्त थवानो इच्छक विभागरुप ( जुदा जुदा) चणाना ढगलानी बराबर मरचांना ढगला दीठा॥२४॥ त्यां पण तेणे एज प्रमाणे कां के “ जे प्रमाणे आहिंआं मरचांना ढग छे, तेज प्रमाणे आभीर देशमा में चणाना ढगला जोया" वगेरे. त्यारे त्यां पण तेने आठ मुट्ठीओना मारनो दंड मल्यो, ते ठीकज छे मूर्ख माणस खंडित थइने पण पंडित थता नथी ॥ २५ ॥ आ प्रमाणे सत्य भाषण करवा छतां पण मधुकरे सोळ मुट्ठीनो मार खाधो, त्यारथी आ ‘सोलह मुही न्याय' प्रसिद्ध थयो छे ॥ २६ ॥ आ कारणथी साक्षी वगर सत्य पण बोलवू जाइए नहि. जेओ बोलशे ते जन समाजने हाथे असत्यवादीनी माफकज दंड पामशे ॥ २७ ॥ अने साक्षी सहित असत्यने पण सघळा माणस सत्य माने छे. जो ए प्रमाणे न होय तो ठग माणसो जगतने केवी रीते ठगते ? ॥ २८ ॥ ए कारणथी चाहे सत्य होय चाहे असत्य होये, परंतु बुद्धिमानोए विश्वास बेसे एवां वचन कहेवा जोईए, बीजी रीते जे मोटी पीडा भोगववी पडे छे तेने कोई निवारी शकतुं नथी ॥ २९ ॥ पुरुष सत्य पण कहे तो पण मूर्ख लोक मानता नथी, ए कारणथी पोतानुं हित चाहवावाळाए मूर्खा आगळ कदी बोलवू जोईए नहि ॥ ३० ॥ केमके लोक तो अनुभवमां आवेली सांभळेली, जोयली, प्रसिद्ध वातने माने छे जेथी चतुर पुरुषोए मूर्ख आगल Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कइ पण बोलवू जोइए नहि ॥ ३१ ॥ माटे हे ब्राह्मणो ! आहआं विचाररहित एवाओं आगळ बोलतां मने पण तेज दोष प्राप्त थाय छे, एथी खरखर हुं कई पण बोली शकतो नथी ॥ ३२ ॥ केमके जे कोई आगल पाछलनो विचार करे तेनी आगळ बोलवू; नहितो बीजानी आगळ बुद्धिमानोए बोलवू योग्य नथी ॥ ३३॥ आप्रमाणे कहीने मानोवेग चुप रह्या बाद एक आगेवान बाह्मणे कयुं के, हे भद्र ! एवं न कहो; हमारामां एवो कोईपण अविचारी नथी ॥ ३४ ॥ एवं न समज के, आवचारी पुरुषोना जेवो दोष आ विचारवान विद्वानोमां होय, केमके मनुष्योमा पशुओनो धर्म कदी होतो नथी ॥ ३५ ॥ तुं आभीर देशवालानी माफक हमने मूर्ख न समज, केमके कौवाना जेवा हंस कदी होता नथी ॥ ३६ ॥ हे भाई ? तुं कोई प्रकारनो भय न कर; आहआं सघळा ब्राह्मणो चतुर छे, योग्य अयोग्यनो विचार कर वावाळा विद्वान छे. तारी ईछा होय ते कहे ॥ ३७ ॥ जे वाक्य युक्तिथी ठीक होय अने सज्जन पुरुषानी समजमां आवे, एवं वचन बेफीकरथी कहो हपे विचारीने ग्रहण करीशुं ॥ ३८ ॥ आ प्रमाणे ब्राह्मणनां वचन सांभळोने जिनेन्द्र भगवानना चरण कमलोनो भ्रमर मिष्टभाषी मनोवेग कहेवा लाग्यो के, ॥ ३९ ॥ रक्त १, द्विष्ट २, मनोमूढ ३,बीजाना कहेवापर विश्वास करवावाळा हठयाहि ४, पित्तदूषित ५, आम्र ६, क्षीर ७, अगुरु ८,चन्दन ९, अने बालिस (मूर्ख) १०, आ दश प्रकारना मूर्ख छ ॥४०॥ ए सवळा पूर्वा पर विचार रहित पशुओना जेवा छे. तमे लोकोमां एवो जो कोई होय तो हुं मारी बात कहेवाने डरूं छु, ॥ ४१॥ मनुष्य अने तिर्यंचमां एटलोज भेद छे के, जे सघर्छ काम विचारपूर्वक करे ते तो मनुष्य अने विचार Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगर करे तेज पशु छे ॥ ४२॥ जेओ पूर्वापर विचार करवावाला मध्यस्थ, ( पक्षपात रहित ) धर्मेच्छु होय तेज सारा [उत्तम ] सभासद कहेवाय छे ॥ ४३ ॥ जे प्रमाणे सर्पने दुध पीवाडीए तेम मूर्ख आगळ सुभापित अने सुखदायक वचन पण कहेवू मोटी पीडा करवावाळु छे ॥ ४४ ॥ जो पर्वतनी शिलापर कदापि कमळ थई जाय तथा जलमां अग्नि अने झेरमां अमृत थई जाय, परंतु मूर्खमां कदापि विचार होतो नथी ॥ ४५ ॥ ब्राह्मणोए कह्यु, हे भाई ! ए दश प्रकारना मूर्ख केवा होय छे ते कहो. आ प्रमाणे ब्राह्मणाना कहेवाथी ते मनोवेग विद्याधर रक्त द्विष्टादि दश मूर्योनी चेष्टा नीचेनी दश कथाओवडे कहेवा लाग्यो. ॥ ४६ ॥ १. रक्त पुरुषनी कथा। रेखा नदीना दक्षिण किनारापर सामन्त नगरमां बहु धान्यक नामनो एक मोटो धनाढ्य शेठ रहेतो हतो ॥ ४७ ॥ जे प्रमाणे महादेवने पार्वती अने गंगा ते प्रमाणे तेने मुंदरी अने कुरंगी नामनी बे सुंदर स्त्रीओ हती ॥४८॥ ते शेठे कुरंगी नामनी युवान स्त्रीने राखीने सुंदरी जे वृद्ध हती तेने छोडी दीधी; ते बराबरज छे सारीने . छोडीने नबळीने कोण सेवे ?॥ ४९ ॥ केटलाक दिवस पछी शेठे सुंदरीने कयु के, हे भद्रे, तुं तारो भाग लईने तारा पुत्रसहित बीजा घरमां जईने रहे ॥ ५० ॥ त्यारे ते स्त्री पोताना पतिनी आंज्ञा प्रमाणे रहवा लागी, पतिवृता स्त्रीओ पोताना पतिनी आज्ञानुं उलंघन करती नथी ॥ ५१ ॥ एना पतिए एने आठ बळद, दश गाय, बे दाशी अने बे चाकर तथा सर्व प्रकारनी सामग्रीसहित एक घर पण आप्यु ॥ १२ ॥ ते पछी ते बहुधान्यक मोहित थईने कुरंगीनी साथे मनोवांछित भौगोने Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगतो मदिराथी मदोन्मत्तनी माफक जता वखतने जाणतो नहोतो ॥ ५३ ॥ ते सुंदराकार नवयोवन प्रियाने मेळवीने ते बहुधान्यक इन्द्राणिने आलिंगन करवावाळा इन्द्रने पण पोताथी अधिक मानतो नहोतो ॥ ५४ ॥ युवान स्त्री वृद्धपुरुषमां रत थती शोभती नथी. केमके जुना कामळनी साथे जोडेली शाल कदापि शोभती नथी ॥ ५५ ॥ जे पुरुष वृद्धहोवा छतां तरुण स्त्रीमां रत थायछे ते जलदथी तेनाथी मळेली पीडाने प्राप्त थईने आपत्ति भोगवे छे ॥ ५६ ॥ वृद्धपुरुषने तरुण स्त्रीनी बराबर बीजुं कांई दुःखदायक नथी. शुं अग्नि सिवाय बीजो कोई पदार्थ अधिक तापकारी छे ? ॥ ५७ ॥ वृद्धपुरुषना जीवननी स्थिति ( अवधि ) तरुणी-प्रसंग सूधीज जाणवी. केमके - 'वज्राग्निनी साथे रहेता शुका वृक्षनी स्थिति केवी थई शके छे ? ॥ ५८ ॥ एक वखते स्नेहरुपी सूर्यवडे प्रफुल्लित कुरंगीना मुखरूपी कमळने राज अवलोकन करवावाळा बहुधान्यकने ते नगरना राजानी सेनाना विशेष प्रबंधकर्ता थवुं पडयुं ॥ ५९ ॥ राजा तेने बोलावीने आज्ञा करी के तमे सेनामां जलदीथी जाओ अने जरुरी चीजोने माटे प्रबंध करो || ६० || तेणे पण नमस्कार करीने एमज करीश एम कहीने पोताने घेर आवी एकान्तमा बेसीने पोतानी स्त्रीने गाढ आलिंगनपूर्वक कह्युं के ॥ ६१ ॥ हे कुरंगी, हुं सेनामां जाउं छं, तुं घरमां खुशीथी रहेजे, केमके - मुखाभिलाषीओए स्वामीनी आज्ञानुं उल्लंघन कर योग्य नथी ।। ६२ ॥ हे कुरंगी, मारा स्वामीनी सेना तैयार छे, मारे जरुर जवुं पडशे, नहितो स्वामी कोप करशे ।। ६३ ।। आ बात सांभळीने ते कुंरंगी खेदखिन्न बुद्धिथी कवा लागी के हे नाथ ! हुं पण तमारी साथे जरूर आवीश ॥ ६४ ॥ हे नाथ, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ बळती आग्ने तो हुं सुखधी सहन करूं, परंतु सघळा शरीरने आताप करवावाळा आपना वियोगने सहन करी शकती नथी ॥ ६५ ॥ हे विभो, तमारी सामुं अग्निमां पडी मरी जवं सारुं छे. परंतु तमारी पाछळ विरह रुपी शत्रुथी ( वियोग ) मरी जाउं ते सारुं नाह ॥ ६६ ॥ हे नाथ, जे प्रमाणे वनमां शरणरहित मृगने सिंह मारे छे, ते प्रमाणे तमारा विना अहिंआ मने एकलीने कामदेव मारी नांखशे ॥ ६७ ॥ जो तमारे जवुंज होय तो जाओ. यमराजने घेर जता मारा जीवननो मार्ग पण कल्याणरुप थाओ, अने तमारो मार्ग पण कल्याणरूप थाओ ॥ ६८ ॥ आ प्रमाणे पोतानी प्रियानुं वचन सांगळीने ते शेठ कहेवा लाग्यो के, हे मृगलोचनी, एवं न बोल, स्थिर थईने घेर रहे, आववानी इच्छा न कर ॥ ६९ ॥ केमके राजा घणो व्याभिचारी छे. तने देखतांज ग्रहण करी लेशे, ते माटे हे कान्ता, तने घेर राखीनेज हुं जईश ॥ ७० ॥ राजानो स्वभाव एवो छे के तारा जेवी मनोहर स्त्रीने जोईने ते अवश्य छीनवी ले छे, जे उचितज छे के जेनी बरोबर बीजं नही एवा स्त्रीरत्नने कोण छोडे ! ॥ ७१ ॥ आ प्रमाणे पोतानी प्रियाने समजावीने अने धन धान्यथी भरेला घरने सोंपीने ते शेठ सेनानी साथे चाल्यो गयो || ७२ || सरागीनो एवोज स्वभाव होय छे के - ते मनवांछित वस्तु मळेथी पछी कोईनो पण विश्वास करतो नथी. जो ते वस्तुनो वियोग थई जाय तो मरण सुधी इच्छा करे छे ॥ ७३ ॥ कूतरो कूतरीने मेळवीने तेने जगतनी सघळी वस्तुओथी प्यारी समजे छे. जो ते गरीब छे तोपण पोतानी कृतरी जती रहेवाना भयथी इन्द्रने पण भसे छे ॥ ७४ ॥ नीच कूतरो कृमिजाल अने मलथी व्याप्त नीरसमांस मळेथी पण तेने अमृतनी समान माने छे ॥ ७५ ॥ जे Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जे वस्तुमा मग्न होय ते तेनी रक्षा करेज छे. जे प्रमाणे कौओ विष्टानो संग्रह करीने शुं सर्व प्रकारथी रक्षा नथी करतो ! ॥ ७६ ॥ जे प्रमाणे ? कूतरो पशुना हाडकाने रसायगनी समान समजीने चाहे छे ते प्रमाणे जे रक्तमूर्ख होय छे ते असुंदरने पण सुंदर माने छे || ७७ ॥ पोतानो पति परदेश गया पछी ते कुरंगी कामने वशीभूत थईने पोताना यारोनी साथे निःशंक रमत्रा लागी. ते यारो एवा छे के जाने देहधारी अन्यायज छे ॥ ७८ ॥ कर्या छे इच्छित मनोरथ जेणे एवी ते कुरंगी पोताना जारने अनेक प्रकारनां भोजन वस्त्र धन वगेरे आपका लागी ॥ ७९ ॥ जे स्त्री विषयमां लपटाईने जन्मथी पालन पोषण करेली पोतानी देहने पण संभाळी संभाळीने आपे छे तो तेने पोतानुं द्रव्य आपवाने शुं हरकत छे ! ॥ ८० ॥ ए प्रमाणे ते कुरंगीए नव दश दिवसमाज पोताना यारोने सघळी धन दोलत आपीने·खाई पीने पुरुं कर्यु. घरमां कई पण रह्युं नहि ॥ ८१ ॥ कामरुपी बाणोथी भरेली छे देह जेनी एवी ते कुरंगीए नष्टबुद्धि थईने पोताना घरने धन धान्य वस्त्र वासण रहित उदरोनी वस्ती करी दीधुं ॥ ८२ ॥ जे प्रमाणे रुतुमति गाय काममां लवलिन सांढोनी साथे ज्यां त्यां पशुकर्म करती फरे छे ते प्रमाणे कुरंगी कामपीडीत थई पोताना यारोनी साथै सघळी वाते बेफिकराई थी फरवा लागी ॥ ८३ ॥ जे प्रमाणे सघकुं वेर तोडीने भयभीत चोर मार्गनी झडब्रेरीने छोडीने नाशी जाय छे, ते प्रमाणे आ कुरंगीना पतिनुं आबवुं सांभळीने तेना यारोए रह्यं सह्यं सघलुं धन लई लईने तेने छोडी दीधी ॥ ८४ ॥ त्यारे ते पण पोताना पतिनुं आवें जाणीने उत्तम पतिव्रतानो वेष धारण करीने लज्जायुक्त थई पोताना घरमां रही. ते नीतीज Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे, केमके-पति वगेरेने धोको आपवो तो स्त्रीओनो स्वाभाविक धर्म छे ॥ ८५ ॥ कुरंगीए ए प्रमाणे पोतानो वेष बनाव्यो के जेथी कोई पण एम न समजे के ए कुलटा ( व्यभिचारिणी) छे. आ स्त्री इन्द्रने पण धोको आपीने अज्ञानी करी दे छे तो मनुष्योनी तो गणनाज शुं ॥ ८६ ॥ पार पाडयुं छे मालिकनुं सघळु कार्य जेणे एवो ते बहुधान्यक पोतानी प्रियानी ( कुरंगीनी ) पासे एक आदमीने मोकलीने पोते गामनी बहार एक झाड नीचे विश्राम लेवाने बेठो ॥ ८७ ॥ ते आदमीए कुरंगीनी पासे जईने कह्यु के, हे कुरंगी ! तारे प्रियपति आवेलो छे, माटे तेने माटे जलदीथी अनेक प्रकारना भोजन बनावो. तेणे मने आ वात कहेवाने माटेज मोकल्यो छे ॥ ८८ ॥ आ सांभळीने ते कुटिल स्त्रीए कह्यु के, तुं आ वात मोटी स्त्रीनी पासे जईने कहे; केमके श्रेष्ठ पुरुष छे तेओ क्रम उलंघननी निंदा करे छे. ते माराथी माटी छे, तेथी पहले दिवस तेने घेर भोजन थर्बु जोईए. ए प्रमाणे समजावीने ॥ ८९ ॥ ते कुरंगी ते आदमी साथे सुंदरीने घेर जईने कहेवा लागी के, हे सुंदरी ! तारो पति आवेलो छे तेथी तेने माटे बहु स्वादिष्ट भोजन बनाव, केमके ते आजे पहेले दिवसे तारेज घेर जमशे ॥ ९० ॥ आ सांभळीने सुंदरीए कुरंगीने कयु के, हे मिष्ट भाषण करवावाली ! सुंदर यौवन समान हुं पवित्र भोजन तो बनावीश, परंतु तारो पति जमशे नहि ॥ ९१ ॥ ते कुरंगीए हसीने कडं के जो कदाच ते मने प्यारी समजे छे तो मारा वचनानुसार तारा आ सुंदर घरमां अवश्य जमशे, तुं भोजन तो बनाव ॥ ९२ ॥ आ प्रमाणे कुरंगीना वचन सांभळीने ते अनेक प्रकारना पट्रस भरेला भोजन बनाववा मंडी. जे सज्जन पुरुष छे ते पोतानी समानज सघळाने सरळ समजे छे Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ९३ ॥ ते अलक्षित दोषवाली मायाचारिणी कुरंगीए पोताना धनहिन घरने छूपान्युं, जे ठीकज छे. मायाचारिणी स्त्रीओ पोताना सघळा दुषण रूपी धनने छुपावे छे ॥ ९४ ॥ आ प्रमाणे ते हिनाचारिणी कुरंगी महान दूषणोथी भरेली धर्मना मार्गने तजीने पोताना पतिने आ प्रमाणे ठगवा मंडी, केमके जे पापी जीव छे ते संसारना अत्यंत दुःखोने जाणता नथी. ॥ ९५ ॥ आ प्रमाणे अमितगति आचार्यकृत ' धर्मपरिक्षा ' नामंना संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषा टिकामां चौथं प्रकरण पूर्ण थयुं. ॥ ४ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ प्रकरण ५ मुं ते पछी कामनी वेदनाथी पीडित छे चित्त जेनुं एवो ते बहुधान्यक शेठ पण उत्साहपूर्वकं हर्षित थईने जलदाथी कुरंगीने घेर गयो ॥ १ ॥ वरसाद वगरनुं आकाश अथवा नगरनिवासिओ वगरना श्रेष्ट नगरनी माफक पोताना घरने धनधान्यादिकथी खाली जोईने पण ॥ २ ॥ ते मूढे कुरंगीना मुखना अवलोकनने माटे आकुलचित्त थईने पोताना घरने चक्रवर्तिना घरथी पण अधिक मान्युं ॥ ३ ॥ तथा ते एम मानतो हतो के जे काम मारी प्रियाकरे ते मने प्रिय छे अने जेएन करे ते सघळं पण मने प्रिय छे ॥ ४ ॥ रागी माणस बीजाने न जुए तो तेमां कंई पण आश्चर्य नथी, केमके - जेनी आंख रागथी अंध थयली छे ते पोताना आत्माने पण देखतो नथी ॥ ९ ॥ तथा जे रक्त नर होय छे तेओ धर्म शुं छे, आपणुं कर्तव्य शुं छे, गुण शुं छे, सुख शुं छे, त्यागवा योग्य वस्तु कई छे, ग्रहण करवा योग्य वस्तु कई छे, यश शुं पदार्थ छे, द्रव्य शुं छे, अने घरनो नाश शुं चीज छे, वगेरे कंईपण जाणता नथी ॥ ६ ॥ रागी पुरुष स्वाधीनताने छोडी दे छे अने पराधिनतानो स्विकार करे छे तेमज धर्म कार्यने छोडीने पाप कार्यमां रमवा लागी जाय छे ॥ ७॥ रागी पुरुष जलदीथी मोटी आपदा भोगवे छे. शुं मांस लागली फांसीमां आसक्त थईने फसेलुं माछलुं मृत्यु पामतुं नथी ? ॥ ८ ॥ योग्य अयोग्य न जाणवावाळा हरणने ने प्रमाणे शिकारी मारी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ नांखे छे, ते प्रमाणे रक्तपुरुषने निवारण न करी शकाय एवा बाणोवडे कामदेव मारी नांखे छे || ९|| रक्तपुरुषने जोईने सारा माणसो तो दिलगीरी करे छे अने दूर्जन माणसो मस्करी करे छे, तथा घणा लोको तिरस्कार पण करे छे, अथवा एबी कई आपदा छे के जेने रक्तपुरुष भोगवतो नथी ? ॥ १० ॥ बुद्धिवानोए रागने उपर प्रमाणे दूषण जाणीने छोडी देवो जोईए. एवां कोण बुद्धिमान छे के जे सर्पने झेरनुं घर जाणवा छतां पण न छोडे ! ॥ ११ ॥ ए पछी ते बहुधान्यके क्रीडानी साथ प्रफुल्लित कान्तिवाला प्रियाना मुखरूपी कमलने जोई घरना बारणा आगळ उभा रहीने रसोईखाना तरफ जोयुं ॥ १२ ॥ अने क्षणवार उभा रहीने पोताना मनने प्यारी एवी कुरंगीने कह्युं के हे कुरंगी, मने जलदथी भोजन आप, विलंब केम करे छे ! ॥ १३ ॥ त्यारे ते पुरुषोनो नाश करवावाळी कुटिल अभिप्रायने धारण करवावाळी कुरंगी यम राजाना भयानक धनुषनी माफक डोळा चढावीने पोताना पतिने कहवा लागी के ॥ १४ ॥ हे दुष्ट बुद्धि ! पूर्व पुरुषोनी मर्यादा पाळवाने माटे जेनी पासे समाचार मोकल्या, ते तारी माने घेर जा अने त्यांज भोजन कर ॥ १५ ॥ जुओ ! जे कुरंगीए पोतेज सुंदरीने कह्युं हतुं के पति आज तारेज घेर जमशे, अने पछी पोतेज पतिनी आगळ क्रोध करे छे, जे ठीकज छे, जे स्त्रीओए पोताना पतिने वश करी लीधो छे ते कयो अपराध करती थी ! ॥ १६ ॥ एवो रिवाजज छे के दुष्ट स्त्री पोते अन्याय करीने पोतानो ते दोष छुपाववाना कोप कर्या करे छे ॥ १७ ॥ कुटिल अभिप्रायथी - पतिउपर अभिप्रायवाली स्त्रीओ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम विचार करीने एवं वचन कहे छे के जेनाथी मोटा मोटा बुद्धिमाने नी बुद्धि पण नष्ट थई जाय छे अथवा भ्रमरुपी चकरमा गोथां खाई जाय छे ॥ १८ ॥ स्त्रीओ रुठी जवाथी अवज्ञा अवस्थामां बीजाथी करवामां न आवे, एवी स्त्रीनी स्थिरताने सारी रीते करवाने माटे रागी माणसो स्त्रीओना करेला क्रोध मान अने अवज्ञा वगेरेने स्वभावथीज सहन करी ले छे ॥ १९ ॥ जे नीच रक्तपुरुष होय छे, तेने स्त्री जेम जेम तिरस्कार करे छे तेम तेम देडकानी माफक तेनी सामु जाय छे ॥ २० ॥ अने ते विचित्र प्रकारना. आश्चर्य करवावाली स्त्री रक्तपुरुषने मोहित करी ले छे, अने रागयुक्त करेलुं पुरुषोनुं मन तरत रंजायमान थई जाय छे ॥ २१ ॥ जे प्रमाणे लुहार लोढाने बहु ताप दईने तेने तोडी पण शके छे अने जोडी पण शके छे, तेज प्रमाणे स्त्री पण प्रेमने तोडवाने अने जोडवाने बन्ने कामोमां समर्थ होय छे ॥ २२ ॥ जे प्रमाणे बिलाडी ना भयथी उंदर चुप थईने बेसी जाय छे, ते प्रमाणे बहुधान्यक कुरंगीना वचन सांभळीने मुंगो थईने बेसी गयो ॥ २३ ॥ सखत अग्निनो ताप तो सुखथी सहन थई शके परंतु स्त्रीनी भयकारीणी भ्रकुटी सहित वक्रदृष्टिने कोई पण सहन करी शकतुं नथी ॥ २४॥बेहाथ जोडीने प्रार्थना कर्या छतां पण ते दुष्ट स्त्री क्रोधायमान महाविषवाळी सर्पिणींनी माफक बडबडतीज रही ॥२५॥ दुर्निवाररोगनी माफक पुरुषोनेहमेशां कष्ट आपया वाली आ प्रमाणेना खोटा स्वभाववाली स्त्रीओ पापना प्रभावथीज थाय छे ॥ २६ ॥ ए अरसामां हे पिताजी घेर आवीने भोजन करो" आ प्रमाणे तेना पुत्रए प्रार्थनापुर्वक बोलाव्या छतां पण ते मूर्ख चिंतातूर नी माफक चुपज रह्यो ॥२७॥त्यारे "ते आशुपाखंड करवा मांडयुं छे, पोतानी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियाने घेर जईने केम जमतो नंथी ? " आ प्रमाणे कुरंगीना धमकाववाथी ते बहुधान्यक तेज वखते डरतो डरतो सुंदरीने घेर गयो ॥२८॥ त्यां पहोंचतानी साज ते सुंदरीए परमस्नेह बताव्यो अने पोताना निर्मल चित्तनी समान विशाल कोमल उत्तम आसन आप्यु ॥ २९ ॥ ते पछी तेणे पतिना सन्मुख अनेक जातना वासण मूकीने तेमां ताजुं सुंदर रसील भोजन पीरस्युं, परंतु ॥ ३० ॥जे प्रमाणे निर्मळ विशुद्ध जिनवाणी वडे वर्णन करेलुं सम्यक्त्व अभव्यने रुचतुं नथी ते प्रमाणे सुंदरी- आपेलुं भोजन तेने स्वादिष्ट [ सारं ] लाग्यु नहि ॥ ३१ ॥ तेणे एमज समजी लीधुं के आ जे करे छे ते सघळु मने आप्रय छे अने कुरंगी ने कई करे छे ते सघळां कार्य मने प्रिय छे ॥ ३२ ॥ जे जीव मोहने वशीभूत थई जेनाथी विरक्त थई जाय छे ते वस्तु उत्तम होवा छतां पण तेने कदापि रुचती नथी ॥ ३३ ॥ ए कारणथी महास्नेह धारण करवावाली स्त्रीना समान सुंदर पुष्टिकारक सुवर्णपात्रमा पीरसेलुं सुंदर भोजन तेने भाव्युं नहि॥ ३४ ॥कामरुपी अंधकारथी आच्छादित पोतानी सामु वासणमां उत्तमभोजन देखतो,ते बहुधान्यक ए प्रमाणे विचार करवा लाग्यो के चन्द्रनी मूर्तिसमान आनंद आपवावाली,सुंदर कामनी धारक ते कुरंगी शुं कारणथी क्रोधायमान थई ? मारी तरफ नजर पण नथी करती ? खरखर तेणे मने वेश्यानी साथे सूतलो समजीनेज कोप कयों छे, ते ठीक छे संसारमा एवं कोई पण काम नथी के जे चतुर स्त्री न जाणी शके ॥ ३५-३६-३७ ॥ आ प्रमाणे जम्यावगर ऊंचुं मोढुं करीने बेठेलो जोईने तेना कुटुंबी माणसोए केयुं के “ अहिंयां सघळी मनोहर वस्तु छे ते जमो, शुं आ भोजन तमने नथी भावतुं ? ॥ ३८ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE त्यारे ते बाल्यो के शुं अमुं ? मारा मनलायक अहिंयां कई पण नथी. मने कुरंगीना घेरथी कई पण भोजन लावीने आपो तो ठीक थाय ॥ ३९ ॥ आ प्रमाणे पतिनुं वचन सांभळीने सुंदरी तेज वखते कुरंगीने घेर गई अने कह्युं के - हे कुरंगी ! पतिने जे कांइ भावतुं भोजन होय ते आप ॥ ४० ॥ कुरंगीए कह्युं के पतिनुं भोजन तारे घेरं थशे एवं समजीने में आज कई पण बनाव्युं नथी ॥ ४१ ॥ जो ते रक्तबुद्धि मारुं आपलं गोबर ( छाण ) खाई लेशे तो मारा सघळा दूषण पण सहन करी लेशे ॥ ४२ ॥ आ प्रमाणे पोताना मनमां विचार करीने तेणे तेज वखते गरम गरम चावेला गहुंना दाणा छे जेमां एवं निंद्य पातळं गोबर ( छाण ) लावीने ॥ ४३ ॥ कह्युं ले, आ राबडी लई जईने स्वामिने पीरश एम कहीने वासणमां भरीने सुंदरीने आपी दीधुं ॥ ४४ ॥ ज्यारे सुंदर लावीने ते गोबर स्त्रामीने पीरश्युं त्यारे ते बहुधान्यक सुंदर भोजनने छोडीने ते गोबरना वखाण करतो करतो विष्टाने साकरनी माफक खाई गयो ॥ ४५ ॥ आचार्य कहे छे के ए बहुधान्यके कुरंगनुिं आपेलुं गोबर खाई धुं तो मां शुं आश्चर्य थयुं ! केमके रागी पुरुष तो स्त्रीओना जघन्य स्थलनां महा अपवित्र पदार्थने पण खाई ले छे || ४६ ॥ विरागीने सुंदर पण असुंदर देखाय छे, परंतु रागी पुरुषने प्रगटपणेथी असुंदर पदार्थ पण सुंदर देखाय छे ॥ ४७ ॥ जगतमां एवं कोई पण नीच कार्य नथी के जे रागी पुरुष स्त्रीनी आज्ञाथी न करे, केमके घणा स्त्रीभक्त पुरुष विष्टा पण खाइ ले छे तो तेनी अपेक्षाए गोबर पवित्र केम न होय ! ॥ ४८ ॥ ते शेठ मात्र गोबरज खाईने पोतानी बेठके जईने बेठो अने पोतानी प्रियाना क्रोधनुं कारण जाणवाने माटे जोशीने पूछवा लाग्यो ॥ ४९ ॥ के हे भाई Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारी स्त्री मारी साथे केम रिसाई छे ? शुं तेणे मारुं कोई खोटुं आचरण जाणी लीधुं छे ? जो तमे जाणता हो तो कहो ॥ ५० ॥ ते ब्राह्मणे कयु के हे शेठ ! पोतानी स्त्रीनी बात तो रहेवा दे, एनी पहेलां स्त्रीओनी जे चेष्टाओ छे ते थोडीक कहुं छु ते सांभळ ॥ ११ ॥ जगतमां एवो कोई पण दोष नथी के जे स्त्रीमां न होय, केमके ' एवो कयो अंधकार छे के जे रात्रीमां कोई जगोए न होय' ॥ ५२ ॥ समुद्रना जळनुं प्रमाण करवू तो शक्य छे, परंतु सवळा दोषनी खाणरुप स्त्रीना दोपनी गणना कदापि थई शके नहि ॥ ५३ ॥ बीजानो दोष शोधी काढवामां चतुर बे बोला कहिए एकज वातने अहि कई अने अहिं कई बीजूं कहेवावाली स्त्रीओनो क्रोध महा क्रोधायमान सर्पिणीनी माफक कदापि शमातो नथी ॥ ५४ ॥आ स्त्री, हमेशां उपचार करती छतां पण अत्यंत वृद्धिरुप वेदनानी माफक जीवननो क्षय करवावाळी छे ॥ ५५ ॥ अहिंआं तहिंआं भटकता दोषोनो परस्पर कदी मेळाप थतो नहोतो, ए कारणथी ब्रह्माजीए सघळा दोषोनो एक जग्याए मेलाप कराववानी इच्छाथीज जाणे आ स्त्रीरुपी सभा बनावी छे ॥ ५६ ॥ जे प्रमाणे जळनी खाण नदी छे ते प्रमाणे अनर्थोनी खाण स्त्री छ; अने जेम विषतुं घर सर्प छे ते प्रमाणे नठारां चरित्रोनुं घर स्त्री छे ॥ ५७॥ जे प्रमाणे वेलोना उत्पन्न थवानुं कारण पृथ्वि छे, ते प्रमाणे अपयश उत्पन्न थवानुं कारण स्त्री छे, तथा जेम अंधकारनी खाण रात छे तेम खोटा नयोनी मोटी खाण स्त्री छे ॥ ५८ ॥ आ स्त्री पोतानो स्वार्थ साधवामां चौरटीनी जेवी छे; आताप करवाने आग्नि समान छे, हठ पकडवामां अचल छायासमान छे अने सांजनी माफक क्षणमात्र प्रेम Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारण करवावाळी छे ॥ ५९ ॥ तथा कूतरीना जेवी अपवित्र नीच, खुसामद करवावाळी, पापकर्मथी उपजी मलीन उच्छिष्ट भक्षण करवावाळी छे ॥ ६० ॥ दुर्लभ वस्तुमा तरत रंजायमान थईने पोताने स्वाधीन वस्तुने छोडवावाळी अने मोटुं घोर साहस करवावाळी, कदी डरती नथी अने शरमाती पण नथी, तथा ॥ ६१ ॥ विजळीना जेवी अस्थिर, वाघणनी माफक मांस खावानी इच्छक, माछलीना जेवी चपल अने दुर्नितीना जेवी दुःख देवावाळी छे ॥ ६२ ॥ हे महाशय, वधु ते शुं कहुं ? तमारा घरमां जे कुरंगी छे, तेने खरेखर पोलानी शत्रु समजवी ॥ ६३ ॥ हे माई ! सम्धक्चारित्र समान दुर्लभ तारूं सघळु धन, ए कुरंगीए पोताना यारोने आपीने नष्ट करी दाधुं छे ॥ ६४ ॥ जे स्त्री निर्भयचित्त थईने तारा धनने नष्ट करे छे, ते कर्कशा कदाच तारा जीवनने हणे तो तेने कोण निवारण करी शके एम छे ? ॥६५ ॥ बराबर धाकमां न रहेवाथी हमेशां खोटा मार्गमां चालवावाळी स्त्री जोडानी माफक पुरुषने पोताना पग तळे दबावी राखे छे ॥. ६६ ॥ जे मूर्ख निर्दयचित्तवाळी स्त्रीओनो विश्वास करे छे ते भूखी थयली सर्पिणीनो विश्वास करे छे ॥ ६७ ॥ जेना घरमां दुष्ट स्त्री रहती होय तो ते सर्पिणी, तस्करी, दुष्ट हाथीणी, राक्षसी, डाकणनी माफक प्राणने हरवावाळी छे ॥ ६८ ॥ आ प्रमाणे हितवादी भट्टनां वचनो सांभळीने ते भ्रष्टवुद्धि बहुधान्यके ए सघळु कुरंगीने कही संभळाव्युं ॥ ६९ ॥ तेणीए कह्यु के हे स्वामी ! एने मारुं शीलभंग करवानी इच्छा हती, ते कारणथी ए मारो दुश्मन छ, माटे ए मारां दुषणो कहे छे ॥ ७० ॥ जे प्रमाणे समुद्र नाका वंगरनुं स्थान छे ते प्रमाणे आ दुष्ट भट्ट सघळा अन्यायोनी खाण छे, माटे हे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी, एने तरतज घरमांथी काढी मुकवो जोईए ॥ ७१ ॥ कुरंगीना आ वचनी ते हितैषीनो पण तिरस्कार थई गयो, जे ठीकज छे स्त्रीओनी आज्ञामा रहेवावाळा रक्तपुरुष ए, कयुं अनर्थ काम करता नथा? ॥ ७२ ॥ अबिचारी पुरुषोने आपलं सवचन पण सर्पने दुध पावाना जेवू महा भयकारी छे ॥ ७३ ॥ आ संसारमां हितरुप वचन कहेवा छतां पण ए शेठनी माफक निर्विचार रागान्धपुरुषोवडे प्रत्यक्ष दोषारोपण थाय छे ॥ ७४ ॥ जे मनुष्य हितैषी पुरुषोए कहेलु दुष्टशीलानुं चरित्रं तेज दुःशीलाने जईने कही दे छे ते बीजुं शुं नही करे ? एटले सघळु करशे ॥ ७९ ॥ मनोवेगे कयुं हे ब्राह्मणो ! आ प्रमाणे में दुष्ट चित्तवाळा रक्तपुरुषनी कथा संभळावी. हवे द्विष्ट पुरुषनी कथा कहुं छु ते सांभळो ॥ ७६ ॥ २॥ द्विष्ट पुरुषनी कथा. कोटी नगरमां स्कंध अने वक्र नामना बे जमीनदार खेडुत रहेता हता. तेमांथी वक्र नामनो खेडुत बहु वक्रपरिणामी हतो ॥ ७७ ॥ ते बन्ने खेडुतो एकज गामनी उपज खावावाळा हता, तेथी बन्नेमां परस्पर घणुं वेर थई गयुं, जे ठीकज छे कमके ज्यां बे चार मनुष्योने एकज प्रकारे द्रव्यनी अभिलाषा होय छे त्यां अवश्य वेर थई जाय छे ॥ ७८ ॥ प्रकाश चाहवावाळो कागडो अने नित्य अन्धकार चाहवावाळा घुवडनी माफक ते बन्नेमां स्वाभाविक दुर्निवार वेर थई गयुं ॥ ७९ ॥ एमांथी वक्र नामनो खेडुत हमेशां लोकोने बहु दुःख देतो हतो, ते नीतिज छे के Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेणे दोष बुद्धि धारण करी, ते मनुष्य कोने सुखदायक होय ? ॥ ८० ॥ एक वखत वक्र मोटा रोगथी पीडित थयो, ते नीतिज छे के 'जे पापि पारकाने दुखदायक होयं छे तेने कयुं दुख प्राप्त थतुं नथी ?॥ ८१ ॥ वक्रनी आवी अवस्था होवा छतां पण वक्रना पुत्रए कडं के पिताजी , तमे विशुद्ध मन करीने कोई एवा धर्मने धारण करो के जेनाथी आपने परलोकमां सुखनी प्राप्ति थाय ॥ ८२ ॥ परलोकमां मात्र सेंकडो सुख दुखना कर्ता आपणुं करलुं पुण्य पापरुप कर्मज साथे माय छे. पुत्र धन धान्यादिकमांथी कोई पण साथे आवतुं नथी ॥ ८३ ॥ हे पिता ! अन्तरहित मोटा लांबा मार्गवाळा आ संसाररुपी वनमा आत्मा सिवाय आपणुं अथवा पारकुं कोई पण नथी, ते माटे कुबुद्धि छोडीने कोई हितकारि कार्य करो ॥ ८४ ॥ मारी समजमां तो आप मित्र पुत्रादि कथी मोह छोडीने ब्राह्मण अने साधुओने माटे धनादिकनुं दान करो अने कोई इष्टदेव- स्मरण करो, के जेथी आपने सुखदायक गति प्राप्त थाय ॥ ८५ ॥ आ वचन सांभळीने वक्रए कह्यु के, हे पुत्र ! मारु एक हितरुप कार्य ( जे हुं कहुं छु ते ) करो. जे सुपुत्र होय छे ते पिताना पूज्य वाक्यर्नु उल्लंघन केदी करता नथी ॥ ८६ ॥ हे पुत्र ! मारा नीवतां तो आ स्कंध कदापि सुखी न थयो, परंतु बंधु, पुत्र, कुटुंब सम्पदासहित तेनो नाश हुं करी शक्यो नहि, माटे हे पुत्र, जेथी ए सह कुटुंब नष्ट थई जाय एवो कोई उपाय करजे. के जेथी हुं मनोहर शरीर धारण करीने प्रसन्नचितथी हमशांने माटे स्वर्गवास करी शकुं ॥ ८७८८ ॥ मारी समजमां एने माटे एवो उपाय करवो के-मारा मरी जवा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पछी मारी लासने स्कंधना खेतरमा लई जईने लाकडासाथे उभी करवी. ते पछी आपणा सघळा गाय भैस घोडाने तेना खेतरमा छोडी देवा, के जे तेना खेतरना सघळा धान्यनो नाश करी मुके. अने तारे कोई वृक्षनी ओथमां छुपाईने जोया करवू, ज्यारे स्कंध क्रोध करीने मारापर घात करे ते वखते तारे बीजा लोकोने संभळाववाने माटे जोरथी बूम पाडवी के स्कंधे मारा बापने मारी नांख्यो ॥ ८९-९० ॥ ज्यारे तुं आ प्रमाणे करशे त्यारे राजा स्कंधथी मने मरलो जाणीने स्कंधने कुटुंबसहित शिक्षा करशे अने एनी सघळी संपत्ति छीनवी लेशे. एटले ए स्कंध पुत्रसहित मरणने प्राप्त थई जशे ॥ ९१ ॥ ... आ प्रमाणे महापापरुप वचन कहतो कहतो ते वक्र मरी गयो अने तेना पुत्रए पण पितानी आज्ञानुं पालन कयु. जे नीतिज छे के पापकार्य करवावाळाना सहायक घणाओ थई जाय छे ॥ ९२॥ जे दुष्ट मरतां मरतां पण पारकाने सुखी जोवामां अधीरो छे, तेने निर्दयी यमराज सिवाय बीजो कोण छे के जे हितनी वात समजावी शके ? ॥ ९३ ॥ हे ब्राह्मण ! जे प्रमाणे वक्रए पोताना पुत्रए कहेला हितवचनोनो कई पण स्विकार न कर्यो, माटे ते वक्रना जेवा तमारामां जो कोई दुष्ट होयतो हुं हितरुप वचन कहेता डरूं छु ॥ ९४ ॥ जे पुरुष महाद्वेषरुपी अग्निथी दग्ध हृदयवाळा छे, ते पारकानी चिंता सिवाय सुखथी खाता नथी, सुता नथी अने पारकी सम्पतिने जोई शकता नथी एटले तेओ बन्ने लोकमां निर्मल सुख पामता नथी ॥ ९५ ॥ जे नीच निरंतर द्विष्टचित्त रहे छे अने तुच्छ अज्ञानी पारकी सम्पतिने जोई शकतो नथी, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ ते हमेशां बळता अन्तरहित नर्करुपी अग्निकुंडमां घणाकाळसूधी रहेवानो स्वीकार करी ले छे, परंतु पोताना दुष्ट स्वभावने छोडतो नथी ॥ ९६ ॥ जे मूर्ख हितवचनने छोडीने हमेशां तेथी उलटुंज ग्रहण करे छे, एवा दुष्ट चित्तना सामु बहु ज्ञानी माणसो कई पण वचन कहेता नथी ॥ ९७ ॥ आ प्रमाणे अमितगति आचार्यकृत धर्मपरिक्षा' संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाढीकामां पांचमुं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ ५ ॥ , Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ६ हुँ हे ब्राह्मणो ! तमे अग्निसमान तापकारी द्विष्ट पुरुषनी कथा तो सांभळी, परंतु हवे पाषाण समान नष्टबुद्धि मूढपुरुषनी कथा सांभळो ३॥ मूढ पुरुषनी कथा. यक्ष देवोना स्थान समान निधाननो खजानो देवालयोथी भरेलु कंठोष्ठ नामनुं एक नगर हतुं ॥ २ ॥ त्यां विनोथी पूजनीक वेद वेदांगनो जाणकार अर्थात् ब्रह्मानी माफक चार वेद छे मोंढे जेने एवो एक भूतमति नामनो ब्राह्मण रहतो हतो ॥ ३ ॥ ते धिरचित्तवालाने वेदादि भणतां भणतां पचास वर्ष तो बाल ब्रह्मचर्यावस्थामांज वीति गया ॥ ४ ॥ ते पंछी तेना कुटुंबी जनोए तेनो यज्ञनी अग्निशिखा समान उज्ज्वल, नारायणनी लक्ष्मि समान यज्ञा नामनी एक कन्या साथे विधिपूर्वक विवाह कर्यो ॥ ५ ॥ते भूतमति उपाध्यायनी पदवीमांज रहतो लोकोने भणाववाने आशक्त बुद्धिवाळो, सघळा ब्राह्मणोथी पूजनीय, यज्ञ कराववामां प्रवीण, भोगाभिलाषियोमां मान्य, ते यज्ञानी साथे अनेक प्रकारना भोग भोगवतो, स्थिर चित्तवाळो पृथ्विमा प्रसिद्ध विद्वान थई सुखथी रहतो हतो ॥ ६-७ ॥ एने त्यां भणवानी ईच्छाथी स्त्रिओना नेत्ररुपी भ्रमरोने कमळ समान युवावस्थानो धारक, यज्ञना जेवो पवित्र यज्ञ नामनो एक बटुक ( ब्राह्मणनो छोकरो) आव्यो ॥ ८ ॥ ते Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोकराने विनयवान अने वेदोना अर्थ ग्रहण करवामां चतुर जोईने ते भूतमतिए पोताने घेर शिष्य बनावीने राखी लीधो, जे तेणे मूर्तिमान अनर्थज जाणे ग्रहण कंरी लीधो ॥ ९ ॥ ए ब्राह्मणना छोकराने जोतांज यज्ञा तो विह्वल थई गई अने जे प्रमाणे घणो भार लाधेली गाडी एकदम अटकी जाय छे, ते प्रमाणे यज्ञानी आंखोनी द्रष्टि बीजा पदार्थोथी हठीने तेने जोवामाज स्थिर थई गई ॥ १० ॥ रती अने कामनी माफक ते बन्नेने हमेशां एकत्र रहेवारुपी जलथी सींचेलं इष्टफलदायक स्नहरुपी वृक्ष पण दररोज वधवा लाग्युं ॥ ११ ॥ दरिद्रनी सभा, सेवकनी प्रतिकूलता अने वृद्ध पुरुषने तरुण भार्या, ए त्रण कुलनो क्षय करवानुं कारण छे ॥ १२ ॥ परपुरुषमां आशक्त थयेली स्त्री सघळा दोष करे छे जे उचितज छे, वज्राग्निनी ज्वाला कोने आतापकारी होती नथी ?॥ १३ ॥ जे पुरुष स्त्रीने पोताना घरमां स्वतंत्र अने निर्गल करे छे ते साक्षात धान्यमां बळती अग्निनी ज्वालाने होलवतो नथी, कमेके ॥ १४ ॥ संभाळ न लीधेली स्त्री उदयने प्राप्त थईने वधेला असाध्य रोगनी माफक प्राणोनो क्षय करे छे ॥ १५ ॥ ए स्त्री सघळाने तृप्त करे छे, तथा सेवन करे छे, ए कारणथी एनुं नाम योषा छे. अने क्रोध करवावाळी छे, ए कारणथी एनुं नाम भामिनी छे ॥ १६ ॥ अने पोताना दोषोने ढांकी ले छे, ए कारणथी विद्वजन एने स्त्री कहे छे. एनाथी चित्त विलीन थई जाय छे, ए कारणथी एने विलया कहे छे ॥ १७ ॥ ए पापकार्योमां रमे छे, ए कारणथी एने रमणी कहे छे, ए कु एटले सघळी पृथ्विने मारे छे, ए कारणथी एने कुमारी कहे छे ॥ १८ ॥ ए लोकोने बल रहित करी दे छे ए कारणथी एने Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए अबला कहे छे. एनामां आशक्त थईने मनुष्य प्रमादी थंई जाय छे कारणथी एनुं नाम प्रमदा पण छे ॥ १९ ॥ अनेक अनर्थो करवामां प्रवीण स्त्रीओना आ सघळां नामज प्रगटरीते दुःखकारक वेदना समान दुःखोनां कारण छे ॥ २० ॥ अ रक्षित ( वशमां न करेली ) स्त्री मननी इच्छा प्रमाणे निरंतर दोषोज धारण करे छे, ए कारणथी स्त्रीओने हमेशां वशमां राखवी जोईए ॥ २१ ॥ जे पोतानुं हित चाहे छे, ते सत्पुरुष नदी, सर्पिणी, वाघण अने मृगलोचनी स्त्रिओनो विश्वास करता नथी ॥ २२ ॥ हवे एक वखते मथुराना ब्राह्मणोए कंई भेट आपीने पुंडरिक नामनो यज्ञ करावाने माटे भूतमतिने बोलाव्यो. जेथी तेणे पोतानी स्त्रीने क के हे यज्ञा ! घरनी रक्षा करती तुं तो घरनी अंदरज शयन करने अने आ बटुकने घरनी बहार बारणां आगल सुवाडजे, आ प्रमाणे कहने ते भूतमति मथुरा चाल्यो गयो | २३ - २४ ॥ पोतानो पति गया पछी ते पापीष्ट यज्ञाए पेला ब्राह्मणना छोकराने पोतानो यार बनावी लीधो ते नीति छे के सुना घरमा व्यभिचारिणी स्त्रिओनुं माटुं राज्य थई जाय छे ॥ २५ ॥ ते बन्नेनां परस्पर दर्शन स्पर्शन अने वारंवार गुप्त अंगो प्रकाशवाथी कामेच्छा, घृतना स्पर्शथी अग्निनी ज्वालासमान जलदथी तीव्रपणे ववी गई ॥ २६ ॥ घणे भागे सवळा प्रकारनी स्त्रीओ डे सघळा पुरुषोनुं मन हराई जाय छे, तो तरुण व्यभिचारिणी वडे तरुण व्यभिचारीनुं मन केमं न हराई जाय ? ॥ २७ ॥ ए कारणथी ते बटुक ते यज्ञाना पीनस्तनोथी पीडित थईने तेने निरंतर भोगववा लाग्यो, जे नीतिज छे के एवो कोण पुरुष छे, जे एकांतमां युवति स्त्री मेळवीने. पण वैराग्यने प्राप्त थई जाय ! ॥ २८ ॥ सुंदरतानी खाण ते यज्ञाने Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यंत आलिंगन करतो ते बटुक पार्वतीने आलिंगन करेला महादेवजीने तृण समान पण मानतो नहोतो ॥ २९ ॥ स्त्री पुरुषोने मेळववावाळो कोई दूत नथी अने संग कराववाने कामदेव पण जता नथी, एतो आंखोना कटाक्षाथी पोते पोतानी मेळेज तरत मळी जाय छे ॥ ३० ॥ खरेखर मदनयुक्त व्यभिचारिणी युवान स्त्री पुरुषने जोईन जो कई पण कर्या वगर बेसी रहे, तो एनाथी वधार आश्चर्य बीजुं शुं छे ? ॥ ३१ ॥ जे प्रमाणे अग्निना तापथी घीनो घडो पोतानी मेळेज पीगळी जाय छे, ते प्रमाणे स्त्रीवडे स्पर्शन करलो पुरुष तरतम मोहित थई जाय छे ॥ ३२ ॥ आ मनुष्य पोतानी स्त्रीवडे चहेरारुपी अमृतने पीने अनेक प्रकारना भोगोने प्राप्त थईने पण एकांतमां परस्त्री मळेथी तरत क्षेाभने प्राप्त थई जायछे ॥३३॥हवेआ बटुकतो कामथी पीडित मदोन्मत्ततरुण अवस्थानो धारक छे, माटे एकांतमा तरुण परस्त्री मळेथी केम क्षोभने प्राप्त नथाय॥३४॥ आ प्रमाणे दृढ प्रेमरुपी फांसीथी बांधेलु छे चित्तं जेनुं एवा बटुक अने यज्ञाने भोग समुद्रमा मग्न रहेतां चार महिना थई गया ॥ ३५ ॥ एक दिवस ते बटुकने उदास जोईने प्रेमना भारथी नम्रीभूत यज्ञाए कह्यु के,हे प्रभो ! आज तमे चिंतातुर केम देखाओ छो ? ते मने कहो ॥ ३६ ॥ बटुके कथु के, हे कान्ते ! तारी साथे लक्ष्मि अने विष्णुनी माफक सुख भोगवता घणा दिवस वीति गया परंतु-॥ ३७ ॥ हे तन्त्रि ! हवे भट्टजीने आववानो वखत पासे आवी गयो, माटे हवे शुं करुं अने मनने अतिशय प्यारी तने छोडीने हुं क्यां जाऊं॥ ३८ ॥ जो अहिंआं रहुं तो मोटुं दुःख छे, अने जो जाऊं छु तो मवाने माटे पग उपडतो नथी, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक तरफ नदीनो किनारो अमे बीजी तरफ वाघ छे, शुं करूं? आपदामां पड्यो छु ॥ ३९ ॥ यज्ञाए कयु के, तमे ए चिंता छोडी दो अने स्वस्थ थाओ, पोताना चित्तने बगाडो नहि, हुं जे कहुं छु ते करो ॥ ४ • ॥ हे सज्जन, आपणे बने घणुं द्रव्य लईने कोई बीजे गाम जईए तो सारी रीते मनोहर सुख भोगवतां आनंद करीशुं अने अत्यंत मुशीबते मळता एवा मनुष्य भवने सफळ करीशुं तथा जती जुवानीनो सारभूत मनोहर रस पीशुं ॥ ४१-४२ ॥ ए माटे हे प्यारे ! व्याकुलता छोडीने तमे बे मुडदा लावो. सघळाना जाणवामां न आवे एवो अहिंथी जवानो उपाय हुं करशि ॥ ४३ ॥ आ सांभळीने तेणे यज्ञानी सघळी आज्ञाओ प्रसन्नचित्तथी कबुल करी. ते नीतिज छे के कामिपुरुष एवा कार्योमां मूर्ख होता नथी ।। ४४ ॥ ए पछी बटुके रात्रे जईने स्मशानमांथी बे मुडदां ! लावीने घरमा क्या. ते उचितज छे स्त्री, कहेलं एवं कर्तुं साहस पुरुष करतो नथी ? ॥ ४५ ॥ ते यज्ञाए एक मुडदाने ओरडीमां अने बीजाने घरनी अंदर नांखीने सघळु धन लईने घरने आग लगाडी दीधी, अने ॥ ४६ ॥ शिकारीनी फांतीथी मृगनी माफक ते वस्तीमांथी तरत नीकळीने ते बनेए उत्तर तरफनो रस्तो लीधो ॥ ४७ ॥ ते सळगली अग्नि सघळा घरने बाळीने धीरे धीरे होलवाई गई. अने वस्तीना लोक पण फक्त रोखने जोईने विचार करवा लाग्या के ॥ ४८ ॥ जुओ : आ अग्निए सतिओमां अग्रणी गुणवती ब्राह्मणीने बटुक साहत केवां बाळी मूक्यां ?।। ४९ ॥ अंदरना अने बहारना बन्ने मुडदांनां हाडकां जोईने मनमाने मनमां चिंता करता ते सघळा माणसो पोत पोताने Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घेर चाल्या गया ॥ ५० ॥ आचार्य कहे छे के त्रण लोकमां एवं कोईपण छल कपट नथी के जेने कामथी भणावेली स्त्रीओ न जाणती होय ! ॥ ५१ ॥ मोहोल्लाना लोकोए मोकलेला कागळने जोईने ते मूढ बाह्मण आव्यो अने पोताना घरने बळेलुं जोईने विलाप करखा लाग्यो के,- ॥ १२ ॥ हे बटुक ! मारी आज्ञा पाळवावाळा, गुरुसेवामां चतुर एवो तने निर्दयी अग्निए केम बाळी मूक्यो ? ॥ ५३ ॥ तारा जेवा विनयवान पवित्र ब्रह्मचारी, चतुर अने शास्त्रोमां पार पडेला कुलीन यज्ञ बटुकने हवे क्यां जोऊ ? ॥ ५४ ॥ हाय ! मारी आज्ञामां रहेवावाळी ग्रहकार्यमां तत्पर एवी तुं पतिव्रता सुकुमारीने अग्निए केम बाळी मूकी ? ॥ ५५ ॥ हे कान्ते ! तारा जेवी गुणशील कळानी आधारभुत बहु लजावाळी पतिव्रता स्त्री कदी थशे नहि ॥ ५६ ॥ हे कृशोदरी ! हे चंद्रानने ! मारी आज्ञानुसार रहेकाळी जे तुं ते आवा दुःखने प्राप्त थई, माटे ए पापंथी मारी शुद्धि केम थशे ? ॥ ५७ ॥ हे । तन्वि ! पगथी कमळोने, जंघाओथी कामना बाण राखबानी. भातडीने, पीडीओथी केळना थंभने, जबननी शोभाथी रथना पैडांने , ॥ ५८ ॥ नाभिचिन्हथी जलना भ्रमणने, पेटयी वजनी शोभाने, स्तनोथी सुवर्णकुंभोने, कंठथी कमळनाळनी शोभाने,- ॥ ५९ ॥ मुखथी चंद्रमाना बिंबने, नेत्रोथी मृगीणीना नेत्रोने, ललाटथी आठेमना चंद्रमाने, केशोथी चमरीना पूछडांने, ॥ ६० ॥ वचनोथी कोकीलाने अने क्षमाथी पृथ्विने जीतवावाळी एवो तने याद करता हे कान्त ! मने क्यां सुख थई शके? ॥६१॥ हे कान्ते! तारी साथे दर्शन,स्पर्शन, हसन, मधुर भाषण करतां जोई यमराजे सघळु दूर Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी दधुं ॥ ६२ ॥ आ सुंदर कंठोष्ट नगरमां देवांगना समान कंठ होठ बगेरे अंगोथी सुंदर जे तुं, ते मने भोगत्रवाने माटे न मळी ॥ ६३ ॥ हे मृगाक्षी ! चकली मरत्रा पछी चकलानी माफक हवे तारा विना सुखनी आशा अने निर्वृत्ति क्यां ? ६४ ॥ आ प्रमाणे विलाप करता ते ब्राह्मणने एक ब्रह्मचारीए कह्युं केहे मूर्ख ! प्रयोजन नष्ट थया पछी हवे फोकट केम रडे छे ! ॥ ६५ ॥ पवनयी उडावेला सूका पांतरानी माफक जीव पण कर्मानुसार मळे छे अने जतो रहे छे ॥ ६६ ॥ जे प्रमाणे छूटा पडेला परमाणुओनो संबंध कदी थतो नथी ते प्रमाणे छुटा पंडेला जीवनो फरीथी संयोग थवो दुर्लभ छे ॥ ६७ ॥ रस, लोही, मांस, मेद, हाडकां, मज्जा, धातु वगेरेथी भरेला पातळी चामडीथी ढांकेला स्त्रीना शरीरमां मनोहर वस्तु कई छे? ॥ ६८ ॥ कदाच वयोगथी स्त्रीना शरीरनी बहारनी रचना को अंदर थई जाय अने अंदरनी रचना बहार थई जाय तो एनाथी आलिंगन कर तो दुर रहो, परंतु कोई देखतुं सरखं नथी ॥ ६९ ॥ हे मूढ ! लोही नीकळवानुं द्वार दुर्गन्त्रवाळु, वळी जेनुं नाम लेतां पण कंपारी आत्रे एवा विष्टाग्रह समान निन्द्य स्त्रीनी योनी केवी रीते उत्तम पुरुषोने स्पर्श करवा योग्य छे ! ॥ ७० ॥ खेद छे के - लाळ, खोखार, कफ, दंतम अने कीडानुं घर एवा स्त्रीना मुखने कविओवडे चन्द्रमानी उपमा केम अपाय छे ? ॥ ७१ ॥ व्रणनी माफक मांसना पिंड एवा जे स्त्रीना स्तनो छे, तेने तिक्ष्णबुद्धि पंडितो सुवर्णना कलशोनी उपमा केम आपे " ? ? ॥ ७२ ॥ घळा अशुचि पदार्थोंनी खाण विचित्र छिदवाळी स्त्री Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषोनो संग विष्टाना बे घडा समान होय छे ॥ ७३ ॥ कामिनिरुपी नदी रागरुपी कल्लोल संपदाथी माणसरुपी झाडने पाडी लई जईने संसाररुपी समुद्रमा पटके छे ॥ ७४ ॥ए स्त्री नीच पुरुषोने मोहित करीने नरकमां नांखी दे छे अने तेनी साथे पोते जती नथी, एवी स्त्रीने पंडितो केम सेवन करे छे ? ॥ ७९ ॥ ए भोगवेला दुष्ट भोग छे, ते लाकडांने अग्निनी माफक हृदयने बाळ्या करे छे, ते माटे एना वो बीजो शत्रु क्यां छे ? ॥ ७६ ॥ नाश करी दीधो छे सघळो विवेक नेणे एवी मदिरा समान स्वीथी मोहित थयलो जीव, पोतानुं भलुं बुरुं जाणतो नथी. ते प्रगटज छे ॥ ७७ ॥ आ स्त्री छे, आ पुत्र छे, आ माता छे अने आ पिता छे, एवी बुद्धि कर्मने वशीभुत मूढोनेज होय छे ॥ ७८ ॥ जे संसारमा जन्मथी लईने पालन पोषण करता करतां मनुष्यनो देहम नष्ट थई जाय , ते संसारमा स्त्री पुत्र धनादिकमां निर्वाह केवो ? ॥ ७९ ॥ आ प्रमाणे ब्रह्मचारीना उपदेशथी ते भुतमति मूढ शोक शान्ति करवाने बदले उलटो क्रोधित थईने नीचे प्रमाणे कहेवा लाग्यो. ते उचितज छे के-मूढ चित्तवालाने विद्वानोए आपेलो उपदेश तथा जाय छे ॥ ८ ॥ हे ब्रह्मचारी ! जो स्त्री एवी अत्यंत निंद्य होत तो सघळा मार्गमां विचक्षण चितवाळा ब्रह्मा विष्णु इन्द्रादिक, स्त्रीने हृदयनो हार केम बनावते ? ॥ ८१ ॥ हे ब्रह्मचारी ! जडजेता अशोकादी वृक्ष पण जे स्त्रीने छोडता नहोता, तो सघळा प्रकारना सुख आपवामां चतुर एवी स्त्रीओने आ पुरुष केवीरीते छोडी शके ॥ ८२ ॥ ए पुत्ररुपी फळ आधे Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ छे, संवळा परिश्रमने दूर करे छे, जेनुं शरीर कोई प्रकारे पण निंद्य नथी. बीजुं तो शुं? आ लोकमां स्त्रीओ सिवाय इन्द्रिओने सघला प्रकारनं सुख आपवावाळी बीजी कोई पण वस्तु नथी ॥ ८३ ॥ हे ब्रह्मचारी ! जो स्त्रीओना सेवनथी सवळा पुरुष गांडा थई जाय छे तो शुं आ जगतमां विचारवान नथी ! एटले तमारा मूर्खज छे, माटे एवं कदापि ? स्त्री संगधी रत थयलो पुरुष कोई पण कहवा प्रमाणे तो स्त्रीवाला सघळा पुरुष नथी ॥ ८४ ॥ पोत पोताना मनने प्रिय जे जेने रुचे तेम कहो. जगतमा साना विचार जुदा जुदा छे, ते अनिवार्य छे, परंतु मारो मत तो संशय रहित एज छे के ससारमां स्त्रीना जेवी सुखकारी वस्तु बीजी कोई पण नयी ॥ ८५ ॥ आ प्रमाणे कहीने ते मूढ ब्राह्मण पोते बे तूंबडी लईने एकमा भियतमानां हाडकां अने बीजामां बटुकना हाडकां भरीने गंगाजीमां नांखवाने माटे घणो जलदथी चालवा मंडी गयो ॥ ८६ ॥ रस्तामां जतां कोई एक नगरमां तेनो ते नीच शिष्य बटुक मळी गयो. गुरुने जोईनेज तेनुं सवकुं शरीर कांपवा लाग्युं, लाचार, गुरुने पगे पडीने ते बटुक हे त्रिभो ! मारो अपराध क्षमा करो आ प्रमाणे प्रार्थना करवा लाग्यो ॥ ८७ ॥ ते ब्राह्मणे पूछयुं के, तुं कोण छे ? त्यारे वणा नम्र स्वभावथी बटुके कयुं के, हे विभो ! आपना चरणकमलोना सेवनथी छे जीवन जेनुं एबो, हुं आपनो यज्ञ नामनो बटुक हुं ॥ ८८ ॥ आ प्रमाणे सांभलीने ते मूढ ब्राह्मण कहेवा लाग्यो के, अरे ! ते मारी चतुर बटुक क्या ? ते तो बळी गयो. तुं तो कोई बीजोज ठग छे. जे मूर्ख तारी लगाईने न समजे तेवाने जईने ठग. अहिं तारो दाब वालशे नहि ॥ ८९ ॥ आ प्रमाणे कहने ते कोई Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजे गाम पहोंच्यो, तो त्यां दैवयोगथी तेनी प्रियतमा दुष्ट यज्ञा अचानक मली गई. ते पण भयथी थरथर कांपती ते ब्राह्मणने पगे पडीने आ प्रमाणे कहवा लागी के,-॥९० ॥ हे प्रिय ! तारुं सघळु धन अनामत छे. हे गुणानिधान ! आ अपराधने क्षमा करो केमके जेतुं चित्त पोतानाज पाप कार्योथी कंपायमान छे तेनापर शुभमति पुरुष कदापि कोप करता नथी ॥ ९१ ॥ आ प्रमाणेनां वचन सांभळीने ते मूढे यज्ञाने पूछयुं के, तुं कोण छे ते कहे. त्यारे यज्ञाए कह्यु के-- हुं आपनी यज्ञा नामनी ब्राह्मणी छं. ब्राह्मणे कडं के, ते प्रियतमा यज्ञा तो आ तुंबडीमां छे तो पछी बहार तुं केम आधी ? ॥ ९२ ॥ आ नगरमां जो तुं मने भोजन पान नहि करवा दे तो ले हुं बीजा नगरमां जाऊं छु . एम कहीने नष्ट थई गई छे सवला विचारोमां बुद्धि जेनी एवो ते ब्राह्मण गुस्से थईने तेज वखत बीजा नगरमां चाल्यो गयो ।। ९३ ॥ जे मूढ चित्तवालाने खुल्ला पदार्थोमां निश्चयपणुं मालुम पडतुं नथी एवा निर्विचार पुरुषने, मूढोनुं विशेष प्रकारथी मर्दन करवावाला यमराज सिवाय बीजं कोण समजावी शके छे ? ॥ ९४ ॥ जे ज्ञानरहित मूह पुरुष छे, तेओ संसारना भयने नष्ट करवावाला, स्थिर मोक्ष सुख आपवावाला शुद्धमतिनो छे विस्तार जेमनामां एवा, ' अमितगति वचनं । एले सम्यकज्ञानी पुरुषोनां निर्मल वचनने हृदयमा धारण करता नथी. ए. कारणथी ते सुधीजन पोताना हृदयमांज राखे छे ।। ९५ ॥ ___आ प्रमाणे अमितगति आचार्यकृत 'धर्म परिक्षा ' संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषा टिकामां छईं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ ६ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪. प्रकरण ७ मुं ए पछी मनोवेगे कंके हे ब्राह्मणो ! उपर प्रमाणे विवेक रहित मूढ पुरुषनी कथा तो तमने कही. हत्रे पोतनाज अभिप्रायमा दृढ एवा व् युद्धाहि ( हठीला ) पुरुषनी कथा कहुं हुं ते सांभळो. ॥ १ ॥ 1 ४ । व्युद्धाहि मृढ पुरुषनी कथा | एक बखत नंदुरद्वारी नामनी नगरीमां दुर्द्धर नामनो एक राजा हतो, तेने जन्मधी आंधळो जात्यन्ध नामनो एक पुत्र थयो || २ || ते मोटो थयेथी दररोज भीखारीओने पोतानो हार, कंकण, केयुर, कुंडलादि आभुषणो दान कर्या करतो हतो || ३ || आ प्रमाणे कुमारनुं अलौकिक दान जोईने राजाना मंत्रीए राजाने कह्युं के, हे राजा ! कुमार साहेबे तो सघळो खजानो दान आपीने खाली करी दीधो ॥ ४ ॥ त्यारे राजाए कयुं के - हे सत्पुरुष ! जो एने घरेणां न आपीए तो ए हमेशां भोजननो त्याग करी देशे, त्यारे हुं शुं करूं ! ॥ ५ ॥ मंत्रीए कह्युं के हुं एनो कोई पण उपाय करीश. राजाए कह्युं के हुं ना कहेतो नथी ॥ ६ ॥ ते पछी मंत्रीए लोढाना घरेणां अने जरूर कोई उपाय कर, याचकोने मारवाने माटे एक लोखंडनी डांग लावीने राजकुमारने आपी अने कहां के, - ॥ ७ ॥ हे तात ! आ घरणां पंडितोबडे पूजवा लायक कुलक्रमथी आवेला छे, माटे एने पहेरो अने ए चरणां कोईने पण आपशो नाहि. जो आपशो तो तमारुं राज्य नाश पामशे ॥ ८ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे कोइ एने लोढार्नु कहे तेना माथामां आ डांग मारवी. कोइ प्रकारनी दया अथवा करुणा करवी नहि ॥ ९ ॥ आ प्रमाणे मीना कहेलां वचनोनो कुमारे स्विकार कयों. आ जगतमां एवो कोण छे के जे. चतुर पुरुषोना कहेलां वचनने न माने? ॥ १० ॥ एपछी ते राजकुमार खुशी थइने लोढानी डांग लइने बेसी गयो. ॥११॥ एनी पासे आवीने जे कोई कहेतो के आतो लोढानां घरेणां छे, त्यारे ते तेन वखते तेना माथामां लोढानी, डांग मारतो हतो, जे ठीकज छे जेनी व्युदाहि मति थई गइ, ते नीच सारं काम क्याथी करेः ॥ १२ ॥ जे पुरुष पोताना इष्ट जननां कहेलां सघलां वचनोने सारां अने बीजानां कहेला सघळां वचनोने नठारां माने छे, ते अधमने कोण समनावे? ॥१३॥ में पुरुष जात्यन्धनी माफक बीजानां वचनने विचारतो नथी, तेने पंडीतोए पोतानाज आग्रहमां आशक्त बुध्धि (व्युदाहि) कह्योछे ॥ १४ ॥ मनोवेगे कह्यु के हे ब्राह्मणो, कदापि सुमेरु पर्वत तो हाथना आचकाथी तोडी शकाय परंतु व्युदग्राही पुरुष वचन वडे कोई प्रकारे पण समजावीशकातो नथी॥१५॥ जे प्रमाणे जात्यंन्धे सोनामयी आभूषण छोडीने लोढानां आभूषण पहेर्थी, ते प्रमाणे अज्ञानरुपी अंधकारथी आंधळो पुरुष उ.तम वस्तुने छोडीने नठारी ने ग्रहण करे छे ॥ १६ ॥ जे मूढ हमेशां असुंदरने सुंदर माने छे, तेनी आगळ बुद्धिमान पुरुष सुंदर वचन कादि कहता नथी ॥ १७ ॥ आ सघळा लोक कामार्थी पुरुषोथी ठगाय छे, ते माटे शुद्ध बुध्धि सत्पुरुषोए ए वातने हमेशा विचारता रहेवी जोइए ॥ १८॥ मनोवेगे कह्यु के हे प्राह्मणो! में ब्युद्वाहि ( हठयाहि ) नुं वर्णन तो कर्यु. हवे पि-तदूषित मूढनी कथा कहुंछु, ते एकचितथी सांभळो ॥ १९ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५॥ पि-तषित मूढपुरुषनी कथा। कोइएक पुरुष प्रज्वलित अग्निनी माफक सखत पी-तज्वरना रोगथी विह्वल शसिर थइ गयो ॥ २० ॥ तेने अमृतना जेवु पवित्र पुष्टि आपवा वाळु खांड मेळवेलुं दुध आपवामां आव्युं ॥ २१ ॥ ते अधमे तेने कडवा लोमडानी समान मान्यु, ते ठीकज छे. केमके प्रकाशमान सूर्यना प्रकाशने घुवड तो अंधकारज मानेछे ॥ २२॥ ए प्रमाणे मिध्याज्ञानरुपी महातीव्र ज्वरथी व्याकुल छे. आत्मा जेनो एवो, जे काइ मनुष्य योग्य अयोग्यने विचारवावाळो न होय, तेने शांतिदायक जन्म मृत्यु जरानो नाश करवावाळा अत्यंत दुर्लभ अमृत समान वस्तुनुं स्वरुप कहे तो ते, ते वस्तु स्वरुपने जन्म मृत्यु जराने करवावाळा, भ्रान्तिकारक चेतनाने नष्ट करखावाळा, सहेला कालकूट समान माने छे ॥ २३-२४ ॥ २५॥ ए कारणथी जे पुरुष हमेशां योग्यने पण अयोग्य जुए छे तेज अवज्ञाथी व्याकुलचित्त पि-तदूषित मूढ पुरुष कहेवाय छे॥ २६ ॥ ए प्रमाणे जे ज्ञान रहित पुरुष न्यायने अन्याय माने तो तत्व विचार करवावाळा पंडित जनोए तेने कंइ पण उपदेश करवो जोइए नहि ॥ २७॥ ए प्रमाणे में विपरित आशयवाळा पित्तदूषित मूढ पुरुषने प्रगट कर्यो. हवे आपने आम्रमूढपुरुषनी कथा कहुंछु ते सावधानता पूर्वक सांभळो ॥ २८ ॥ ६। आम्रमूढ पुरुषनी कथा । स्वर्गमां देवोवडे पूजित सुंदर अप्सराओथी रमणीय मनोहर मंदिरवाळी अमराधती नगरीना जेवा अंगदेशमां चंपावती नामनी एकनगरी छे ॥ २९ ॥ ते नगरीमा स्वर्गमां देवोवडे सेवनीय इन्द्रनी समान, नम्रीभूत Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगटवाला राजाओथी सेवनीय नपशेखर नामनो राजा राज्य करतो हतो ॥ ३० ॥ ते राजानी पासे तेना प्रियमित्र वंगदेशना राजाए सघळा रोग अने घडपणने नष्ट करवावाळु, साधारण मनुष्योने अनेक प्रकार नी सेवा करवा योग्य, रत्नत्रय समान पूजनीय, बीना लोकोने दुर्लभ, हृदयग्राहि, मनोहर स्त्रीना यौवनना जेवू सुखकारी, सुंदर अने मुखदरुप रस गन्ध अने स्पर्शथी आनंदित कर्या छे मनुष्यनां ह्रदय जेणे, तथा पोतानी सोरमवडे आकर्षण कयों छे भ्रमरोनो समूह नेणे एवं एक आम्रफळ ( केरी ) मोकल्युं ॥ ३१ - ३२ - ३३ ॥ तेने देखतांज ते राजा घणो हर्षित थयो, ते ठीकन छे सुंदर पदार्थों जोवाथी कोने हर्ष थतो नथी? ॥ ३४ ॥ सघळा रोगोनो नाश करावाळी आ एकन केरीनो सघळा लोकोने माटे विभाग थइ शके नहि ते माटे जेथी ए बहु थइ जाय एवो उपाय करूं. आ प्रमाणे विचार करीने राजाए ते केरी एक चतुर माळीने आपीने कह्यु के हे भद्र ! जेथी आ केरी अनेक फलोने उत्पन्न करवावाळी थइ जाय एवो उपाय कर अने कोइ उत्तम वनमां लइ जईने एने वावी दे ॥ ३५-३६-३७ ॥ वृक्षारोपण विद्यामां प्रवीण ते माळीए नमस्कार करीने एमेज करीश, ए प्रमाणे कहीने ते केरीने बागमां वावीने उछेरवा लाग्यो ॥ ३८ ॥ ते वृक्ष सज्जन पुरुषनी माफक जलदीथी मोटी सुंदर छाया अने माटां मोटा असंख्य फलोथी सवळाने खुशी करवावाळु बहु माटुं थइ गयुं ॥ ३९ ॥ दैवयोगथी कोइएक पक्षी एक सर्पने लईने जतुं हतुं तेनुं झेर ते आंबाना एक फल उपर पडयु ॥ ४०॥ ते मिंदनीक झरना संयोगथी ते आनफळ पाक ने Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंखने आनंदकारी मनोहर थइ गयुं ॥ ४१॥ घणो मोटो अन्याय करवाथी पूजनीक मोटा कुळनी पडतीनी माफक ते केरी झरना तापथी पाकट थइने जलदीथी जमीन उपर टूटी पडी ॥ ४२ ॥ तुष्टचित्त वनपाळे सघळी इन्द्रिओने हर्षित करवावाळा ते फळने लावीने राजाने अप्युं ॥ ४३ ॥ राजाए व्याकुलतापूर्वक ते प्राणहारी झेरथी पाकेला मनोहर फळने जोइने पोताना युवराज पुषने आप्युं. राजपुत्रे प्रसाद एम कहीने लीधुं अने. घोर:: कालकुट झेरनी समान तेज वखते खाइ लीधुं ॥ ४४ – ४५ ॥ ते राजपुत्र फल खातांना साथेज मरण पाम्यो. ते उचितज छे. दुष्ट चीज सेवा करेली कोना जीवने हरती नधी? ॥ ४६ ॥ राजाए षोताना पुत्रने मरेलो जोइ क्रोधित थइने बागनी शोभा राखवावाला ते आम्र वृक्षने (आंबाने) तेज वखते कपावी नांख्युं ॥ ४७ ॥ खांसी, शोष, कोट, वमन, शूळ, क्षय, श्वास वगेरे दुःसाध्य रोगोथी पीड़ाता जीववाथी केटाळेला पुरुषोए सांभल्युं के :-राजाए झेरी आम्रवक्षने कपावी नांख्युं छे, तेथी ते सघळाए मरवानी इच्छाथी तेनां काचां फळ लावीने खावां मांड्या. परंतु ते खातां सायेज ते सघळा रोगी तरत रोग रहित थइने कामदेवना जेवा सुंदर थइ गया ॥ ४८-४९-५० ॥ राजाए ए वात सांभळी त्यारे आश्चर्य थइ ते रोगीओने बोलावीने तेमने प्रत्यक्ष ओइने घणो अनिवार्य पश्चाताप कर्यो ॥५१॥ हाय! विचित्र पांतराओथी पृथ्वी मां मंडल- भूषण सवळा प्रकारना वांछितफलने आपवावाळा, चक्रवर्तिनी माफक छे उदय मेनो एवा उंचा आंबाना झाडने विचार रहित कोषयी अधचित थइने में जडसाथे केम कपावी नांख्युं ॥१२॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६३ ॥ हाय! में दुद्धिए ते फल वगर विचारेज कुंवरने केम आप्पु? कदाच आप्युं तो जमीन उपर पडेलु केम आप्यु! आभ्रफळ तो बिचारु रोमनु नाशकज हतुं ॥ ५४॥ आ प्रमाणे दुर्निवार वज्राग्निनी माफक पश्चात्तापथी संतापवालो थईने ते राजा मनमानेमनमां दररोज झुरावा लाग्यो ॥ ५५ ॥ जे पुरुष आगळ पाछळनो विचार कर्या वगर काम करे छे, ते आम्रनाशक राजानी माफक मोटा पश्चातापने प्राप्त थाय छे ॥५६॥ ने कोई मूर्ख वगर विचारले कांई काम करे छे, तेनां सघळां सारां कार्यनो तरतज नाश थइ जाय छे ॥ १७ ॥ क्रोधथी लवलिन छे चित्त जेनुं एवा निर्विचारी पुरुषने बन्ने भवमा सघळा प्रकारनां दुःख प्राप्त थायछे ॥ ५८ ॥ आ प्रमाणे निविकीपणाना दोषोने जाणीने हृदयमा उभयलाक सबंधी सुख आपवावालो। विवेक राखवो जोइए ॥१९॥ ने विद्वान पोतानुं हित चाहे छे, तेणे द्रव्य, क्षेत्र काल भाव युक्त अयुक्तभां तत्पर थइने हमेशां विचारीने काम करवू जाइए ॥६० ।। मनुष्य अने पशुमां एटलोज तफावत छे के मनुष्यने तो सारां माठांनो विचार होय छे, परंतु पशुने होतो नथी. एथी जे पुरुष विचार राहत छे, ते पशुसमान छे ॥ ६१ ॥ हे ब्राह्मणो! आ प्रमाणे पूर्वापर विचार रहित आम्रघाती मूर्खनी कथा में संभळाव्वी, हवे क्षीरमूर्खनी कथा कहुछु, ते सावधान थइने सांभळो ॥१२॥ ७। आम्रमूढनी कथा। प्रसिद्ध छोहार नामना देशमां समुद्रना व्यापारनो जाणातो जलयात्रा करवामां चतुर सागरदत्त नामनो एक वाणक हतो ॥६३ ते वाणक एक वखते वहाणमां बेसीने नक्र मगर ग्रहादिथी भरेला एवा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र पार थइने व्यापारार्थे चौलद्विपमा पहोंच्यो ॥ ६४ ॥ ए वाणिके, धेरथी नोकळती वखते जिनेश्वरनी वाणी समान सुख आपवामां चतुर, दुध आपती एक गाय पण पोतानी साथे लइ लीधी हती ॥६५॥ ते व्यवहार चतुर वीके चौलद्वीपमां पहोंचीने कंइ भेट लइने द्वीपना धणी तोमर वादशाहनां दर्शन को ॥ ६६ ॥ बीजे दिवसे ते वीके शरीरमां कान्ति वधारवावाळी अम्रत समान अतिशय स्वादिष्ट खीर लइ जइने बादशाहने भेट करी ॥ ६७ ॥ बीजा एक दिवसे ते वणिके अमृतसमान दुर्लभ शालिधान्यना उत्तम चावल ( भात ) बनावीने सुंदर दही साथे भेट करीने दर्शन कयीं ॥ ६८ ॥ कमके ते देशमां गाय भैस थती नहोती अने दुध पण थतुं नहोतुं, तेथी अपूर्व उज्वल आहारने खाइ खुशी थइने, तोमर बादशाहे ते वणिकने पूछयुं के,॥ ६९ ॥ हे वणिकपुत्र ! तमने एवं सारु भोजन क्याथी मळे छे ? त्यारे वणिक कर्वा के, हजुर ! मारी पासे एक कुळदेवी छे, ते एवो आहार आपे छ ॥ ७० ॥ ते पछी म्लेच्छनाथ तोमर बादशाहे वणिकने कयुं के हे भद्र ! ते तमारी कुलदेवता हमने आपी दो ॥ ७१ ॥ आ वात सांभळीने वणिके कयुं के हे द्विपपति ! जो तमे मने में मान्युं धन आपो तो हुँ मारी कुलदेवता तमने आपी शकुं. ॥ ७२ ॥ त्यारे तोमर बादशाहे कर्वा के-हे भद्र ! बेशक मन चाहे तेटलुं द्रव्य लइ जाओ, अने ते कुलदेवता हमने आपी जाओ ॥ ७३ ॥ ते पछी वणिके ते बादशाह पासेथी मों माग्या रुप्या लइने ते गाय आपी दीधी, अने बहाणमां बेसीने समुद्रपार थइने पोताने देश चाल्यो Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयो ॥ ७४ ॥ बीजे दिवसे सपारमाज बादशाहे ते गाय आगळ एक पासण धरीने कयुं के हे कुलदेवता ! जे दिव्य आहार पेला वणिकने आपती हती, ते मने पण आप परंतु॥ ७९ ॥ मूर्ख कामिनी पुरुषनी आगळ चतुर विलासिनी नायिकासमान ते . गाय चुपचुपज उभी रही ॥ ७६ ॥ ज्यारे ते गायने गुपचुप उभेली जोइ त्यारे बादशाहे फरीथी कयुं के हे कुल देवता ! प्रसन्न थइने मने सुंदर भोजन आप. भक्तनी इच्छा पुरी कर ॥ ७७ ॥ फरी पण तेणीने गूपचुप उभेली जोइने बादशाहे विचार्यु के आजे तो ए एना शेठने संभारती हशे, माटे काले सवारे आपशे. वारु ! हे देवी, आज तो तुं निराकुलताथी रहे ॥ ७८ ॥ बाजे दिवसे पण ते गायनी पासे एक मोटुं वासण घरीने बादशाहे कयुं के हे देवी ! आज तो तुं स्वस्थ थइ गइ, हवे मने इंछित भोजन आप ॥ ७९ ॥ परंतु गाय तो चुपज उभी रही. ते बिचारी शुं आपे अने शुं बोले? आ प्रमाणे तेने चुप जोइने बादशाहे क्रोधित थइने नोकरो पासे ते गायने पोताना द्विपनी बहार काढी मुकावी ॥ ८० ॥ जुओ ! आ वादशाहनी केवी मूर्खता छे के जे एटली वात पण समजतो नथी के फक्त मांगवाथी कोइ गाये कदी काइने दूध आप्युं छे ? ॥ ८१ ॥ दूध आपती ते सारी गायने म्लेच्छ बादशाहे फोकट काढी मूकी. ते नीतिन छे, के मूर्खना हाथमां गयटु रत्न पण तथा जाय छे ॥ ८२ ॥ जो के पाषाणमा सोनुं छे, परंतु ते पाषाणमांथी काढवानी रीत जाण्याविना ते मेळवी शकातुं नथी, तेज प्रमाणे गाय पण विधिपूर्वक लीधा विना पोताना पासवें दूध कदापि आपी शकती नथी ॥ ८३ ॥ आ कार्य केवी रीते Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशे, तेमा हानी केवी थशे, अने वृद्धि केवी रीते थशे, आ प्रमाणे में पुरुष हमेशां विचारतो नथी, ते बन्ने लोकमां दुःखन भोगवे छे ॥ ८४ ॥ जे नीच पुरुष अहंकारी थइने पोताना मनमा सारभुत विचारने स्थान आपता नथी ते पेला बादशाहनी माफक मानमर्दित थइ पोतानां कार्यनो नाश करेछे. अने ते पुरुष बुद्धिमानोए त्यागवा योग्य छे ॥ ८५ ॥ ते नष्टबुद्धि म्लेच्छ राजाए ते गायने असह्य पीडा आपी. ते ठीकन छे. मूर्खनी सोबत करवावाळा अनिगर्य समस्त दोषोने प्राप्त थाय छे ॥ ८६ ॥ आ संसारमा मूर्खतासमान कोइ अंधकार नथी अने ज्ञान समान कोइ प्रकाश नथी, तेज प्रमाणे जन्म मरणनी समान कोइ शत्रु नथी अने मोक्ष समान कोइ मित्र नथी ॥ ८७ ॥ कदाच सूर्य होवा छतां अंधकार थइ जाय, अथवा सूर्यमां शीतलता अने चन्द्रमां उष्णता थइ जाय, परंतु मूर्खमां कदी विचारशक्ति होती नथी ॥ ८ ॥ सिंहादि हिंसक प्राणीओथी भरेला वनभां फरवू, सर्पनी सेवा करवी, तथा वनाग्निमां बळी जर्बु श्रेष्ठ छे, परंतु मूर्ख माणस तो कदी क्षणभरपण सेवा करवायोग्य नथी ॥ ८९ ॥ जे प्रमाणे आंधळा आगळ नाचवू, बहरा आगळ गावं, कागडाने पवित्र करवो, मुडदांने भोजन आप,नपुंसकने स्त्री होवी नकामी छे, ते प्रमाणे मूर्खने आपलं सुखकारी रत्न पण नकामुं जाय छे ॥९० ॥ ए गाय मने दूध केवी रीते आपशे, ए प्रमाणे न पूछीने जे बादशाहे बहु धन आपी गाय लइ लीधी, माटे ते म्लेछाधिपति ना जेवो बीजो कोण मूर्ख छ ? ॥ ९१ ॥ जे पुरुष ते वस्तुना जाणकारने तो पूछे नहि, अने ते वस्तुने धन आपीने खरिदे, तो ते मूढ भयानक वनमा मूल्य लेवानी इच्छाथी चोरोने रत्न वेचेछे ॥ ९२ ॥ जे विवेकी सतू Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 पुरुष बन्ने लोकमां सुखनी इच्छा राखे छे, तेमणे मान छोडीने भजाम्युं कार्य पूछीने विधिथी साधन कर मोइए ॥ ९३ ॥ जे दुर्बुद्धि राग द्वेष मोह काम क्रोध मान लोभ अने मूढताने वश थइ हिताहितनो विचार करतो नथी ते पोते पोताना मस्तक उपर वज्रपात करे छे ॥ ९४ ॥ जे दुर्विदग्ध ( मिथ्या ज्ञानथीज पोताने पंडित समजवाबाळी ) पुरुष दुर्भेव गर्वरुपी पहाडना शिखरपर चढाने कोइ बीजाने पूछतो नधी, ते तोमर बादशाहनी माफक हाथमां आवेला पवित्र रत्नोनो नाश करे छे ॥ ९९ ॥ जे विनयवान पुरुष हमेशां पूछीने, पोताना मनमां सारीरी विचार करीने, याद करीने युक्त अयुक्त कार्य करे छे, ते विस्तार यशवालो मनुष्य, मनुष्य अने देवगतिनुं सुख मेळवी केवळ ज्ञानतो धारक थइने आपदारहित निर्वाण पद पामे छे ॥ ९६ ॥ आ प्रमाणे अमितगति आचार्य कृत 'धर्म परिक्षा' नामना संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषा टीकामां सातमुं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ ७ ॥ < Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ८ मुं. अत्यार सुधी ( है ब्राह्मणो !) अज्ञानी म्लेच्छ राजाए मेळवेली क्षीरनो जे प्रमाणे नाश कर्यो ते तमने कह्युं. हवे अगुरु करीने तेनो नाश कर्यो तेनी कथा कहुं हुं ॥ चंदन प्राप्त १ ॥ ८। अगुरु चंदन मूढनी कथा । मगध 'देशमां बैरीरूपी मदोन्मत्त हाथीना कुंभने भेदवाने माटे. सिंह समान गजरथ नामनो एक राजा हतो ॥ २ ॥ ते राजा अनेक प्रकारनी क्रीडा करवावाळो हतो, ते एक वखते क्रीडाने माटे वनमां गयो त्यां सेनाने छोडीने मंत्री साथे बहु दूर नीकळी गयो || ३ || त्यां वनमा पहेलांथी आगळ उभेला एक नोकरने जोइने राजाए मंत्रीने पूछयु के - ए कोण छे? अने कोनो नोकर अथवा कोनो पुत्र छे ते मने कहो ॥ ४ ॥ त्यारे मंत्रीए कघुंके हे राजा! आपना हरि नामना महत्तरनो पुत्र हालिक नामनो आपनो ताबेदार सेवक छे ॥ ५ ॥ आपना चरणकमळनी रोज क्लेशकारक सेवा करता करता आज एने बार वर्ष थइ गयां ! ॥ ६ ॥ आ वात सांभळीने राजाए मंत्रीने कधुं के हे भद्र ! तें आज सुधी एना क्लेशनुं कारण मने कह्युं नहि ते घणुं खोटुं कर्यु ॥ ७ ॥ लश्करने दुःख छे अथवा नथी, कोण सारी सेवा करे छे, कोण नथी करतो बगेरे सघळी वातो मंत्रीए जाणीने राजा आगळ कहेवी जाइए ॥ ८ ॥ स्वाध्याय करता रहेवुं ए साधु पुरुषोनुं कर्तव्य छे, घर काम क Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए स्त्रीओनुं अने राज्यकार्य क एमंत्रीओनुं काम छे, माटे ए त्रणे वातोने दररोज विचारता रहेवी जोइए ॥९॥ए पछी राजाए प्रसन्नचित्त थइने हालिने कर्तुं केः-संकराट नामनो उत्तम मुलक छे ते तमने आपुं छु तेनो स्वीकार करो ॥ १०॥ हे भद्र! ए मुलक कल्पवृक्ष समान मनवांछीत फळने आपवावाळो बीजा पांचसो गाम सहित बहु सारो छे, ते तमे स्विकार करो ॥ ११ ॥ आ वचन सांभळीने हालीए राजाने कह्यु के हे देव! हुं तो एकलो छु, बह गाम लइने शुं करीश? ॥ १२ ॥ एतो तेनेज ग्रहण करवा योग्य छे के जेने लश्कर अने प्रबंध करवावाळा हजारो सेवक होय ॥ १३ ॥ त्यारे राजाए कह्यु के हे भद्र! मनोहर गामोमां हमेशां रहेवाथी तेमां पोतानी मेळे प्रतिपालन करवावाळा सेवको थई जशे, केमके-॥१४ ॥ गामोथी धननी प्राप्ति थाय छे, धनथी नोकर चाकरोनो समूह थाय छे, अने नोकर चाकर राजानी सेवा करे छे. द्रव्यथी उत्तम बीजी कोइ वस्तु नथी. ॥ १५ ॥ द्रव्यधीज कुलीन पंडीत मान्य शूर न्यायविशारद चतुर धर्मात्मा अने प्रिय थाय छे ॥ १६ ॥ योगी; वाग्मी, दक्ष, दानो शास्त्रपरायण ए सधळा खुशामतीआ थइने धनाढय नी सेवा करछे ॥ १७ ॥ गळी गया छे हाथ पग. अने नाक जेना एवो कोढीओ होय अने ते जो धनवान होय तो तेंने नव योवन स्त्री पण गाढ आलिंगन करीने सेवन करे छे॥ १८ ॥ जेना घरमां द्रव्य छे, तेने सघळा माणसो ताबदार प्रियकर अने वशीभूत थइ जाय छे ॥ १९ ॥ जेना घरमां पैसो छे, ते जो मूर्ख होय तोपण तेनी मोटा मोटा पांडतो प्रशंसा करे छे, जोते कायर होय तोपण तेनी मोटा मोटा योद्धा सेवा करवा लागी जाय छे, जो ते पापी होय तोपण Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मात्मा पुरुष तेनी स्तुती करे छे ॥ २० ॥ बहु ते शुं कहिए. जेनी बरोबर वौजु कोइ थयुं नथी, एवा चक्रवर्ति नारायण बलभद्र वगेरे ने मोटा मोटा 'पुरुष थइ गया, ते सवळा गामोना प्रसादयीन. गौरववाळा थया छे ॥ २१॥ एसघळी वातो सांभळीने हालिए का के-महाराज ! मने तो कोइ एवं खेतर आपो के जेमां हमेशां खेती थइ शके, अने मां झाड खाडा वगेरे न होय ॥ २२ ॥ आ सांभळीने राजाए विचार कयों के ए. पोताना हित आहितने समजतो नथी ते ठीकज छे, गामडाना गमारोमा निर्मल बुद्धि क्याथी होय ? ॥ २३ ॥ ए पछी राजाए मंत्रीने आज्ञा करी के, हे भद्र ! एने अगुरु चंदननु खेतर आपी दो, जेथी ए जीवन पर्यन्त विस्तीर्ण चंदनना लाकडांने वेचीने सुखथी रहे ॥ २४ ॥ त्यारे मंत्रीर जइने हालीने कल्प वृक्षना जे, मन वांछित वस्तुने मामालाई चंदनना वृक्षथी भरेलु एक खेतर देखाडीने कद्दु के, महाराजे तने आ खेतर आप्युं छे. ॥ २५ ॥ ते खेतर आइने हालीए पोताना मनमा विचार कयों के, राजा घणो कंजुस छे. केमके वृक्ष रहित खेतर. मागवा छतां पण अनके वृक्षोधी भोलु खेतर आप्युं ॥ २६ ॥ में तो कुबेर समान अन्न उत्पन्न करवावाळु अंजन (सुरमा ) ना जेवू श्याम वर्ण वृक्ष खाडा रहित वीस्तीर्ण अने छिन्न भिन्न खेतर माग्युं हतु, अने रानाए तो बोजी तरहनुं वृक्षादि उपद्रवोथी भरेलु खेतर आप्यु ॥ २७ ॥ खेर ! हवे एज लइ लेवू जोइए, केमके जो राजा ए पण नहि आपते तो हुं शुं करते ! एनेज हुं ठीक करी लइश ॥ २८ ॥ आ प्रमाणे विचार करीने ते हालीए प्रसाद कहीने ते खेतर स्वीकारी लीधुं, अने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोताने घेरथी सारो धारवालो कुहाडो लइ आवीने ते कुबुधिए अगुरु चंदननां वृक्ष कापवां शरु करी दीयां ॥ २९ ॥ आनंदीत थायछे भ्रमरोनो समूह अनाथी एवी सुगंधथी दश दिशाओने प्रफुल्लित करवावाळा सज्जन पुरुषनी माफक सेवा करवा योग्य, उंचा उंचा सीधा, सुखदायक, घणी महेनते मळे एवा, द्रव्य आपवावाळा, ते चंदननां वक्ष सघळां कापीने ते हालीए बाळी मूक्यां. ते ठीकन छे-स्वेच्छाचारी निर्विवेकी गमार कोई सारं काम करतो नथी ॥ ३०-३१ ॥ आ प्रमाणे महनतथी ते व्रक्षोने कापी बाळीने जलदायी अन्यायथी घरना जेवं ते खेतर वाववा लायक हाथेली जे निर्मळ कर्यु अने हर्ष साथे राजाने पण बताव्युं अने कह्यु के जुओ, आ में केवु उमदा खेतर बनाव्युं छे ते ठीकज छे, घमंडी नीच पुरुष पोतानी मूर्खताथी जप्रसन्न रहे छे ॥ ३२-३३ ॥ राजाए खेतर जोइने कह्यु के आ खेतरमा ते शुं शुं वाव्युं छे? त्यारे हालीए कह्यु के हजुर! में बहु फल आपवावाळा कांदा वाव्या छे ॥ ३४ ॥ आ प्रमाणे तेनी मूर्खता जोइने राजाए कह्यु केः-अरे! ते बळेला व्रक्षोमांथी कई पण रयुं छे के नहीं? ॥ ३५ ॥ स्थारे तेणे चन्दननो एक हाथ जेटलो ककडो लावीने बताव्यो, अने कह्यु के हजुर, ते व्रक्षोने बाळ्ती वखते आ हाथभरनो एक ककडो रही गपो छे ॥ ३६ ॥ त्यारे राजाए कयु के तुं आ ककडाने बमारमा लइ भइने तरत वेचीने आव. हालीए कह्यु के हजुर, आटला लाकडार्नु शुं मूल्य मळवा- हतुं ॥ ३७ ॥ राजाए हसीने ते दुद्धि हालीने कह्यु के वाणीओ जेटलं मूल्य आपे तेटलुंज लइ लेजे ॥ ३८ ॥ ज्यारे ते हालीए ते चंदननो ककडो बजारमा लइ जइने वेन्यो तो वाणयिाए तेना Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच दीनार आप्या ॥ ३९ ॥ त्यारे ते हाली आ वातनो विचार करीने खेदरुपी अग्निना तापथी पश्चाताप करवा. लाग्यो. ते ठीकज के, ने अज्ञानताथी कार्य करवावाला छे, तेमनामां एवो कोण छे के तेने पाछळ्थी पश्चाताप न, थायः॥ ४० ॥ नो आ नाना ककडानुआटलं मूल्य मळ्युं, तो ते सघळा वृक्षोनु केटलं मुल्य मळते तेनी तो गणत्रीज नथी ॥ ४१ ॥ राजाए तो मने भंडारना जेवू खेतर आप्युं हतुं, परंतु में अज्ञानी पापीए फोकट तेनो नाश करी नांख्यो ॥४२॥ जो हुं ते वृक्षोनी यत्नथी रक्षा करते तो मने जीवन पर्यंत सुखनुं साधनरुप द्रव्य थइ जते ॥ ४३ ॥ आ प्रमाणे ते हाली कामथी पीडित वियोगांनी माफक अत्यंत कठिण पश्चातापथी बहु काल सूधी दुखी थयो ॥ ४४ ॥ जे मूर्ख घणा यत्नथी प्राप्त करेला द्रव्यनो नाश करी दे छे ते हालांनी माफक हमेशां दुर्निवार पश्चाताप करे छे ॥ ४५ ॥ ने नष्ट बुध्धिवालो पुरुष वस्तुमा सार असार जाणतो नथी, ते मेळवेलां सारां रत्ननो नाश करी दे छे ।। ४६ ॥ जे मूर्ख वस्तुना गुण अवगुणने विचारता नथी, ते आंकवानी खीलीने माट सोनाना हळथी पृथ्विने खेडे छे ॥ ४७ ॥ हे ब्राह्मणो ! तमारामां ते हालीना जेवो सारासारनो विचार न करवावाळा होय तो पूछवा छतां पण हुं कहेबाने डरूंछु ॥ ४८ ॥ हवे नहि मळी शके एवा अगुरुचंदनना वृक्षोनो नाश करवावाळा निर्विचारी मूर्खनी कथा कहुंछु ते सांभळो ॥ ४९॥ ९। चंदन त्यागी मूर्खनी कथा। भोगभूमि समान सुखना आधार भूत मध्य प्रदेशमां एक वखते Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतमन नामनो मथुरा नगरीनो राजा हतो ॥ ५० ॥ एक समये ते राजा ग्रीष्म ऋतुना सूर्यथी हाथीनी माफक दुर्निवार पित्तज्वरथी (ताव) घणो दुखी अने विद्वळ थइ गयो ॥ ५१ ॥ सूर्यना तापथी थोडा पाणामां माछलीनी माफक ते पित्तज्वरना तापथी ते राजा कोमळ शय्यामां तरफडतो हतो ॥ ५२ ॥ ते राजाने मोटा मोटा प्रभाविक वैदोनी दवा थया छतां पण ते दुःसा परिताप, लाकडानी अग्निनी माफक दीवसे दीवसे वधवा लाग्यो । ५३ ॥ आठ प्रकारनी चिकित्सा जाणवा छतां पण ते वैद्यो दुर्जननी साधनामां सज्जनानी माफक ते ताप समावी देवाने समर्थ थया नहि ।। ५४ ॥ ज्यारे मंत्रीए जोयुं के राजाना शरीरमां ताव वधतोज जाय छे, त्यारे तेणे मथुरा नगरमां चारे बाजुए ढंढेरो पीटाव्यो के, जे कोइ राजाना शरिरनो रोग सारो करशे, तेने मान प्रतिष्ठा साथे १०० गाम आपवामां आवशे. ॥ ५६-५६ ॥ ए सिवाय खास राजाने पहेरवानो भारी हार, अत्यंत दुर्लभ कमरपटो अने एक पोशाकनी जोड पण आपवामां आवशे ॥ ५७ ॥ आ ढंढेरो सांभळीन एक वणिक गोशीर्ष चंदननुं लाकडं लेवाने माटे घरमांथी नीकल्यो रस्तामा तेणे दैवयोगथी एक धोबीना हाथमां गोशीर्ष चंदननो भारो जोयो ॥ १८ ॥ ते वणिके चारे तरफ उडता भ्रमराना टोळाथी तेने खरेखर गोशीर्ष चंदन समजीने धोबीने पूछयुं के हे भाइ ! आ लीमडानी लाकडांनो भारो तुं क्याथी लाव्यो ॥ ५९ ॥ धोबीए कह्यु के, मने नदीमां वहेतो मळयोछे. त्यारे वणिके कयु के, एना बदलामां बहु लाकडां लइने ए मने आपी दे ॥६० ॥ ते निर्विवेकी धोबीए कह्यु के, हे साधु पुरुष, लइ लो एमां मने शुं नुकशान छे ? आ प्रमाणे कहीने ते चंदनना भाराना बदलामा घणां Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाकडां लइने घोबीए ते भारो आपी दीघो ॥६१ ॥ पछी ते बुधिविशाल वणिक तरतज घेर आवीने तेने घसीने राजा पासे लइ गयो अने राजाना सघका शारिर उपर तेनो लेप करी दीधो ॥ १२ ॥ जे प्रमाणे प्रिय स्त्रीना संयोगथी वियोगी पुरुषना दुःखनो नाश थाय छे, ते प्रमाणे ते चन्दन लगावतांज राजाना सघळा शरीरनी बलतरा मटी गइ ॥ ६३ ॥ ते पछी राजाए पण पोताना ढंढेरा प्रमाणे सो गाम, कंठा घरेणां वगेरे आपीने ते वणिकने बहु मान आप्यु. ते ठीकज छे, मोटा पुरुषनो उपकार करवो कल्पव्रक्ष समान छे ॥ ६४ ॥ आ प्रमाणे ते काष्टनाज प्रभा. वथी वणिकनी प्रतिष्ठा सांभळीने ते धोबी शाकथी संतापित थइने माथु कूटीने रडवा लाग्यो ॥६५॥ हाय! दुरात्मा वणिके ते काष्टने चंदननो भारो जाणीने यमनी माफक केवी रीते . मने ठगी लीधो ? लीमडानी घणी लाकडीओ आपाने मारो गोशीर्ष चंदननो भारो केम लइ लीधो? ते ठीकज छे के असत्यभाषी वाणीआधी यमराज पण ठगाइ जाय छे ॥ ६६-६७ ॥ आ प्रमाणे महाशोक करीने ते धोबी निरंतर बळवा लाग्यो. ते ठीकज छे के अज्ञानमा रहेवावाळाने मुख केवी रीते थाय ? ॥६८ ॥ ते धोबीए एवो विचार कयों नहि के, लोमडाना एक नाना ककडाना बदलामां आ वणिक घणां काष्ट केम आपे छे ॥६९॥ आ दुर्निवार अज्ञानरुपी महा अंधकारने सूर्य चंन्द्रमाना किरणो पण नष्ट करी शकतां नथी ॥ ७० ॥ जे अंधकारथी आंधळो थाय छे ते आंखथी तो देखतो नथी परंतु चित्तथी तो वस्तुना स्वरुपने जुए छे, परंतु जे अज्ञानथी शून्यहृदय छे, ते चित्तथी तेमन नेत्रोधी पण देखता नथी ॥ ७१ ॥ माटे हे ब्राह्मणो ! ते धोबीना जेवा बदलो करवा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काळा कोइ मनुष्य आ वादक्षालामा होय तो हुँ पूछवा छतां पण साची बात कहेतां डरूंछु ॥ ७२ ॥ आ प्रमाणे में चंदनत्यागी मूर्ख को हो सघळा प्रकारे निंदाने पात्र चार मूर्योनी कथा कहुं छु ते सांभळो ॥७३॥ १० ॥ चार मूखोंनी कथा ॥ .. एक समये चार मूल् साथे कोइ जग्याए जता हता, तेओए रस्तामा एक जग्याए जिनेश्वरना जेवा निष्पाप मोक्षाभिलाषी मुनिराजने मोया ॥ ७४ ॥ आ मुनिराज एवा छे के वीरनाथ होवा छतां पण कोइ जीवने पीडा करता नथी, बन्ने नयना कहेवावाळा थइने पण ससवादी छे, चित्तचोर होवा छतां पण चौर्य कर्मथी रहित छे, निष्काम होवा छतां पण मोटा बळवान छे ॥ ७९ ॥ ग्रन्थधारी (सिद्धांत शास्त्रना माणकार ) होवा छतां पण निर्मल ( पापरुपी मेलथी रहित ) छे, गुप्तिमान एटले मन वचन काय गुप्तिना धारक होइने पण निबन्ध छे, विरुप होवा छतां पण मनुष्योने प्रिय छे ॥७६॥ महाव्रती होइने पण अंधकारनो नाश करवावाला छे. सर्व संग रहित होइने पण समितिओना प्रवर्तक छे ॥ ७७ ॥ प्राणिमात्रना रक्षक होइने पण धर्ममार्ग चलाववामां चतुर छे. सत्यमां लवलीन होवा छतां पण धर्मने बधारवावाळा छे ॥ ७८ ॥ समुद्रना जेवा गंभीर, मेरु पर्वतना जेवा स्थिर, सूर्यना मेवा तेजस्वी, चन्द्रमाना जेवा कान्तिवाळा ॥ ७९ ॥ सिंह समान निर्भय, कल्पव्रक्षना जेवा वांछित वस्तु आपवावाळा, वायुना जेवा निःसंग, आकाशना जेवा निर्मल छे ॥ ८० ॥जे प्रमाणे Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठंडीथी पीडीत माणस अग्निनी सेवा करे छे, ते प्रमाणे आ मुनिराजनी सेवा करवायी सगळा प्राणिओने पीडित करवावाळा तथा सम्यग्दर्शन चा. रेत्र नष्ट करवावाळा पापाथी छूटी जाय छे ॥ ८१ ॥ अने जेणे इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, महेश वगेरेने पण पोतानां बाणोथी हणीने जीती लीवा अने सेंकडो दुःख दीघां, एवा कामने पण जेमणे सहजमां जीती लीघो ॥ ८२ ॥ अने जे मुनिराजे स्वर्गलोकने जीतवावाळा कामदेवनो पण कामदेवनो पण नाश करी दीधो ते अमने तो तरत मारशे आ प्रमाणे जाणे भयभित थइनेज बलवान क्रोधादिक कषायोए आ महा पराक्रमी मुनिराजनी सेवा करी नहि ! ||८३ ॥ ते मुनिराज तपनी तो सेवा करे छे, परंतु तम एटले मिथ्यात्वनी नाही, तेओ सदा धर्मकथा कहे छे, परंतु निंदनीक विकथा कहता नथी. तेओ अनेक प्रकारना दोषोनो नाश करे छे, पण गुणोनो नाही, तेओ निंद्रानो त्याग करे छे, परंतु जिनवाणिनो त्याग कदी करता नथी ॥ ८४ ॥ ते मुनिराज सघळा माणसोने धर्मोपदेश करीने तरतज प्रतिबोधित धर्मात्मा करीने जगतना सघळा जीव अजीव पदार्थोंने जाणवाबाळा अने जिनेन्द्र भगवानना जेवा इन्द्रनरेंद्र वडे बन्दनीय छे ॥ ८५ ॥ ते मुनिराज संघळी इन्द्रिओना फेलावाने रोकीने पण सघळा प्रकारना समूहनुं अवलोकन करे छे, तथा त्रस स्थावर जीवोनी रक्षा करवावाळा होइने पण विषयोनुं मर्दन करवावाळा छे ॥ ८६ ॥ गुणोथी नडेला, संसाररूपी समुद्रने तारवावाळा ते मुनिश्वरना चरणरुपी कमळोने पेला चार मूर्खो जमीन उपर मस्तक मूकीने नमस्कार करवा लाग्या ॥ ८७ ॥ निर्दोष छे Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेष्ठा जेनी एवा ते मुनिराजे ते चारे मूर्खेने एकी वखते दुःखोनुं हरण करवावाली तथा पापरूपी पर्वतने उडाबवावाळी धर्मवृद्धि कही, एटले आशीर्वाद आप्यो ॥ ८८ ॥ ए पछी ते चारे मूर्खो त्यांथी एक गाउ आगळ जइने परस्पर लढवा लाग्या, जे योग्यज छे, के मनवांछित फल आपवावाळी ऐकता मूखमां क्यांथी होय ! ॥ ८९ ॥ एके तो कह्युं के साधु महाराजे ने आशीर्वाद आप्यो. बीजाए कह्युं के मने आप्यो, आ प्रमाणे परस्पर बोलतां ते हिणबुद्धिवाला मूर्खोमां बहु वखत सूधी लडाइ थती रही ॥ ९० ॥ त्यारे कोइ बीजा पुरुषे कयुं के, हे मूर्खो ! तमे फोकट शुं करवा लडो छो ? सारी रीते निश्चय करी आपवावाळा ते मुनिराजनेज जइने केम नथी पूछता ? केमके सूर्यना रहेवाथी कोइ जग्याए अंधकार रहेतो नथी ॥ ९१ ॥ आ वचन सांभळीने ते सघळा मूर्खोए मुनिराजनी पासे जइने पूछयुं के हे मुनिराज ! तमे जे आशीर्वाद आप्यो हतो, ते आपनी कृपाथी अमे चारेमांथी कोने थयो ? ॥ ९२ ॥ त्यारे मुनिराजे कह्युं के, तमे चारमाथी जे वधारे मूर्ख छे, तेनेज ते आशीर्वाद हतो. आ वचन सांभळीने सघळा कहेवा लाग्या के वधारे मूर्ख हुं हुं, वधारे मूर्ख हुं छें, जे ठीकज छे. केमके - एवो कोइ पण मनुष्य नथी के जे पोतानो पराभव सहन करी ले ॥ ९३ ॥ त्यारे ते सवळानुं अत्यंत कठीण युद्ध सांभळीने मुनिराजे कां के, हे मूर्खो ! तमे नगरमा जइने बुद्धिमानो पासे तमारी मूर्खतानो न्याय करावी लो. अहिंयां ए तकरार न करो ॥ ९४ ॥ आ प्रमाणे मुनिराजनां वचन सांभळीने ते चारे मूर्खो लडाई छोडीने Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्नतापूर्वक तरतज अपरिमित वेगवी ( घणी झडपथी) नगर तरफ गया. त्रण भवमां पूजनीक मुनिराजनां वचनोने प्रसन्नचित्त थइने तिथंच पण मानेछं तो बुद्धिना धारक मनुष्यतो केम न मानेः ॥ १५ ॥ आ प्रमाणे अमितगति आचार्यकृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषा टिकामां आठमुं प्रकरण पूर्ण थयुं. ५.) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ९ मुं. ते मूखों नगरमां जइने नगर निवासिओने कहेवा लाग्या के, तमे अमारो एक न्याय करी आपो ॥ १ ॥ नगर निवासिओए कह्यु के हे भद्र ! तमारे शुं न्याय करवो छ ? त्यारे तेओए कह्यु के, हमारमाथी वधारे मूर्ख कोण छे ते विचार करीने बतावो ॥ २ ॥ त्यारे नगर निवासिओए कह्यु के, तमे पोतपोतानी मूर्खतानी कथा कहो, त्यारे एक मूर्ख कह्यु के पहलां मारी कथा सांभळी लो ॥ ३ ॥ पहेला मूर्खनी कथा। हे महाशय ! विधाताए ( कर्मे ) मने माटुं पेट अने लांबा स्तनो वाळी साक्षात् भयंकर वैतालना जेवी बे स्त्रीओ आपी ॥ ४ ॥ ते बन्ने स्त्रीओ मने रतिदायक - अने अतिशय प्रिय थइ, ते नीतिन छे के, सघळाने सर्व प्रकारनी स्त्रीओ स्वभावथीज प्रिय होय छे ॥ ५॥ हु ते बने राक्षसीओथी दररोज भयभित रहुं छु. जगतमां एवो कोण पुरुष छे जे घणोखरो स्वीओथी डरतो नथी ? ॥ ६ ॥ ते बन्नेनी साये क्रीडा करतां मारा बहु दिवस सुखथी चाल्या गया. एक दिवस रात्रीने वखते हुं मारी योग्य पथारीमा. सुतो हतो ॥ ७॥ ते बन्ने मारी व्हाली स्त्रीओ तरत आधीने मारा एक एक हाथने माथा निचे दबावीने बे बाजुए. सुइ गइ ॥ ८ ॥ में आनंदने माटे एवी जग्याए के जे माथानी उपर बराबर हती त्यां एक दीवो । खेलो Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हतो, केमके कामी पुरुष अवनारी, विपत्तिने देखतो नयी ॥९॥ ज्यारे हुं सीधुं म्हों राखीने सूइ गयो, त्यारे एक दुष्ट उंदर ते दिवामाथी दिवेट काढीने लइ जवा लाग्यो, तेथी मारी डाबी आंख उपर ते बळती दिवेट पड़ी गई ॥ १० ॥ त्यारे में तरतज जागीने आंख बळती होवाथी व्याकुल थइने एवो विचार कर्यो के ॥ ११ ॥ जो हुं डाबो हाथ काढीने बत्ती होलकुंछु तो माथानी नीचेथी हाथ निकली जवाथी मारी डाबा हाथवाळी स्त्री गुस्से थइ जशे, अथवा जमणे हाथे होलकुंछु तो आ बीजी क्रोध करशे ॥ १२ ॥ लाचार ! हुं मारी प्यारी स्त्रीओना भयथी तेना माथा नोचेथी हाथ न काढीने तेज माफक चूपचाप सूइ रह्यो, मेथी मारी डाबी आंख फूटी जवाथी हुं ते दिवसथी काणो थइ गयो ॥ १३ ॥ मारी आंखने बाळीने फोडया पछी ते दिवेट पोतानी मेळे होलवाइ गइ, परंतु में स्त्रिओना भयथी तेने होलववानो कोइ पण उपाय को नहि ॥ १४ ॥ मारा समान मूर्ख होय तो कहो के, जे स्त्रीमां आशक्त थइने पोतानी आंखने बळती जोइने पण चूप रहे ॥ १५ ॥ स्त्रीना भयथी जे दिवसे मारी आंख फूटी गइ ते दिवसथी मारुं विषमैक्षण एवं नाम पड़ी गयुं छे ॥ १६ ॥ आ लोक अथवा परलोकमां एवं कोइ पण असह्य दुःख नथी के जे स्त्रीना वशीभूत पुरुषने न थाय ॥१७॥ स्त्रीनो वश थयलो जे पुरुष आंख बळती छतां पण मूंगो थइने रहे छे, ते रांक मूर्ख एवं कयुं अयोग्य कार्य छ, के जे न करे? ॥ १८ ॥ मनोवेगे कयुं के हे ब्राह्मणो ! आ वादशालामां ते विषमैक्षणना मेवो कोई पुरुष होय तो हुं पूछवा छतां पण कहेवाने डरूंछु ॥ १९ ॥ ज्यारे ते मूर्ख आ प्रमाणे पोतानी मूर्खता कहीने एक बाजुए बेसीगयो Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यारे बीजा नष्टबुद्धि मूर्खे घखाण करता करता पोतानी कथा कहेबी शरु करी ॥ २० ॥ ..... ।बीजा मूर्खनी कथा। . बीजा मूर्खे कयुं के मारे बे. स्त्रीओ हती. विधाताए सघळा कुरुप पुद्गलोने भेगा करीनेज जाणे आकनी डोडी जेवा होठवाळी ते ये स्त्रीओ मारे माटे बनावी हती. केमके-॥ २१ ॥ ते बहुज काळी, अने कोडा सेवा दांतवाळी हती. तेने लांबा पग, मोटी जांगो अने लांबुं नाक ह. अने तेनां सखत रुंबाटां दैत्योनी देवीना जेवां मोटां भयंकर हता ॥२२ ॥ ते भक्षण करवामां गधेडीने, अशुचि पदार्थ खावामां शूकरीने अने चपळतामां कागडीने जीतवावाळी, अने नठारुं भक्षण करवायी निंद्य ओडकार लेवावाळी हती. ॥ २३ ॥ ते बन्ने स्त्रीओ मारा उपर प्रीती राखवावाळी मने घणी प्यारी हती. तेमांथी एक तो मारो डाबो पग धोया करती हती, अने बीजी जमणो पग धोती हती ॥ २४ ॥ एकनुं नाम रुक्षी ( रिछणी ) अने बीजीनुं नाम खरी ( गधेडी) हतुं. ते बन्नेनी साथे निरंतर क्रिडा साथे रमतां मारो वखत सुखथी जतो हतो ॥ २५ ॥ एक दिवसे प्राणधी पण आतिशय प्यारी मारी रुक्षी नामनी • स्त्रीए प्रीतिपूर्वक मारो पग धोइने बीजा पग उपर राखी दीधो ॥ २६ ॥ ते खरीर जोइने तेज वखत एक मुसळावडे मोटो घा करीने मारो पग तोडी नांख्यो ॥२७॥त्यारे रुक्षीए खरीने कयुं के, आज तने आटलो बधो स्वार्थ थइ गयो छे के तुं आवी नीच क्रिया करवा लागी छे? ॥ २८ ॥ हे दुष्टणी गधेडाने गधेडी समान हजारो यारोने भोगवती भोगवती हवे पतिव्रता बनवा मांडे छे ! ॥ २९ ॥ आ प्रभाणे सांभळीने खरीए कह्यु के, हे कपटी! पोतानी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माफक हमारो व्यभिचारीओने भोगवीने हवे मारा उपर पण तेम दोष मूके छे! ॥ ३० ॥ हे मूर्ख! हे लुग्वी! ता मायुं मूडीने पांच चोटली राखीने गलामां शराबोनी माला पहरावीने शहरमा फेरवू तो ठीक लागे ! ॥ ३१ ॥ आ प्रमाणे ते बन्ने वच्चे दुष्ट राक्षसीओनी माफक लोकोने जोवालायक मोटी भयंकर लढाइ पइ ॥ ३२ ॥ त्यारे रुक्षीए गुस्से थइने कह्यु के, ले, तुं अने तारी मा पोताना ( धणीना ) पगनी रक्षा कर, एम कहीने मूशलं लइने, मारो (मूखनो ) बीजो पग ते रुक्षीए भांगी नांख्यो ॥ ३३ ॥ आ बे दुष्ट वाघणाओथी (ते बन्ने स्त्रीओथी) भयभितचित्त कांपत शरिर थइने हुं तो बकरीनी माफक गुपचुप जोतोज रह्यो ॥ ३४ ॥ ज्यारथी में स्त्रिओना भयथी गुपचुप पग भंगावी नांख्या, त्यारथी मारुं कुंटहंसगति एवं नाम पडी गयुं ॥ ३५ ॥ जुओ मारी केवी मूर्खता छे के में ते वखते स्त्रिओना भयकी कापित शरिर थइने मौन धारण कर्यु ! ॥ ३६ ॥ जेवो दुःशील, कुरुप, नीच कुलनी स्त्रिओने सैभाग्य रुप अने सुंदरतानो गर्व होय छे, तेवो गर्व सुशील, सुरुप, कुलीन, निष्पाप धर्मात्मा स्त्रिओने कदी होतो नथी ॥ ३७-३८ ॥ पोतार्नु हित चाहनार समजदार पुरुषोए कुलीन, भक्ति करवावाली शांत अने धर्ममार्गनी जाणकार एकज स्त्री करवी जोइए ॥ ३९ ॥ जे पुरुष स्त्रीओने वशीभूत होय छे, ते निःसंदेह आ लोकमां कुलनी कीर्ति अने मुखनो नाश करे छे, अने परलोकमां असह्य नरक वेदना भोगवे छे ॥ ४० ॥ आ जगतमां वरु वाघ अने सर्पोथी निर्भय रहेवावाळा तो घगा पुरुष छे परंतु स्त्रीओथी नहि डरवावाळो एक पण देखातो नथी ! ॥ ४१ ॥ जे पुरुष कुटहंसगतिनी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माफक दुर्बुद्धि होय छे, तेनी आगळ पंडितोए तत्व ( वस्तुनुं स्वरुप ) कहे, जोइए नहि ॥ ४२ ॥ आ प्रमाणे पोतानी निंदनीय कथा कहीने, बीजो मूर्ख चूप रहेवा पछी त्रीजा मूर्खे पोतानी कथा कहेवा मांडी ॥ ४३ ॥ त्रीजा मूर्खनी कथा. हे नगरवासिओ ! हवे हुं तमने मारुं मूर्खपणुं कहुं छु ते सावधान थइने सांभळो ॥ ४४ ॥ एक समये हुं सासरे जइने मारी स्त्रीने तेडी लाव्यो, रातना सूती वखते ते बोलती नहोती, त्यारे में कह्यं के, हे कृशोदरि ! आपणा बेमांथी जे कोई पहेलं बोले ते घीमां तळेला दश मालपुडा हारी जाय ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ त्यारे मारी स्त्रीए झर्दा के, बहु सारूं एमज करो. ते उचितज छे के, कुलिन स्त्रीओ पतिना वाक्य, कदापि उल्लंघन करती नथी. ॥ ४७ ॥ आ प्रमाणे अमे थे प्रतिज्ञावालां थइ बेसी जवा पछी तेज वखते हमारा घरमा एक चौरे आवीने सवढं धन लइ लीg. ॥ ४८ ॥ ते चोरे धन लेवामां कंइ बाकी राख्यु नहि, ते उचितज छे के, मार्ग मळवाथी व्यभिचारी अने चोरोमां मोटुं सामर्थ्य आवी जाय छे. ॥ ४९ ॥ छेवटे ज्यारे ते चोर मारी स्त्रीना पहेरखानां वस्त्र खोलवा लाग्यो त्यारे मारी स्त्रीए मने का के, हे दुराचारी, शुं तुं हनी पण उपेक्षा करे छे ? हे दुष्ट ! पोतानी सामुं मारां वस्त्र खोलवा छतां पण तुं केवी रीते जीवे छे? कुलिन पुरुषोनुं जीवq तो स्त्रीना पराभव सूधीज होयछे एटले कुलिन पुरुष मरवु श्रेष्ठ समजे छे, परंतु पोतानी स्त्रीनो पराभव जोइ शकता नथी॥५०-५१॥ मारी स्त्रीनां आ वचन सांभळीने में हसीने कयु के, हे कान्ते! तुंज पहेली बोली, माटे हारी गइ, हारी गइ. तें दश मालपुडा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपवानुं कबुल्युं हतुं, माटे हवे मारा दश मालपुडा आज वखते आप ॥ ५२-९३ ॥ जुओ, मारी मूर्खता ! जे में अत्यंत महेनते मळे एवां धर्म असे सुखने आपवावाळु पेदा करेलु द्रव्य मारी नजर आगळ चेरने लइ जवा दी● ॥ ५४ ॥ ते दिवसथी मारुं नाम बोद प्रख्यात थइ गयुं छे. ते उचितन छे, मिथ्याभिमानने वश थइने मनुष्य कह विपत्ति भोगवतो नथी? ॥ ५५ ॥ पोताना कर्त्तव्यमां हानि थती होय तो मनुष्य पोताना जीवितव्यने छोडी दे छे, परंतु शरिरना टुकडा थइ जाय तोपण पोताना गर्वने छोडता नथी ॥ ५६ ॥ सवळां द्रव्यना नाशने सहन करे छे तेमां सत्पुरुषोने कंइ पण आश्चर्य नथी, केमके मिथ्याभिमानथी नरकनी वेदना पण सहन करी ले छे ॥ ५७ ॥ जे नीचपुरुष बोदना जेवा मूर्ख छे, तेने सारासारनो विचार करवानुं सामर्थ्यज नथी ॥ ५८ ॥ आ प्रमाणे पोतानी मूर्खता प्रकट करीने त्रीजो मूर्ख चूप रह्या बाद, नगरनिवासीओना पूछवाथी चोथो मूर्ख पोतानी कथा कहवा लाग्यो ॥ ५९ ॥ चोथा मूर्खनी कथा । चोथा मूर्ख कह्यु के एक समये हुं मारी स्त्रीने तेडवाने माटे स्वर्गसमान इच्छित सुखना आधारभूत सासरामा गयो ॥६० ॥ मारी सासुए अनेक तरहनुं घीथी करेलुं आनंददायक जिनवाणी समान उज्ज्वल ( पवित्र ) भोजन आप्यु ॥ ६१ ॥ परंतु कष्टयी छे उतार अने चढाव जेनो एवा रागनी माफक लज्जाथी व्याकुल चित्त थइ, में कई पण खाधुं नहि ॥ ६२ ॥ बीजे दिवसे पण देह सहित व्याधिओ समान ते गामनी स्रीओने जोइने कंइ पण भोजन करवा पाम्यो नहि ॥ ६३ ॥ त्यारे त्रीजे दिवसे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलयकालनी अग्निनी माफक सर्व अंगमा दाह करवावाळी जठराग्नि (मूर्ख) बहु तेज थइ गई ॥६४ ॥जे भूखथी गभरायलो होय छे, ते कंइनी पण सामे जोतो नथी, तेथी में ते वखते जराक पलंगनी नीचे जोयुं, तो त्यां आकाशने निर्मल करवावालुं चंद्रमानां किरणोना जेवा स्वच्छ चोखाथी भरलं एक बहु मोटुं वासण जोयुं ॥ ६५-६६ ॥ ते पछी में घरना दरवाजा तरफ जोयुं तो कोइ पण नहोतुं, अने कोईना आववानो अवाज सांभळयो नहि त्यारे में ते चोखा थीमों भरी लीधुं. ते उचितज छे, अत्यंत क्षुधातुरने मर्यादा क्यों? ॥६७ ॥ दैवयोगथी तेज वखते मारी स्त्री आवी पहोंची, तेथी तेनी शरमथी जेवाने तेवा फूलेला गाल अने मोढा सहित हुं गुपचुप बेसी रह्यो ॥ ६८ ॥ तेणे फूलेला गाल तथा मुखने अने मिचेली आंखोने जोइ, जेथी मने मोटो रोग थयो छे, एवं समजीने पोतानी माने खबर करी ॥ ६९ ॥ मारी सासुए आवीने जायुं तो ते मारा जीववामांज संदेह करवा लागी. जे उचितज छे, प्रेमीजन कवखते पण पोताना प्रियजनोने मोटी आपदा सहित जोया करे छे ॥ ७० ॥ मारी सासु चिंता सहित जेम जेम मारा गालोने हाथथी दबावीने जोती हती, तेम तेम हुं विह्वल शरिर थइने गालोने कठण करीने पडी रह्यो हतो ॥ ७१ ॥ मारी स्त्रीने रडती सांभळीने गामनी घणी स्त्रीओ एकठी थइ गई अने सघळी स्त्रीओ जुदा जुदा प्रकारना रोग बताववा लागी, ॥ ७२ ॥ एके कह्यु के एणे मातापितानी अथवा सात प्रकारनी देवियोनी सेवा पूजा करी नथी, तेथीज आ रोग थयो छे, बीजं कंइज कारण नथी. ॥ ७३ ॥ बीजीए कह्यु के ग्वच्चीत आ कोइ देवतानो कोप छ, केमके ए सिवाय आवी अकस्मात Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीडा कम थाय? ॥ ७४ ॥ श्रीजीए पोताना डाबा हाथमां मारुं माधुं राखीने बीजो हाथ पकडीने कां के आ तो कर्ण सूचिका माता (चंचक) छे || ७६ || एज प्रमाणे कोइए पितनो रोग, कोइए वातरोग, कोइए कफ, अने कोइए सन्निपात रोग बताव्यो || ७६ ॥ आ प्रमाणे व्याकुलचित्त थइने परस्पर कहेती स्त्रिओमां पोतानी प्रशंसा करतो एक शस्त्रवैद्य पण आवी पहोंच्यो || ७७ || चिंतामां गभराती मारी सासुए तेज वखते ते वैद्यने मारो रोग बतावीने मने देखाडयो ॥ ७८ ॥ शरीरना आकारमा चतुर वैद्ये मारा पथ्थरना जेवा कठोर गालोने जोइ हाथथी दबावीने पोताना मनमां विचार कर्यो के - खच्चित एणे भूखने लीधे वगर चावेली कोइ पण वस्तु मोदामां नांखी छे, बीजी रीते आवी चेष्टा कदापि थइ शके नहि ॥ ७९-८० ॥ ते पछी ते चतुर वैद्ये पलंगनी नीचे चोखानुं वांसण जोइने कधुं के हे मात ! आ तमारा जमाइने कष्टथी छे अंत जेनो एवो प्राणनो नाश करवावाळो अत्यंत कष्टसाध्य तंदुली रोग थयो छे ॥ ८१ ॥ जो तुं मने मनमान्युं बहु द्रव्य आपे तो हुं तारा जमाई नो रोग दूर करी आपुं. त्यारे मारी सासुए कह्युं के, हे वैद्य ! जो बाळक नीरोग अने जीवतो रहेशे तो खच्चित मनमान्युं द्रव्य आपीश ॥ ८२ ॥ ते पछी ते वैद्ये शस्त्रवडे मारा गालमां काणुं पाडीने चोखानी बरोबरना अनेक प्रकारना कीडा ( चोखा) काढीने ते खेद करती स्त्रीओने बताव्या अने जल्दी मारो रोग दूर करी दीधो, त्यारे एक जोड व आपीने ते सघळी स्त्रीओए वैद्यराजनी बहु भेट पूजा करी अने हुं मानाग्निथी तप्तथइने फोकट दुर्निवार पीडाने सहन करतो गुप चूप बेसी रह्यो । ८३-८४ ॥ ज्यारे मारे मांडेथी लोकोए सघळो हेवाल Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाण्यो, त्यारे तेओए मारी मोटी मश्करी करी, अने ते दिवसथी मारुं नाम गल्लस्फोट प्रख्यात थयु. ते उचितज छे के-जे प्राणी दुष्ट चेष्टा करशे, ते तरतज निंदनीय हास्य अने दुःखने केम नहि पामशे ॥८५ ॥ हे नगरनिवासीओ ! तमे मारी मूर्खता जोई? मूगो थइने गाल चीरवाना असह्य दुःख सहवावाळो पोतानो नाश करनारो मारा सरखो मूर्ख तमे कोई जग्याए पण जोयो होय तो कहो. ॥ ८६ ॥ लज्जाबलं पुरुषत्व, शौच, अर्थ, काम, धर्म, संयम, अने आकिंचन पणानुं स्वरुप सारी रीते समजीने योग्य समयपरज सेवन करेलां तत्काल मनवांछित सिद्धि आपे छे ॥ ७॥ माटे हे ब्राह्मणो! जे मूर्ख हेयाहेयना ज्ञान वगर सर्व प्रकारथी सागी थइने पण अभिमान करे छे, ते हास्य दुःख अने सघळा लोकोथी निंदापात्र थईने घोर नर्कमां जाय छे ॥ ८८ ॥ ए पछी नगरनिवासिओए कह्यु के, हे भद्र पुरुषो ! तमे तेज साधुनी पासे जईने पोताना मूर्खपणाने शुद्ध करो ते उचितज छे. सत्पुरुष असाध्य कार्यमां कदी प्रयत्न करता नथी।। ८९॥ हे ब्राह्मणो ! आ प्रमाणे सारासारना विचार वगरना चार प्रकारना मूर्ख में प्रगट कर्या, जो तमे लोकोमां कोई एवो मनुष्य होय तो हुँ साची वात कहेतां डरूंछु ॥ ९० ॥ लज्जा करवावाळी वेश्या, अतिशय दान करवावाळा धनाढय, गर्व करता नोकर, भोगाभिलाष करता ब्रह्मचारी, चिंता करवावाळा भांड, शीलनो नाश करवावाळी स्त्री अने लोभी राजा तरतज नष्ट थई जाय छे ।। ९१ ॥ विवेकराहित पुरुषने कोई कालमां पण कीर्ति, कान्ति, लक्ष्मि, प्रतिष्ठा धर्म, अर्थ, काम, सुख बगेर थतां नथी. ए कारणथी सर्व प्रकारथी श्रेष्ठ दरेक कार्य करती वखते। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारासारनो विचार राखवो जोईए ॥ ९२ ॥ जे पुरुष विनाकारण वृथा अभिमान राखे छे, तेनां लोकानंद्य नष्टबुद्धि पुरुषना जिवननी साथे साये आ लोक परलोक संबंधी समस्त कार्य पण नष्ट थइ जाय छे ॥ ९३ ॥ जे पुरुष देश कालानुसार सारासारनो विचार करीने सघळां श्रेष्ठ कार्य करे छे, तेज आ लोकमां विद्वानोथी पूजनीय, मनोवांछित सारभूत सुखने मेळवीने मोक्षे जाय छे ॥ ९४ ॥ आ जगतमां घणी वखते अहित करवा छतां हित करे छे अने हित करवा छतां अहित करे छे, परंतु पोतानुं हित चाहवावाळा . अमितगतयः एटले अपरिमाण ज्ञानना धारक जे सत्पुरुष छे ते पोतानी बुद्धि अनुसार पोताना मनमा विचार करीने पहेलेथीज हित कर्या करे छे ॥ ९५ ॥ . इतिश्री अमितगति आचार्य कृत 'धर्म परिक्षा' संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाटीकामां नवमुं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥९॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १० मुं. ए पछी मनोवेगे कह्यु के हे ब्राह्मणो! रागथी आंधळो रक्तपुरुष द्वेष करतो द्विष्टपुरुष, विज्ञान रहित मूढपुरुष, व्युद्ग्राहि राजानो पुत्र, विपरितात्मा पित्तदृषित, परिक्षा कर्या वगर आंबाना झाडन कापवावाळो शेखर नामनो राजा, गायनो त्यागी तोमर बादशाह, अगुरु चंदन वृक्ष बाळवावाळो हालि, लीमडानी लाकडीथी चंदननो बदलो करवावाळो लोभी रजक अने विचार रहित चार मूर्ख ए दश प्रकारना मूर्यो कह्या. एना जेवा कोई मूर्ख तमे लोकोमा होय तो मने बतावी दो ॥ १-२-३ ॥ आ वचन सांभळीने सघळा ब्राह्मणोए कह्यु के हे भद्र ! हमे सघळा विचारवान छीए. जे प्रमाणे गरूड सपने मारे छे ते प्रमाणे हमे मूर्खने दंड करीए छीए ॥ ४ ॥ मनोवेगे फरीथी कह्यु के, हे विप्रगणो! मारा मनमा हजु पण थोडो भय छे, कमेके तमे लोकोमां घणाखरा पोताना वाक्यनो आग्रह करवावाळा हशे ॥ ५ ॥ बीजं जे वक्तानी पासे सुंदर मनोहर बेसवार्नु आसन न होय, माथा उपर मोटी पाघडी अथवा चोटली न होय, पुस्तक नवं न होय, योग्य सुंदर धोतीजोटो न होय ॥ ६ ॥ तथा जेना पगमां सुंदर पावडीनी जोड न होय, लोकने रंजायमान करे एवो वेष न होय, तो ते वक्तार्नु कहेवू कोई पण प्रमाणिक समजतुं नथी ॥ ७ ॥ केमके आजकाल घणा लोको कोई वेष धारण कर्या वगरनानो आदर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कार करता नथी, मोटा आडंबरनीज पूजा करे छे, गुणोनी पूजा कोई पण करतुं नथी ॥ ८ ॥ आ सांभळीने ब्राह्मणोए कयु के हे भद्र! तुं कोईरीते पण डर नाह, प्रस्ताविक कथनथी ( रत्नालंकार सहित घास लाकडां वेचनार जेवा पुरुष भारत रामायणादिमां बताववा वगेरेथी ) महात्मा पुरुषामां चावेलाने चावबुं शोभतुं नथी ॥ ९ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के, जो एम छे तो हुं जे वचन कहुं तेनो पूर्वापर विचार करीने स्विकार करजो ॥ १० ॥ - आ जगतमां पुंडरिक नामनो प्रख्यात एक प्रसिद्ध देव छे, ते आ जगतनी सृष्टी, स्थिति अने विनाश- एकमात्र कारण छे ॥ ११ ॥ जेना प्रसादथी जगतजन अविनाशी पद मेळवे छे, ते आकाशनी समान सर्वव्यापीक नित्य, निर्मल अने सदा अक्षय छे ॥ १२ ॥ तथा त्रिलोकरुपी घरनो एकमात्र स्तंभ अने शत्रुने बाळवामां दावानळ समान, जेना हाथमां धनुष, शंख, गदा, चक्रवडे भूषित छे तथा ॥ १३ ॥ जेनावडे जगतने ऊपद्रव करवावाळा दुष्ट दानव, सूर्यनां किरणोथी अंधकारना समूहनी माफक तरत मार्या जाय छे ॥ १४ ॥ अने जेनी पासे लोकोने महा आनंद करवावाळी, आतापनो नाश करवावाळी मनोहर चंद्रकिरण समान पूजनीय लक्ष्मि छे॥ १५ ॥ जेना शरीरमां निर्मल प्रभावाला कौस्तुभमणि शोभायमान छे, ते जाणे पोताना सुंदर मांदरमा दिपकज राख्यो छे ॥ १६ ॥ माटे हे विप्रो! आ प्रकारना सघळा देवोना देव पुण्डरीक भगवाल वैकुंठना परमात्मा (विष्णु) मां तभे लोकोने भरोसो छे के नहि ? ॥ १७ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के, हे भद्र ! उपला प्रकारना चराचर जगद्व्यापी जे विष्णु भगवान छे, तेने कोण नथी मानतुं ? ॥ १८॥ दुःखरुपी अग्निने मेघनी माफक, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने संसाररुपी समुद्र तरवाने वहाण समान विष्णुने जे लोक मानता नथी ते मनुष्य शरीर धारण करवा छतां पण पशु जेवो छे ॥ १९ ॥ मनोवेगे कयुं के हे ब्राह्मणो ! जो तमारा विष्णु एवा उत्कृष्ट छे तो नन्द घेर गोकुळमां गोवाळीआ थईने गायने शामाटे चरावता हता? ॥ २० ॥ तथा कुटज पुष्पोनी माळाथी दृढ़ बांधेल मोरना पीछां धारण करीने गोवाळीआनी साथे वारंवार रासक्रीडा केम करता हता? ॥ २१ ॥ तथा युधिष्टरनी तरफथी दूतपणुं करवाने माटे दुर्योधननी पासे सिपाइ तरीके दोडता दोडता केम गया हता ? ॥ २२ ॥ तथा हाथी घोडा पायदळी भरेला युद्धमा अर्जुनना सारथी ( रथ हांकवावाळा ) बनीने शामाटे रथ हांकता हता? ॥ २३ ॥ तथा ब्राह्मणरुप धारण करीने भिखारीनी माफक दीन वचन कहीने बलिराजा पासे पृथ्वीनी याचना केम करी हती ? ॥ २४ ॥ तथा सघळा लोकने धारण करवावाळा सर्वज्ञ सर्वव्यापी स्थिर थईने रामावतारमा कामीनी माफक बबी तरफथी सीतानी विरहरुपी अग्निवडे केवी रीते तापित थया? ॥ २५ ॥ आ अने बीजां अनेक अनुचित कार्य योगिओ द्वारा गग्य जगतना गुरु वंदनीक महात्मा देवने (विष्णुने) करवू योग्य छे? ॥ २६ ॥ जो आ प्रकारनां कार्य विरागरुप हरी [ विष्णु ] करे छे तो हवे दरिद्रीना पुत्रनो लाकडां वेचवामां कयो दोष छे? ॥ २७ ॥ जो आ प्रमाणेनी लीला मोरारि परमेष्टिने छे, तो पोतानी शक्तिअनुसार लाकडां वगेरे वेचवारुप लीला करतां हमने कोण रोकी शके एवं छे ? ॥ २८ ॥ आ प्रकारे विद्याधर मनोवेगनां वचन सांभळीने चतुर ब्राह्मणोए कह्यु के, हमारा विष्णु भगवान तो एवाज छे. एनो उत्तर हमे शुं आपी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकीए? ॥ २९ ॥ आ वखते तो हमारा मनमां पण भ्रान्ति थइ गइ छ के परमेष्ठि हरि एमु कार्य केवी रीते करी शके? ॥ ३० ॥ हे भाइ, ते अमने मूढ मनवाळ ने बोध कथों ते उचितज छे, दिवा वगर आंख होवा छतां पण रुप देखातुं नथी ॥ ३१ ॥ जेम अमारा विष्णु आवां अनुचित कार्य कोइ बीजा परमोष्ठनी आज्ञाथी करछे तेम ए पोताना पितानी आज्ञाथी घास लाकडां वेचे छे ॥ ३२ ॥ जो देवज आq अन्याय काम करे छे तो ते पोताना शिष्योने ( भक्तोने ) केवीरीते रोकी शके. केमके खुद राजाज चोरी करतो होय तो ते चोरोने केवीरीते रोकी शके? ॥ ३३ ॥ विष्णुए आवं कार्य करवा छतां बीजा पुरुषोने एवं कार्य करवामां दोष केम आपत्रो? केमके जे घरमा सासुज व्यभिचारिणी होय तो वहुने दोष आपवो व्यर्थ छे ॥ ३४ ॥ जो तेनो अंश सरागी छे तो ते परमोष्ट . पण सरागी छे, वितराग नथी, केमके अवयव सरागा होवाथी अवयवी वितराग केवीरीते थई शकेछे? ॥ ३५ ॥ सघळा लोक विष्णु भगवानना पेटमां हता तो पछी सीतार्नु हरण केवीरीते थयु? शुं आकाशनी बहार पण कदी कोई वस्तु होई शके छे? ॥ ३६ ॥ तथा विष्णु सर्वव्यापी अने नित्य छे तो तेना इष्टनो वियोग अथवा पीडा केवी रीते थई शके? ॥ ३७ ॥ जो ते कोईनी आज्ञाथी एवं कार्य करे छे तो ते जगतनो प्रभू केम थई शके ? केमके राजा थइने सेवकनुं काम कोई पण करतुं नी ॥ ३८ ॥ सर्वज्ञ होईने रामे झाडोने सीतानी खबर केम पूछी ? ईश्वर थईने भिक्षा केम मांगी ? डाह्यो होय ते निद्रा केम ले अने विरागी थईने काम सेवन केवी रीते करी शके? ॥ ३९ ॥ तेथी अन्य जीवोनी माफक दुःखित थईने तेणे Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्स्य, कच्छप, शूवर नृसिंह, वामन, फरसुराम, राम, कृष्ण वगेरेनो अवतार शामाटे धारण कर्यो ? ॥ ४० ॥ अनेक प्रकारनां छिद्रसहित विष्टाना घडानी माफक नवद्वारथी चारे तरफथो अपवित्र वस्तुओंने काढवावाळी कर्मनिमित सबळी अपवित्रताना घररुप महा अपवित्र देहने पापरुपी मेलथी रहित ते स्वतंत्र परमेश्वर केवी रीते धारण करे?॥ ४१ - ४२ ॥ ते प्रभुए दानवोने उत्पन्न कराने पाछा केम मार्या ? केमके जगतमां एवो कोई पण पिता होतो नथी के जे पोताना पुत्रनो नाश करवावालो होय ॥ ४३ ॥ जो ते तृप्त छे तो भोजन केम करे छे? जो अमर छे तो अवतार लइ लइने केम मरे छे? जो भय अने क्रोधथी रहित छे तो शस्त्र शा माटे धारण करे छे? ॥ ४४ ॥ सर्वज्ञ थइनेपण नस, लोही, मांस, हाडकां, चरबी, वीर्य, वगेरेथी दोषवाला विष्टाना घर गर्भमां केम रह्या ? ॥ ४५ ॥ आ प्रमाणे हमे हमारा देवेना संबंधमां 'विचार करीए छीए तो पूर्वापर विचार करवावाळा हमारा सघळानी भक्ति तारा वचनोमांज थाय छे, एटले तमारंज कहे सत्य छ ॥ ४६ ॥ जे पुरुष पोताना संदेहनेन दुर करी शकतो नथी, ते बीजा हेतुवादिओने शुं उत्तर आपशे ? ॥ ४७ ॥ हे भाई ! खरेखर तें हमने जीती लीधा. हवे तुं जयलामरुपी आभुषणथी भुषित थइने जा. हमे पण हवे सवळा दोषरहित देवने शाधीशुं, केमके जे पोतानुं कल्याण चाहे छे तेणे जन्म, मृत्यु, जरा, रोग, क्रोध, लाभ, अने भयनो नाश करवावाळा पूर्वापर दोष रहित देवने ओळखीने ग्रहण करवा जोइए ॥ ४८ ॥ आ प्रमाणे ब्राह्मणोना कहेवा पछी जिनेंद्रभगवाननां वचनरुपी जळथी निर्मल कर्यु छ पोतानुं चित्त जेणे एवो ते सुबुद्धि मनोवेग विद्याधर Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादशाळामाथी नाकळीने गयो ॥ ४९-५० ॥ ते पछी तेज बागमां जईने पोताना मित्र पवनवेगने कहेवा लाग्यो के, हे मित्र ! तें आ लौकिक सामान्य देवने विचार पूर्वक सांभळ्या ? हवे हुँ तारा संशयरुपी अंधकारने नाश करवावाळा सूर्यना समान थोडं अनुक्रमनुं स्वरुप बीजं पण कहुं छु ते सांभळ ॥ ५१-५२ ॥ हे मित्र ! आ भारतवर्षमा छ रुतुनी माफक पोताना जुदा जुदा स्वभावोने लइने छ काल अनुक्रमेथया करे छे ।।१३।। एमाथी चोथा कालमां चन्द्रमा समान उज्वल कीर्तिना धारक जगतमान्य ६३ शलाका पुरुष ( उत्तम पुरुप ) उत्पन्न थाय छे ।। ५४ ॥ एमां चोवीश तर्थिकर ( अरहंत ) बार चक्रवर्ति, नव बलभद्र ( राम ), नव नारायण अने नव प्रतिनारायण ( बलभद्र अने नारायणना शत्रु ) थाय छे ॥ ५५ ॥ आ समये ते सघळा पृथ्वीमंडलना आभरणरुप उत्पन्न थइ थईने व्यतीत थई गया, केमके जगतमां एवो कोईपण पदार्थ नथी के जेने काल भक्षण न करे ॥ ५६ ॥ नारायणोमां छेल्ला नारायण वसुदेवना पुत्र श्रीकृष्ण थया, तेने आ ब्राह्मण भक्तोए निरंजन परमोष्ठ मानी लीया छे ॥ ५७ ॥ अने कहे छे के जे पुरुष सर्वव्यापी, निष्कल घडपणमरणना नाशक, अछेद्य, अव्यय, देव विष्णुरुप मूर्तिनें ध्यान करे छे, ते दुःख पामता नथी । ५८ ॥ तथा जे विष्णुने मीन, कूर्म, शकर, नरसिंह, वामन, राम, फरसराम, कृष्ण, बुद्ध अने कल्कि आ दश अवताररुप कहीने निष्कलंक एटले शरिररहित पण कह्या अने दश अवतारना धारी पण बताव्या, माटे आ प्रकारे पूर्वापर विरोधवाला देवने विद्वान माणस कदापि साचो देव कही शकता नथी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५९-६० ॥ बलिना बंधननी साची कथा हुँ कहुं छु, के जेने मृढ माणसोए कईचें कई प्रसिद्ध करी दीधुं छे.॥ ६१ ॥ एक समये बलि नामना एक दुष्ट ब्राह्मण मंत्रीए मुनिओने उपसर्ग कों हतो, तेथी ऋद्धिप्राप्त विष्णुकुमार नामना एक मुनिए वामननुं रुप धारण करीने त्रण पगलां जमीन मागीने बलिने वचनथी बांधी लीधो अने मुनिओनी रक्षा करी हती. आ प्रमाणे जे कथा छे तेने मूढ लोकोए जुदाज प्रकारे मानी छे ॥ ६२-६३ ॥ नित्य, निरंजन, सूक्ष्म, मृत्यु, जन्मी रहित तथा निष्कल होईने तेणे दश अवतार केवी रीते धारण कर्या ? ॥ ६४ ॥ हे मित्र! एज प्रमाणे पूर्वापर विरोधी भरला ए लोकोनां पुराण छे, ते तने फरीथी बताईं छु, एम कहीने ते मनोवेगे लाकडां वेचनार- रुप बदल्युं ॥ ६५ ॥ ए पछी पोतानी विद्याना प्रभावथी ते मनोवेगे वक्र छे केशोनो भार जेनो, काजळना. रुप समान, मोटा मोटा हाथ पगवाना भीलनुं रुप धारण कर्यु ।। ६६ ॥ एज प्रमाणे पवनवेगे पण मार्जारी विद्याथी पीली आंखोवाला कापेला कानवाला काळा बिलाडानुं रुप धारण कर्यु ॥ ६७ ॥ ए पछी ते मनोवेग नगरमां जइने बिलाडाने एक घडामा राखी बीजी वादशालामां पहोंच्यों, अने त्यां जइने बंट वगाडी ने सोनाना सिंहासनपर जई बेठो ॥ ६८ ॥ घंटनो अनाज सांभळीने वादी ब्राह्मणो तरत आवीने मनोवेगने कहेवा लाग्या के, अरे ओ! तुं वाद कर्या वगरज आ सोनाना सिंहासन उपर केम बेठो?॥६९॥त्यारे मनोवेगे कह्यु के हे ब्राह्मणो ! वाद ए नामनेज नथी जाणतो तो हुँ पशु समान वनमांफरवावाळो बाद केवीरीते करी शकुं? ॥ ७० ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के-हे Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦૨ • मूर्ख! जो तुं वादनुं नामज जाणतो नथी तो ब्राह्मणोने वादनी सूचन' करवावाळी भेरीने बगाडी आ सोनाना सिंहासन उपर केम बेठो ! ॥ ७१ ॥ मनोवेगे कह्युं के, हुं तो मात्र कौतुकथी भेरी वगाडीने आ सिंहासन उपर बसी गयो, नहि के वादनी इच्छायी ॥ ७२ ॥ जो सोनाना सिंहासन उपर मूर्खने बेसवुं योग्य नथी तो हे विप्रो, लो, हुं उतरी जाउं हुं, एम कहीने ते मनोवेग नीचे बेसी गयो || ७३ त्यारे विप्रोए कहां के, तुं आईंयां शामाटे आव्यो छे? मनोवेगे कह्युं के हुं भील छं. आ एक बिलाडो बेचवाने आपहुं ॥ ७४ ॥ ब्राह्मणोए कह्युं के आ बिलाडामां गुण शुं छे अने एनुं मूल्य शुं छे ते कहो. मनोवेगे कहां के, गरुडथी सर्पोनी माफक आ बिलाडानी फक्त गंधथीज ४८ कोष सुधीना उंदरोनो नाश थई जाय छे || ७५-७६ ॥ हे विप्रो ! आ मोटा प्रभावशाली बिलाडानुं मूल्य पचास सोनानी मोहर छे. जो तमने खप होय तो लइ लो ॥ ७७ ॥ ते पछी सवळा ब्राह्मणो परस्पर कहेवा लाग्या के सघळा उंदरोनो नाश करवामां समर्थ एवो आ बिलाडो लइ लेबो जोइए ॥ ७८ ॥ एक दिवसमा उंदर जेटला द्रव्यनो नाश करी दे छे तो शुं तेनाथी हजारमो भाग पण एनो न आपवामां आवे ? ॥ ७९ ॥ ए पछी सघळा ब्राह्मणोए मळीने तेज वखते ते बिलाडो पचास मोहर आपीने लई लधो, ते उचित छे दुर्लभ्य वस्तु मेळववामां बुद्धिमान विलंब करता नथी परंतु ॥ ८० ॥ त्यार मनोवेगे कह्यं के, हे विप्रो ! ए. बिलाडो त परिक्षा करीने लो, नहि तो मोठी हानी थशे तेनो पछी मने दोष आपता नहि ॥ ८१ ॥ आ बात सांभळीने ते ब्राह्मणोए बिलाडाने जोयो तो तेना कानने जोईने कहेवा लाग्या के एना कान केवी रीते जता Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रह्या ते कहो ॥ ८२ ॥ त्यारे मनोवेगे कां के रातना हमे एक देवालयमां थाकेला सूई गया हता, ते मंदिरमा उंदरो बहु हता ॥ ८३ ॥ त्यां आगळ आ बिलाडो पण भूखनो मार्यो निद्रामा सुई रह्यो हतो, तेथी ते सघळा उंदरोए मळीने तेना कान करडी करडीने खाई लीघा ॥ ८४ ॥ त्यारे बाह्मणोए अत्यंत मश्करी साथे कडूं के, हे मूर्ख ! तारुं वचन बिलकुल जुलुं छे, केमके जेनी फक्त गंवीज ४८ कोस सूधीना उंदरोनो नाश थई जाय छे, तेना कान उंदरोए केवी रीते कापी खाधा? ॥ ८५-८६ ॥ त्यारे जिनेन्द्र भगवानना चरणरुपी कमळोमां भ्रमर समान ते मनोवेग कहेवा लाग्यो के, हे विप्रगणो! शुं आ एक दोषथी एना सवळा गुगतो नाश थई गयो ? ॥ ८७ ॥ ब्राह्मणोए कह्यु के बेशक, आ एक दोषथी एना बीजा सघळा गुण पण गया. शुं दहींनुं एक टीपुं मात्र पड़ी जबाथी दुध नथी फाटी जतुं ? ॥ ८८ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के, हे ब्राह्मणो! एना एक दोषथी सघळा गुण कदापि नाश न थइ शके. शुं अंधकारथी ढांकेला सुर्यनां किरण कंइ चाल्यां जाय छे ? ॥ ८९ ॥ हुं तो दारिद्रनो पुत्र छु, वनमां पशुनी माफक रहेवावाळो छु, तमारा जेवा विद्वानो साथे वादविवाद करी शकतो नथी ॥ ९०॥ ब्राह्मणोए कह्यु के भाई ! एमां तमारो कई दोष नथी, परंतु आ बिलाडानुं दूषण दूर कर. त्यारे मनोवेगे कह्यु के॥ ९१ ॥ बेशक, हुं आ बिलाडानुं दूषण दूर करी शकुं, परंतु तमे इश्वर समान आ नगरना राजा छो. तमारी साथे बोलतां मारुं मन डरेछे ॥ ९२ ॥ जे मनुष्य कुवामांना देडकानी समान अथवा कृतकबहेराना जेवा अथवा दुष्ट चाकरना जेवा होय तो तेना आगळ वस्तुनुं स्वरुष कहेतां Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ मनमां भयकारक शंका थाय छे ॥ ९३ ॥ जे पुरुष शास्त्रनी चातने न माने, पोतानी वस्तुने नानी होवा छतां बहु मोटी कहे अने पारकी वस्तुनुं परिमाण न करे, ते पुरुष कुवामांना देडकाना जेवो कहेवाय छे ॥ ९४ ॥ जेम एक समये समुद्रमा रहेनार राजहंसने जोइने कोई कुवाना देडकाए पूछयु के, तमे क्यां रहो छो ? हंसे कह्यु के, हुं समुद्रमा रहुं छु. त्यारे देडकाए पूछयु के तारो समुद्र केटलो मोटो छे, तो हसे कयुं के बहु मोटो छे ॥ ९५ ॥ त्यारे देडकाए पोताना हाथ पग पहोळा करीने कयुं के समुद्र आटलो मोटो छे ? त्यारे हंसे कयुं के, भाई ! समुद्र बहुज मोटो छे. देडकाए का के, शुं मारा कुवाथी पण मोटो छ ? तो हंसे कयुं के भाई, एनाथी बहुज मोटो छे, परंतु ते देडकाए हंसनु कहे, जुठं मान्यु. जे प्रमाणे एक कहेवत छे के, हाथ पसारे पांव पसारे और पसारा गात ॥ ईससे बडा समुद्र है ( तो) कहन सुननकी वात ॥१॥ माटे हे ब्राह्मणो ! आ देडकानी माफक जे सत्यवचनने पण स्वीकार न करे तेने पंडित माणसो कईपण कहता नथी, कमके सत्पुरुष व्यर्थ कार्य कदी करता नथी ॥ ९६-९७ ॥ जे पुरुष स्वजनोना तथा सारां शास्त्रोना शब्दोद्वारा निवारण करेला शब्दोने नहि सांभळीने ढोल वगेरेना शब्दोथी बीजा शब्दोने आच्छादन करीने कोइ कार्यनो आरंभ करे छे, तेज निकृष्ट कृतकबधिर नामनो मूर्ख कहेवाय छे ॥ ९८ ॥ जे पुरुष राजाने तृष्णावान दुष्टमति, कृपण जाणीने पण छोडतो नथी अने अनेक प्रकारना क्लेश ने भोगवे छे, तेज निंदनीय क्लष्ट भृत्य कहेलो छे ॥ ९९ ॥ जे Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ मनुष्य आ त्रणेनी समान कार्य अकार्यने प्रगट करवावाळा, वचनने मुट्ठीओ मां उडाववावाळा, दीन निबुद्धि छे, तेनी आगळ पंडितजनोथी पूजनीय अविनाशीक मोक्षलक्ष्मिने जोवावाळा निर्दोष, अपरिमाण ज्ञानना धारक सत्पुरुषोए तत्त्व ( वस्तुनुं सत्यार्थ स्वरुप ) कहेवू जोईए नहि ॥ १० ॥ आ प्रमाणे श्री अमितगति आचार्य कृत 'धर्म परिक्षा' संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाटीकामां दशमुं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ १० ॥ ANN HOME A SW INE Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्रकरण ११ मुं. ए पछी ब्राह्मणोए कहुं के हे भाई ! शुं हमे एवा मूर्ख छीए के जे युक्तिथी खुल्ली रीते सिद्ध करेलां वचनने पण न समजीए ? ॥ १ ॥ त्यारे विद्याधरना चतुर पुत्रे कयु के हे विप्रो ! जो एम छे तो हुं मारा मनोभाव प्रगट करूं छु ते सांभळो ॥ २॥ जे प्रमाणे सूर्यमां तेज छे तेज प्रकारे निवास कोंछे दोष जेमां एवी तपस्यानुं घर एक मंडपकौशिक नामनो तपस्वी हतो ॥३॥ ते एक समये तारामां चन्द्रमानी माफक पवित्र शरिरवाळा तपस्विओनी साथे भोजन करवाने माटे बेठो हतो, त्यारे तेने नोंदनीय चंडालनी माफक बेठेलो जोईने तेनो स्पर्श थवानो छे चित्तमां भय जेमने एवा ते सघळा तपस्वी तेज वखते उभा थई गया ॥ ४-५ ॥ त्यारे मंडप कौशिके तेमने कह्यु के, तमारी साथे भोजन करता मने कूतरा समान जोइने तमे लोको केम उभा थया? ॥ ६ ॥ त्यारे तपस्त्रिओए कह्यु के, तमे पुत्रनुं मुख जोयुं नथी, हमणां सूधी कुमार ब्रह्मचारीज छो, ए माटे तापसिओना नियमथी उलटा छो, केमके, ॥ ७ ॥ पुत्र वगरनानी ( जेणे पुत्रनुं मुख जोयुं न होय तेनी ) गति थती नथी अने तेना तपथी स्वर्ग पण मळतुं नथी. ए कारणथी पहलां ग्रहस्थाश्रम धारणपूर्वक पुत्रनुं मुख जोइने मोक्षने माटे तपस्या ग्रहण करवामां आवे छे. जो तने मोक्षनी इच्छा होय तो पहेलां गृहस्थाश्रम धारणपूर्वक पुत्र मुखनां दर्शन कर ॥ ८ ॥ त्यारे ते मंडपकौशिके ते रुायओनी आज्ञानुसार Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ पोताना जाति भाइओ पासे लग्नने माटे कन्या मांगी, परंतु तेनी उमर बहु मोटी होवाने लीधे कोई पण पोतानी कन्या आपवा ना पाडी ॥ ९ ॥ त्यारे तेज वखते तपस्विओनी पासे जईने पूछयुं के मने घरडो जाणीने कोइपण पोतानी कन्या आपतुं नथी, माटे हवे हुं शुं करूं? ॥ १० ॥ त्यारे ते रुषिओए आज्ञा करी के तुं कोई विधवाने गृहण करीने सुख भोगव. आ प्रमाणे करवामां तमने बन्नेने कोई पण दोष नथी, केमके अमारा रुपिमतमां (स्मृतियोमा ) कह्युं छे के ॥ ११ ॥ पतिना परदेश चाल्या जवाथी, नपुंसक होवाथी, रोगी के दरिद्री होवाथी, नासी जवाथी, पतित होवाथी तथा मरी जवाथी, आ पांच आपदामां स्त्रीने माटे बीजो पति करायछे ||१२|| त्यारे पण तेणे रूषी ओनी आज्ञानुसार एक विधवा ने ग्रहण करी. आ जगत उपदेश वगरज विषयोनी लालसा राखे छे, तो गुरु जनोनी आज्ञा होवाथी केम ईच्छा न करे ? || १३ || ते स्त्रीनी साथे भोग विलास करता करतां तेने लक्ष्मिसमान रुपवती एक अतिशय मनोहर कन्या उत्पन्न थई ॥ १४ ॥ ते कन्या जेम जेम मोढी थती गई तेम तेम ब्रह्मा विष्णु महेश अने इन्द्रादिक देवोना अनिवार्य कामदेवने वधारवा लागी ॥ १५ ॥ ते कन्या स्ववर्णनी कान्तिना समान कान्तिवाळी, विद्वानोने प्रिय एवा गुण अने कळाओनुं घर हती, अने तेणे छाया नाम धारण कर्यु ॥ १६ ॥ पोतानी कांतिरुपी संपदाथी सघळी स्त्रीओने जीतिने रही, जेनी समान तेनी छायाज आदर्शरूप थई, बीजी कोई पण स्त्री तेनी बरोबरी धारण करवावाळी होती ॥ १७ ॥ जे प्रमाणे कंजुसना घरमा परोपकारिणि लक्ष्मि होय छे, ते प्रमाणे ते सुंदर कन्या ते मंडपकौशिकने घेर आठ वर्षनी थई गई ॥ १८ ॥ एक दिवस मंडपकौशिके पोतानी स्त्रीने कधुं के, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦૮ हे प्रिया ! मारी ईच्छा छे के सघळी पापोने नाश करवावाली तीर्थयात्रा कराए ॥ १९ ॥ परंतु सुवर्ण समान छे कांति जेनी, शुभ लक्षणोनी धारक, नवीन युवान अवस्थाने धारण करवावाळी आ छायाने कया देवना हाथमां सोंपी जईए ? केमके जेने आ कन्या सोंपाशे, तेज पोतानी करी बेसशे. केमके आ लोकमां एवं कोई पण जणातुं नथी जे रामरुपी रत्नथी पराङमुख होय ॥ २०-२१ ॥ जे महादेवे छे ते तो हमेशां कामरूपी अग्निथी तप्ता यमान थईने पोताना अर्धा शरिरमां पार्वतीने राखे छे. सर्पोथी वेष्टित अने विषमेक्षण छे. तथा पोताना शरिरमा रहेवावाळी प्रिय पार्वतीने छोडीने गंगाने सेवन करे छे, माटे आवी उत्तम लक्षणोवाळी कन्या मळेथी केम छोडशे ? ॥ २२२३ ॥ जेना दुर्निवार हृदयमां हमेशां समुद्रनी वडवानळ समान महां तापकारक कामाग्नि प्रज्वलित थइ रही छे, एवा महाकामी महादेवना हाथमां आ कन्या केवी रीते सोंपाय ? पंडितजन छे, तेओ रक्षाने माटे बिलाडीने दूध की सपता नथी || २४ - २५ ॥ तथा जे विष्णु नदीओने सेवन करेला समुद्रनी माफक निरंतर सोळ हजार गोपिओने सेवन करवा छतां पण तृप्तिने प्राप्त थता नथी अने हृदयस्थित लक्ष्मने छाडीने गोपिओमां रमे छे, ते महादेव आ सुंदर कन्या मळथी केम छोडशे ? ॥ २६-२७ ॥ माटे हे प्रिया ! एवा विष्णुने आ कन्या केवी रीते सोपुं ! शुं कोइ रक्षा करवाने माटे चोरनाज हाथमां रत्न आपेछे ? ॥ २८ ॥ जे ब्रह्माए देवांगनाना नृत्य मात्र जोवाने माटे पोतानी उत्तम तपस्या छोडी दीधी, ते ब्रह्मा सुंदर कामिनी मळेथी शुं नहि करे ? ॥ २९ ॥ ते ब्रह्मानी कथा आ प्रमाणे छे: एक समये अचानक इन्द्रनुं आसन कंपायमान थवाथी इन्द्रे ब्रहस्पतिने Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछयं के, हे साधु ! मारुं आसन कोणे कंपायमान कर्यु ? ॥ ३० ॥ त्यारे ब्रहस्पतिए कह्यु के-हे देव ! आपनुं राज्य लेवानी इच्छाथी ब्रह्माने तप करतां आज चार हजार वर्ष वीति गयां छे, माटे हे प्रभु ! ते तपना महा प्रभावीज आपनुं आसन कंपित थई गयुं छे. ते उचितज छे के तपना प्रभावथी शुं साध्य थतुं नथी ? ॥ ३१-३२ ॥ ए माटे हे हरि ! हवे कोई उत्तम स्त्रीने मोकलीने तेना तपनो नाश करो. स्त्रीना सिवाय तपहरण करवानो बीजो कोई षण उत्कृष्ट उपाय नथी ॥ ३३ ॥ • त्यारे इन्द्रे मनोहर मनोहर सघळी स्त्रीओनुं थोडं थोडं रुप लइने एक बहु सुंदर स्त्री ( अप्सरा ) बनावी, जेनुं नाम “तिलोत्तमा " राख्यु अने तेने आज्ञा करी के तुं ब्रह्मानी पासे जइने तेने तपथी भ्रष्ट कर, आ प्रमाणे कहीने तिलोत्तमाने ब्रह्मानी पासे मोकली ॥ ३४-३५ ॥ ते पछी तिलोत्तमाए तेज वखते ब्रह्माजीनी पासे जइने जुना दारु समान मनने मोहित करवामां तत्पर एवो रसपूरि सुंदर नाच करवो शरु कर्यों ॥३६॥ तथा ते चतुर तिलोत्तमाए ब्रह्माना कामरुपी वृक्षने वधारवाने माटें मेघ समान शरिरना गुप्त अवयव देखाडया, जेने जोवाथी ब्रह्मानी चंचल नजर ते तिलोत्तमाना शरिरमां-कदी पगमां, तो कदी तेनी जंघा अथवा उरुस्थलमां, कदी विस्तीर्ण जघनस्थलमां, कदी नाभि उपर तो कदी बन्ने स्तनो उपर, स्तनो उपरथी खसी तो गर्दन तथा मुखरुपी कमल उपर जई अटकी. आ प्रमाणे बहु वखत सुधी आम तेम दोडती तथा विश्राम करती क्रीडा करवा लागी ॥ ३७-३८-३९ ॥ ते मंदगामिनी तिलोत्तमा विलास विभ्रमना आधारभूत विन्ध्याचलने नमर्दानी माफक ब्रह्माना हृदयने भेदवा लागी ॥ ४० ॥ ते पछी तेणे ब्रह्माने नजरमां लवलीन Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणीने अनुक्रमथी दक्षिण उत्तर अने पीठ पाछळ नाच करीने तेना मनने चारे तरफ भमाव्यु, परंतु- ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजीए लज्जाने वशीभूत. थईने नाच जोवाने माटे पोतानी गर्दनने आमतेम फेरवीने नाच जोयो नहि जे उचितज छे के- लज्जा, मान अने मायाथी कोई पण उत्तम काम थतुं नथी॥ ४२ ॥ ज्यारे लज्जा अने मानथी पोतानी गर्दन फेरवीने तिलोत्तमाना रुपने जोई शक्या नहि त्यारे लाचार थईने ते नष्टबुद्धि ब्रह्माए एक हजार वर्षनी तपस्यानु फल गुमावीने दरेक दिशामां एक एक नg मों बनावीने तेना (तिलोत्तमाना) रुपने जीवा लाग्या ॥ ४३ ॥ ज्यारे तिलोत्तमाए ब्रह्माने अतिशय आसक्त नजरवाला जोया तो ते पछी आकाशमां नृत्य करवा लागी. ते ठीकज छे, स्त्रिओ रक्तचित्त पुरुषने कयो नाच नचावती नथी?॥ ४४ ॥ लाचार ब्रह्माए पांचसो वर्षनी तपस्यानुं फल गुमावीने पांचमुं गधेडा- मोंढुं बनाव्यु, अने तिलोत्तमाने आकाशमां जोवा लाग्या, परंतु ते तिलोत्तमाना नाचने जावा पाम्या नहि अने तेनुं तप पण पुरुं थयुं नहि. रागने वशीभूत थइने ते ब्रह्मा बन्नेतरफ नष्टभ्रष्ट थया॥ ४५-४६ ॥ आ प्रमाणे ते तिलोत्तमां ब्रह्माने तपथी भ्रष्ट करीने स्वर्गमां चाली गई. ते ठीकज छे, स्त्री सघ ला रागीओने मोहित करीने ठगछे ॥ ४७ ॥ ज्यारे ते नष्टबुद्धि ब्रह्माए तिलोतमाने न जोई, तो बहु उदास अने खिसियाणा थइने दर्शन माटे आवेला देवो उपर क्रोध करवा लाग्या अने पोताना गधेडाना मुखथी ते देवोने ग्वावाने माटे तत्पर थया. ते उचितज छे, खिसियाणो थयेलो मनुष्य स्वभावथीज दरके पर क्रोध कर्या करछे ॥४८॥ ॥ ४९ ॥ ते पछी ते देवता गभराइने महादेवजीनी पासे पहोंच्या अने Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ तेने ब्रह्माजीना गुस्से थवाना सघळा समाचार कह्या, ते ठीकज छे के पोताना दुःखनो नाश करवाने माटे सघळा माणसो उपाय करे छे ॥ ५७ ॥ देवोनी प्रार्थना सांभळीने महादेवजी तेज वखत ब्रह्मानी पासे पहोंच्या अने तेमणे गधेडानुं पांचमुं माधुं कापी लीधुं. ते ठीकज छे, - पारकानो अपकार करवावाळानुं मस्तक कापवामां आवे तो तेमां संदेह शुं छे ? ॥ ५१ ॥ ते पछी ब्रह्माए पण अतिशय क्रोध करीने महादेवजीने. श्राप दीघो के तें जे आ ब्रह्महत्या करीछे, ए कारणथी तारा हाथथी आ शिर कदी पडशे नहि ॥ १२ ॥ त्यारे महादेवजीए लाचार थईने प्रार्थना करी के, हे साधु ! बेशक में ब्रह्महत्या करी, परंतु हवे आप मारापर दया करीने आ श्रापथी छोडावो, त्यारे ब्रह्माए पार्वतीना पतिने (महादेवजीने) कह्युं के, हे शंभु ! आ मारा मस्तकने ज्यारे विष्णु भगवान पोताना रक्तथी सिंचन करशे त्यारे ए मारूं शिर तारा हाथमांथी पडी जशे ! ॥ ५३-५४ ॥ त्यारे महादेवजीए ब्रह्मानी आज्ञा शिरपर धरीने कपालवत अंगीकार कर्यु. खेद छे के सर्वव्यापि प्रपंच देवोथी पण छोडी शकातो नथी ॥ ५५ ॥ ते पछी ब्रह्महत्याने दूर करवाने माटे महादेवजी विष्णुनी पासे गया ते ठीकज छे, के पोताने पवित्र करवाने माटे आ जगतजन कोनो आश्रय करता नथी ! ॥ ५६ ॥ आयां ब्रह्माजी हरणोथी भरेला एक वनमा प्रवेश कर्यो, ते ठीकने के छे तीव्र कामरुपी अग्निथी सन्तप्त पुरुष, चेतना रहित होईने शुं करतोनथी ॥ ५७ ॥ ते वनमां एक रींछणीने रुतुमति जोईने ब्रह्माजी तेनीज साथे रमवा लाग्या. ते उचितज छे के, कामाग्निथी पीडीत माणसाने गधेडी. पण अप्सरा देखाय छे ॥ ५८ ॥ ते रींछणीए गर्भ धारण करीने पूरा * Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवस थवा वा त्रण भवनमा प्रसिध्ध जांबव नामनो पुत्र जण्यो ॥ ५९॥ आ प्रमाणे जे ब्रह्मा कामातचित्त थइने त्तिर्यंचने पण सेवन करे छे ते मूढ आ सुंदर कन्याने केम छोडशे? ॥६० ॥ तथा गौतमरुषिनी स्त्री अहल्याने कामने बेलासमान सांभळीने जे वखते परस्त्रीलंपट इन्द्र विह्वल थइ गया ॥ ६१ ॥ त्यारे गौतमरुषीए क्रोध करीने श्राप दीधो तथा ते इन्द्र शस्त्रभग थई गया. ते ठीकज छे,-मन्मथना आज्ञाकारी एवा कोण पुरुष छे के जे दुःखने प्राप्त थता नथी? ॥६२॥ ज्यारे देवोए बहु प्रार्थना करी के हे मुनि! कृपा करो ( माफ करो ) त्यारे ते अनुग्रहकारी मुनिए इन्द्रने सहस्त्राक्ष ( हजार नेत्रवाला ) बनावी दीधा. ६३ ॥ आ प्रमाणे काम अथवा मोह तथा मृत्युद्वारा पीडीत न होय, एवा दोष रहित देव आ लोकमां कोई पण देखता नथी. परंतु एक यमराज देव छे जे वास्तवमा सत्यता अने पवित्रतामां परायण, पोताना विपक्षने मर्दन करवामां धीर अने समयवर्ति छे ॥६४-६५ ॥ माटे तेनजि पासे आ कन्याने जq जोईए, एवो विचार करीने छाया नामनी पोतानी कन्याने यमराजनी पासे राखी ने ते मंडपकौशिक पोतानी स्त्री सहित तीर्थयात्रा चाल्यो गयो, ते ठीकज छे के पंडित माणस निराकुल होवाथीज धर्मकायमा प्रवृति करे छे ॥ ६६-६७॥ तेना चाल्या गया पछी यमराजे ते छायाने कामरुपी वृक्ष ने माटे पृथ्वी समान जोईने तेज वखते पोतानी स्त्री वनावी लीधी. केमके दुनियामां एवा कोई पण नहि हशे के, जेओ स्त्रिओमां लबलिन न होय ॥ ६८ ॥ यमराजे ते छायाने जती रहवाना डरथी पोताना पेटमां छुपावी राखी. ते उचितज छे,-कुबुद्धि कामीजन पोतानी प्रिय स्त्रीने क्यां नथी राखता नथी ॥ ६९ ॥ ते पछी ते यमराज ते छायाने पेटमाथी काढी का Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढीने तेनी साथे वारंवार रमवा लाग्यो अने रमी रह्या पछी जती रहवाना डरथी पाछी पोताना पेटमा राखवा लाग्यो ॥ ७० ॥ आ प्रमाणे यमराज तेनी साथे रतामृत भोगवतां भोगवतां पोतानो समय सुखथी गाळतो पोताने इन्द्रयी पण अधिक मानवा लाग्यो ॥ ७१ ॥ एवो रिवाजज छे के, कलम, पुस्तक अने स्त्री पारके हाथ गयली पाछी आवती नथी. कदाच आवे छे तो टुटी फूटी वापरेली मळे छे ॥ ७२ ॥ एक समये पवनदेवे अग्निदेवने कह्यु के हे भाई! देवोमां तो आजकाल एक यमराजज पोतानो काळ सुखथी गाळे छे, केमके तेणे रतामृतनी नदी समान एक मनोहर स्त्री मेळवी छे, माटे तेने द्रढालिंगन करीने सुखरुपी सागरमां मग्न थइने सूवे छे! ॥ ७३-७४ ॥ ते नितम्बिनीना आपेला पवित्र सुखमां गंगाना जलथी समुद्रना. समान यमराज कदी तृप्तन थतां नथी ॥ ७५ ॥ आ सांभळीने अग्निदेवे कह्यु, ते तेनी साथे मारो मेळाप केवी रीते थाय? त्यारे पवनदेवे कह्यु के, ॥ ७६ ॥ यमराजनी रक्षामा रहेली ते स्त्री जोवाने पण मळती नथी तो तेनो मेळाप केवी रीते थई शके? ॥ ७७ ॥ केमके ते स्त्री पोतानी शोभाथी सघळी देवांगनाओने जीतवावाळी छे, माटे यमराज रतामृत भोगव्या पछी तेने पोताना पेटमा राखी लेछे ॥७८॥ परंतु जे वखते यमराज नित्यकर्म करे छे ते वखते तेने एक पहोर सूधी पेटमाथी बहार काढीने राखे छे, ते वखते बेशक ते एकलीज जोवामां आवे छे ॥ ७९ ॥ त्यारे अग्निदेवे कह्यु के, हे वायु ! एक पहोरमां तो हुं त्रण लोकमांथी कोई पण स्त्रीने ग्रहण करी शकुंछु, तो एकांतमां बेठेलीनी घातज शुं छे? ॥ ८० ॥ आचार्य कहे छे के, यौवनथी भूषित छ अंग जेनुं अने कामथी व्यापित छे शरिररुपी यष्टि जेनी, एवी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ एकांतमां बैठेली एकली स्त्रीने युवान पुरुष तरतज पोताना वशमां करी ले तो मां आश्चर्य शुं छे ? ॥ ८१ ॥ तीक्ष्ण कामरुपी बाणची भेदायुं छे शरिर जेनुं एवा ते अग्निदेव वायुने आ प्रमाणे कहीने ज्यां यमराज ते स्त्रीने पेटमाथी काढीने नित्यकर्म करता हता त्यां जई पहोंच्या ॥ ८२ ॥ यमराजे आवी, छायाने बहार काढीने पापरूपी मेलथी विशुद्ध वाने माटे गंगाजीमां प्रवेश कर्यो, तेज वखते अग्निदेव पोतानुं अत्यंत मनोहर रूप बनावीने अने छायाने ग्रहण करीने तेनी साथे रमत्रा लाग्यो || ८३ ॥जे प्रमाणे लीला पांतरांना ढगलाने जोईने मूर्ख बकरी ते पांतरांने खावा मंडी जाय छे, ते प्रमाणें रक्षा नहि करेली निरंकुश स्त्री मनी प्रसन्न थइ पोताना मन चाहे इष्ट पुरुषने ग्रहण करी लेछे, अने रोकवाथी कोप कर्या करे छे ॥ ८४ ॥ ते अग्निदेवनी साथे रमण कर्या पछी छायाए कह्युं के तुं अहियांथी तरतज चाल्यो जा, केमके मारा पति विरुद्धवृत्ति यमराजनो आववानो समय थई गयो छे ॥ ८५ ॥ जो ते मने तारी साथै जोशे तो गुस्से थईने मारुं नाक कापी नांखशे अने तने पण जानथी मारी नांखशे केमके - 'पोतानी खीना जारने जोईने कोई पण क्षमा करतो नथी' ॥ ८६ ॥ त्यारे ते पीनस्तनथी पीडित अंगवाळी छायाने आलिंगन दईने अग्निदेवे कहां के, हे प्रिया ! तने छोडीने हुं चाल्यो जाउं, तो मने दुष्ट चित्तवालो बियोगरूपी हाथी मारी नांखशे ॥ ८७ ॥ ते माटे हे प्रिया ! तारा सन्मुख दुष्ट यमराजना हाथथी मार्यो जाउं तो बहुज सारुं छे, परंतु दुःखी छे अंत जेनो एवी कामरूपी अग्निथी तारा विना निरंतर बळतां रहे श्रेष्ठ नथी ॥ ८८ ॥ आ प्रमाणे कहेता अग्निदेवने ते छायाए तेज Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वखते गळीने पोताना पेटमा राखी लीधी. पोताना प्रिय पुरुषने स्त्रीए हृदयमा राखी लीधो तो एमां कई पण आश्चर्य नथी ॥ ८९॥ ते पछी यमराजे पोतानुं नित्यकर्म करीने आ वातने कई पण न जाणीने छायाने पोताना पेटमा राखी दीधी ते उचितज छे-के स्त्राआन प्रपंच विद्वानोने पण अजाण्युं छे ॥९० ॥ त्यां अग्निदेव तो छाया अने यमराजना पेटमां अटकी गया, अहिंआं अग्नि वगर संसार मात्रमा रसोई बनाववी, होम करखो, दावो बाळवो वगेरे सघळां काम बंध थई गयां, त्यारे मनुष्य अने देव सघळा अग्नि विना पोतानो नाश समजीने घभराई गया ॥९१ ॥ पछी लाचार थईने इन्द्रे वायुदेवने कडं के हे सखे ! तुं सघळे फरेछे अने तारी सबळा देवाने त्यां गति छे. अग्निदेवे क्यां छे, ते तमे शाधीने पत्तो लगावो ॥ ९२ ॥ वायुए कह्यु के हे देव ! में अग्निदेवने सघळे शोध्या, परंतु कोईपण जग्याए पत्तो लाग्यो नहि. हा, एक जग्याए में शोध्या नथी, माटे हे देव! ते जग्याए पण शोधुंछु ॥ ९३ ॥ आ प्रमाणे कहीने वायुदेवे उत्तमोत्तम भोजन बनावाने सघळा देवोने आमंत्रण कयु, ज्यारे सवळा देव आवी रह्या त्यारे तेणे दरेक देवने माटे तो एक एक आसन आप्युं, परंतु यमराजने माटे त्रण आसन आप्यां ॥ ९४ ॥ ज्यारे सवळा देव बेसी गया, त्यारे अपरिमाण छे गति जेनी एवा वायुदेवे दरेक देवने तो एक एक भाग पीरस्यो, परंतु यमराजने त्रण भाग भोजन पारस्युं, ते ठीकन छ, प्रपंच कर्या वगर कोईनुं पण कार्य सिद्ध थतुं नथी ॥९५ ॥ इतिश्री अमितगति आचार्य कृत 'धर्म परिक्षा ' संस्कृत प्रयंनी गुजराती भाषाटिकामां अगीआरमुं प्रकरणं पूर्ण थयु ॥ ११ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १२ मुं. . ए पछी ज्यारे पोताना सन्मुख भोजनना त्रण भाग पीरसेला जोया -त्यारे यमराजे वायुदेवने कह्यु के हे पवन ! तें मारी आगळ त्रण भाग कम राख्या ? ॥ १ ॥ जो मारा पेटमां एक स्त्री छे तो बे भाग पीरसवा हता, तें त्रण भाग कया कारगथी पीरस्या ? ॥२॥ आ सांभळीने पवनदेवे कह्यु के-हे भाई ! पोताना मनने प्यारी स्त्रीने पेटमाथी काढ, तो तने पोतानी मेळेज त्रण भाग पीरसवानुं कारण मालम पडशे ॥ ३ ॥ ज्यारे यमराजे पेटमाथी छायाने काढी त्यारे तरत वायुदेवे छायाने कर्वा के हे भद्रे ! पोताना पेटमा रहेला अग्निदेवने जलदायी काढ ॥ ४ ॥ ज्यारे छायाए पोताना पेटमाथी प्रकाशमान अग्निदेवने काढया तो आ कौतुक जोई सघळा देव आश्चर्य पाम्या, ते उचितज छे के अदष्टपूर्व वस्तुने जोवाथी कोने आश्चर्य थतुं नथी ? ॥ ५ ॥ जे स्त्री कामातुर थईने बळती अग्निने गळी जाय छे ते स्त्रीने कोई पण वस्तु पाप्त करवी दुर्गम अथवा दुष्कर नथी ॥ ६ ॥ यमराज आग्निने जोईने घणो क्रोधित थयो अने दंड लइने मारवाने तैयार थयो, ते नीतिज छे के प्रत्यक्षमा पोतानी स्त्रीना जारने जोइने एवो कोण छे के जे तेना उपर क्षमा करे ? ॥ ७ ॥ यमराजने दंड लीधेला जोई अग्निदेव नासवा लाग्या, ते उचितज छेके नीच जारअथवा चोरोने धीरता क्याथी? ॥ ८ ॥ नासतां नासता थाकी गया त्यारे आग्निदेव व्रक्ष पाषाण वगेरेमां छुपाईने Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेसी गया, ते ठीकज छे के व्यभिचारी अने चोर छुपाईनेज रहे छे ॥९॥ जे अग्नि ते समये यमराजना भयथी वृक्ष अने पत्थरोमां छुपाया ते हमणां सुधी बुद्धिवानोना प्रयोग विना प्रगट थता नथी ॥ १० ॥ आ प्रमाणे कहीने मनोवेगे पूछयु के-हे विप्रो ! तमारा पुराणोमां आ कथा एज प्रमाणे छे के नहि ? ब्राह्मणोए कह्यु के खरेखर एवीज कथा छे! त्यारे मनोवेगे कयु के-हे ब्राह्मणो ! जे यमराज सघळाना शुभाशुभना जाणीता छे अने हमेशां शिष्टापर अनुग्रह अने दुष्टोपर दंड करवावाळा छे तेणे जो पोताना पेटमां स्थित प्रियाना पटेमां अग्निदेवने रहेता पण जाण्या नहि, तो तेनुं देवपणुं अथवा अग्निनु देवपणुं केम नहि चाल्युं गयुं ? ॥ ११-१२-१३ ॥ जे प्रमाणे आ नाना सरखा दोषथी तेनुं देवपणुं नहि गयु, तेज प्रमाणे ऊंदरोवडे मारा बिलाडाना कान कपाई जवाथी बीजा जे मोटा मोटा गुण छे, ते केवी रीते जई शके छ ? ॥ १४ ॥ आ सांभळीने ब्राह्मणोए प्रशंसापूर्वक का के-हे भद्र ! तमे बहुज सारं कडं. ते नीतिन छे के-जे समजदार सत्पुरुष होय छे, तेओ न्याय रहित पक्षनुं समर्थन कदापि करता नथी ॥ १५ ॥ हे भद्र ! हमे हमारा पुराणोनो जेम जेम विचार करीए छीए, तेम तेम तेना नर्णि वस्त्रोनी माफक सेंकडो भाग थाय छे, माटे शुं करीए, तेनुं हमे कोई प्रकारे पण समर्थन करी शकता नथी ॥ १६ ॥ आ प्रमाणे, ब्राह्मणानुं वचन सांभळीने मनोवेगे कह्यु के हे विप्रो ! संसाररुपी वृक्षने आग्निनी समान देव छे, तेनुं स्वरुप सांभळो ॥ १७ ॥ जेनुं चित्त, लावण्यरुपी जलनी लहेर, कामदेवने रहेवानी वस्ती, गुण अने सुंदरतानी खाण, कटाक्षरुपी बाणोवडे सघळा माणसोने घायल करवावाळी, त्रिलोकमां Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सघळाथी श्रेष्ट एवी स्त्रीओवडे न भेदाय तेवाज देवने मन वचन कायनी शुद्धतापूर्वक नमस्कार करो अने तेनुज शरण ग्रहण करो ॥ १८-१९ ॥ माटे हे विप्रो! जे कामने वशीभूत थई शंकरे पोतानुं पवित्र अने मोक्ष- कारण योंग छोडीने पार्वतीने पोताना अडधा अंगमा स्थापन कर्या,अने-॥ २० ॥ जे कामदेवनी आज्ञाथी सुखनी इच्छा राखवावाळा विष्णु गोपिओना नखच्छेदोथी शोभित पोताना हृदयमां लक्ष्मीने राखता तथा-॥ २१ ॥ जेना बाणोथी पीडित थईने ब्रह्माजीए तृण सभान तपश्चरणने छोडीने दिव्य तिलो-तमाना हृदयने जोवाने माटे चार मुख बनाव्यां तथा ॥ २२ ॥ जेणे पोताना दुर्वार तीक्ष्णबाणोथी घायल करी इन्द्रने दुष्कर्मोनु घर अने सहस्त्रभग बनावी दीधा तथा ॥२३॥जे कामदेवनी आज्ञाथी सघळा दोषोने आज्ञामां चलाववावाळा सघळाथी बलवान यमराजे चोरई जबाना डरथी छाया नामनी स्त्रीने पेटमा राखीने प्रिया बनावी तथा-॥ २४ ॥ जे कामदेवे त्रिलोकमां रहेवावाळा सघळा देवोमां प्रधान अग्निदेवने पत्थर अने वृक्षोमां प्रवेश कराव्यो, एवा दुर्जन कामदेवने जे देवे जीती लीधा, तेज परमेष्ठीना प्रसादथीज सघळानु कल्याण थई शके छे. ॥ २५-२६ ॥ आ प्रमाणे ब्राह्मणोनी आगळ परमात्मानो विचार करीने ते मनोवेगे पेला बागमां जईने पोताना मित्र पवनवेगने कह्यु के -॥ २७ ॥ हे मित्र! तें अन्यमतावलम्बिओना मानेला देवोनी वातो सांभळी? विचार करवामां चतुर छे आशय जेनो एवः पुरुषोए पोताना विचारना बलथी एवा रागी द्वेषी कामी देवीने छोडी देवा जोइए ॥ २८ ॥ हे मित्र! सवळा देवोमां अणिमा माहमादि आठ रिद्धिओ प्रसिध छे, तेमांथी लघिमा ( नीचपणा ) नामनी रुद्धिन ए देवोमां घणेभागे जोवामां आवे छे, Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २९ ॥ केमके ब्रह्मा तो महादेवना लग्नमां पुरोहित बनीने गयो हतो, ते पाणिग्रहण कराक्ती वखते पार्वतीना स्पर्श मात्रथी कामथी पीडित थई गया हतो ॥ ३० ॥ अने महादेवे ऋषिओनी कन्याने नृत्य करती वखते कष्ट आप्युं, जेथी ते ऋषिओद्वारा शिरच्छदेननी दुःसह पीडा भोगनतो थयो ॥ ३१ ॥ अने अहल्याए इन्द्रने, छायाए यमराज अने अग्निने, कुंतीए सूर्यने, अखंडित नीचपणाना कार्यमां लगाडया ॥ ३२ ॥ आ प्रमाणे लोकमां अनेक देव छे, परंतु जेमणे कामदेवनो नाश करी दीधो, एवा लोकसम्मत निर्दोष देव एक पण नथी ॥ ३३ ॥ हे साधु! हवे जैनमतमा गधेडाना शिरच्छेदननो जे साचो इतिहास छे, ते कहुं छं ते सांभळ ॥ ३४ ॥ जिनमतभा ११ रुद्र माने छे, जेमांथी छेल्लो रुद्र सासकी नामना मुनिना अंगथी ज्येष्ठा नामनी अर्जिका ( जैनसाध्वी ) ना गर्भथी उप्तन्न थयो हतो. ते मोटो थवाथी मुनिदिक्षा ग्रहण करने दुष्कर तपश्ररणना प्रभावथी अनेक प्रकारनी विद्याआनो स्वामी थई गयो ॥ ३५ ॥ जे प्रमाणे समुद्रमां नदिओनो मेलाप थाय छे, ते प्रमाणे आ धीर मुनिने पांचों तो मोटी मोटी विद्याओ अने सातसो नानी नानी विद्याओ प्राप्त थई ॥ ३६ ॥ ते अगीआरमो रुद्र जिनमतना अगीआर अंग चौदपुर्वमांथी दशमा पूर्व सूधीनो पाठी हतो, ते दशमा पूर्वमा विद्याओनो ( देवांगनाओनो ) अपरमिाण विभव जोईने मुनिना व्रतथी चलायमान थई गयो. ते ठीकज छे,के अनेक प्रकारना भोगाभिलाषकरवावाळी स्त्रिओद्वारा एवा कोण पुरुष छे केजे व्रतथी चलायमान नहि थाय? ॥ ३७॥ त्यारे ते मुनिए एक जग्याए विद्याधरोनी आठ कन्याओने जोईने तेज वखत मुनिपणाने छोडी ते कन्याओना पिताओ पासे याचना करी, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने तेणे आ आठे कन्या आ रुद्रने परणावी दीधी. ॥ ३८ ॥ परंतु ते रुद्रनी साथे रातकर्म करवामां असमर्थ थई. ते आठ विद्याधरनी पुत्रिओ मरी गई,ते नीतिज छेके-जे विपरीत कार्य थायछे, तेसघळां सत्यानाशने माटे ज थाय छे॥३९॥ते पछी ते महादेवे (रुद्रे ) पोतानी विद्योआवडे पर्वतराजनी बेटी पार्वतीने पोताना रतिप्रभावनीने सहेवावाळी समजीने तेनी साथे विवाह कर्यो. ते ठीकज छे, क जे मनवांछित कार्य करवावाला छे, ते सघळा योग्य उपायोमांज यत्न करीने पोतार्नु इच्छित कार्य सिद्ध करे छे ॥४०॥हवे एक दिवस ते रुद्र पार्वतीनी साथे रमण करीने त्रिशूलविद्याने ग्रहण करतो हतो, तेवामां परमारथी पतिव्रतानी माफक तरतज ते त्रिशूलविद्या नष्ट थई गई ॥ ४१ ॥ ते त्रिशूलविद्या नष्ट थवाथी स्वाभिमानमां तत्पर ते रुद्र ब्राह्मणी नामनी एक बीजी विद्याने साधवा लाग्यो ॥ ४२ ॥ अने ब्राह्मणी विद्यानी प्रतिमा बनावीने तेना सन्मुख मंत्रनो जाप करवा लाग्यो, त्यारे ब्राह्मणी विद्याए एने ध्यानमाथी चलायमान करवाने माटें विक्रिया करवानो आरंभ कीधो ॥ ४३ ॥ तेणे आकाशमां वाजूं वगाड', गीत गावू नाच करवो वगेरे विघ्न शरु कर्या. ज्यारे ते रुद्र उंचे जोवा लाग्यो तो तेणे एक सर्वोत्तम स्त्रीने जोई ॥ ४४ ॥ ज्यारे ते रुद्रे नीचे नजर करीने पेली प्रतिमाने जोई तो ते प्रतिमानी जग्याए एक दिव्य चर्तुमुखी मनुष्यने जोयो. ॥ ४५ ॥ तथा तेना शिर उपर एक गधेडानुं मुख प्रकट थतुं जोयुं, त्यारे ते रुद्रे पेला प्रकट थता शिरने उदय थता कमल पत्रनी माफक तेज वखते कापी लीधु, परंतु ते शिर सुखसौभाग्यादिन नष्ट करवावाळा पापनी माफक तेना हाथमां वळगाज रघु, नीचे पडयु नाहि ॥ ४६-४७ ॥ आ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ प्रमाणे ते ब्राह्मणी विद्या तेनी विद्यासाधनरुप जपादि क्रियाने नष्ट करीने पोतानी विक्रियाने संकोचीने चाली गई. ते ठीकज छे के निरर्थक पुरुषना आगळ कोई पण स्त्री रहेती नथीं ॥ ४८ ॥ ते पछी ते रुद्रे रात्रीना समये वर्धमान भगवानने श्मशानभूमिमां पद्मासनेथी ध्याना रुढ जोईने तेने विद्यारूपी मनुष्य समजीने मोटो उपद्रव क ॥ ४९ ॥ ज्यारे सवार थतां मालम पड्युं के एतो वर्धमान भगवान छे, त्यारे तेणे उदास थईने नमस्कारपूर्वक घणो पश्चाताप कर्यो अने तरतज तेमने पगे पडयो ॥ ५० ॥ ते जिनेन्द्र भगवानना स्पर्श मात्रथीज तेना हाथ मांथी विनयवानना मनथी पापना समान ते गधेडानुं मस्तक पडी गयुं ॥ ५१ ॥ हे मित्र ! गधेडानुं मस्तक कपायानो तो आ साचो इतिहास छे, परंतु मिथ्यात्वरूपी अंधकारथी अंधा थयेला पुरुषोए जुदाज प्रकारथी प्रसिद्ध करीने जगत्ना भोळा जीवाने बहकाव्या छे ॥ ५२ ॥ हे मित्र ! तने हुं फरी पण मोटुं कौतुक बतावुं छु, एम की मनोवेगे नग्नमुद्रायुक्त जैन मुनिनुं रुप धारण कर्यु अने पत्रनवेगने साथे लईने चतुर धर्मात्मा मनोवेगे पश्चिम तरफथी ते पटना नगरमा प्रवेश कर्यो अने ॥ ५३-५४ ॥ त्रीजी वादशालामां जईने ते ब्राह्मणोना मनमां वादी आव्यानी सूचना करवाने माटे वादसूचक घंट वगाडीने सोनाना सिंहासनउपर जईने बेठो ॥ ५५ ॥ जे प्रमाणे मेघनी गर्जना सांभळीने पोतानी गुफामांथी केसरीसिंह नीकळे छे, ते प्रमाणे पेला घंटनो अवाज सांभळतांना साथेज पक्षपातमां तत्पर सघळा ब्राह्मण पंडितो पोतपोताने घेरथी नीकळी पडया ॥ ५६ ॥ ते ब्राह्मणोए आवीने पूछयुं के - हे भद्र ! तमे हमारी साथे कयो वाद करवा चाहो छो ? त्यारे मनोवेगे कह्युं के हे Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विप्रो! वाद कई चीमने कहे छे, ते हुं आणतो नथी ॥ ५७ ॥ त्यारे ब्राह्मगोए कह्यु के जो वादनुं नामज जाणतो नथी तो वादसूचक घंट शा माटे वगाडयो ? त्यारे मनोगे कह्यु के, हे ब्राह्मणो ! में फोकट कौतकथी ज वगाडयो ॥ ५८ ॥ अने जन्मथी आजसूधी में आq सुंदर आसन जोडे नहोतुं, एकारणथी हुं एनाउपर बेसी गयो, वादना गर्वथी नहि. ते माटे क्रोध न करो, लो हुँ उतरी जाउं छु ॥ ५९ ॥ ए पछी ब्राह्मणोए कह्यु के-तारो गुरु कोण छे ते कहे. मनोवेगे कह्यु के-मारो गुरु कोई पण नथी. में पोते पोतानी मेळेज तप ग्रहण कर्यु छे ।। ६० ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के हे सुबुद्धे ! तमे गुरुविना पोतानी मेळे तपग्रहण कयु, माटे तेनुं शुं कारण छे? ॥ ६१ ॥ पारे मनोवेगे कयुं के हे ब्राह्मणो ! हुं एनुं कारण कहतां डरुंछु, परंतु तोपण हुं एक वात आपने कहुं छु ते सांभळो ॥ ६२ ॥ चम्पानगरीमां गुरुवाराजाना मंत्री हरि नामना ब्राह्मणे एक दिवस पाणीमां तरती एक शिला जोई, ते वखते तेनी पासे बीजो कोई पण मनुष्य नहोतो ॥ ६३ ॥ तेणे राजसभामां आवीने आ प्रत्यक्ष जोयलुं आश्चर्य राजा आगळ कयुं, त्यारे राजाए एनाउपर कंईपण विश्वास कों नहि, परंतु उलटा क्रोधित थईने आ असत्य बोलवाना अपराध माटे मंत्रीने केद काधो अने कयु के आ ब्राह्मणने जरुर कोई भूत लाग्युं छे. जो एम न होत तो ए आवी असंभव वात कदी करते नहि ॥ ६४-६५ ॥ ते पछी ते मंत्रीए कडं के हे देव ! में ए वात जूठीज कही दीधी हती, माटे अपराध क्षमा करो. आ प्रमाणे प्रार्थना करवाथी राजाए मंत्रीने छोडी दीधो ॥६६॥ पछी मंत्रीए एनो बदलो लेवानी इच्छाथी अनेक वांदराओने वाजुं वगाडतां तथा नाचतां गातां शीखवीने तैयार कर्या ॥ ६७ ॥ पछी एक दिवस Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ वनमां राजाने एकला जोई वांदराओ पासे सुंदर गायन, नाच कराव्यां, जेने जोईने राजा मोहित थई गयो ॥ ६८ ॥ ज्यारे राजाए तरतज पोताना मंत्री अने भटोने ते नाच देखाडवाने माटे बोलाव्या के, एटलामांज ते सघळा व।दरा पोतानुं गायन बंध करीने आम तेम नासी गया ॥ ६९ ॥ ज्यारे मंत्रीए कहां के हे भटगणो ! राजाने अवश्य कोई भूत वळग्युं छे, माटे एने बांधी लो सिपाइओए तेज वखते राजाने बांधी लीधा, ते पछी पेला तुष्टचित्त मंत्रीए हसीने राजाने छोडी दीधा अने कधुं के हे राजन ! जे प्रमाणे आपे वनमां वांदराओनो नाच जोयो, तेप्रमाणे में पण पाणीमां तरती शिला जोई हती ॥ ७०-७१-७२ ॥ राजा अने मंत्रीना वृतांतने जाणवावाळा विद्वानोंए प्रत्यक्ष जोयलुं पण श्रद्धा वगरनुं वचन कदी कहेतुं जोईए नहि ॥ ७३ ॥ तेज प्रमाणे हे ब्राह्मणो ! साक्षी वगर मारा एकलाना कहला वाक्यनो आप विश्वास नहि करशो, तेथी हुं पूछवा छतां पण मारा हाल कही शकतो नथी || ७४ ॥ यारे ब्राह्मणोए कह्युं के - हे भाई ! शुं हमे एवा मूर्ख छी जे युक्तिथी घटता वाक्यने पण नहि ओळखीए ? ॥ ७५ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्युं के जो तमे सत्यासत्यनो विचार करवावाळा छो तो हुं कहुं हुं ते एकचित थइने सांभळो ॥ ७६ ॥ श्रीपुरमा मुनिदत्त नामना श्रावक मारा पिता छे, तेणे मने एक ऋषीनी पासे भणवाने माटे मोकली दीधो ॥ ७७ ॥ एक दिवस ते ऋषी पोतानुं कमंडल आपीने मने पाणी लाववाने माटे मोकल्यो. हुं रस्तामां छोकराओनी साथे बहुवार सूधी रमवामां लागी गयो ॥ ७८ ॥ त्यारे केटलाक विद्यार्थीओए आवीने कां के तारा उपर गुरुजी बहु गुस्से थया छे, माटे हे मित्र ! नासी जा, नहि तो गुरुजी आवीने तने बहु Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारशे ॥ ७९ ॥ त्यारे में बीजा नगरोमां पण भणाववावाळा साधु घणा छे, तेनी पासे भणी लइश, एवो विचार करीने हुं त्यांथी नासीने बीजा नगर तरफ चालवा लाग्यो ॥ ८० ॥ ते पछी एक नगरनी पासे पहोंच्यो तो पाणीना झरा सहित चालता पर्वतनी माफक मदरुपी जळथी पृथ्वीने छांटतो एक बहु मोटा हाथीने मारी सामो आवतो जोयो ॥ ८१ ॥ शरिरसहित अनिवार्य मृत्यु तथा मने जोई क्रोधित थईने, महावतना अंकुशने नहि गणकारवावाळो ते महा भयंकर हाथी पूंछडी अने कानोने हलावतो पोतानी मोटी सूंढ उठावीने मारी पाछळ दोडवा लाग्यो । (२ ॥ ते पछी कोईनुं शरण न मळवाथी दोडवामां असमर्थ थई में ते कमंडल भिंडीना एक झाडपर मुकी दीधुं अने मरवाना डरथी हूं कांपवा लाग्यो ॥ ८३ ॥ दैवयोगथी तेज वखते मारा मनमा एक बुद्धि उपजी के हुं ते हाथीना डरथी झटपट ते कमंडलनी नाळीमाथी कमंडलमा प्रवेश करीने संताई गयो अने आ कष्टमांथी हूं मुक्त थयो ए प्रमाणे क्षणभर खुशी थई विचार करी रह्यो हतो एटलामांज ॥ ८४ ॥ ते विरुद्धचित्त हाथी पण तरतज ते .कमंडलमा प्रवेश करीने क्रोधित थइ मारा रडतानां वस्त्र खेंचीने पोतानी सुंढथी मारी धोतीने फाडवा लाग्यो ॥ ८५ ते पछी तेने वस्त्र फाडवामां लागेलो जोई हुं तो व्याकुळताथी नागो थइ तरतज कमंडलना आगला भागमांथी बहार नीकली गयो. ते ठीकज छे जीवतां रहेतां कोईने कोई बचवानो उपाय नीकळीज आवे छे ॥ ८६ ॥ त्यार पछी ते हाथी पण तेज रस्तेथी नीकळी आव्यो, परंतु ते कमंडलना मुखमा हाथीनी पूछडीनो एक Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ बाल अटकी गयो, जेने काढवामां असमर्थ थइने ते हाथी दुःखित अने विषण्णचित्त थइ त्यांज पडी गयो ॥ ८७ ॥ ते हाथीने जमीन उपर पडेलो जोईने में कयुं के रे दुर्मते ! रे शत्रु ! तुं हवे आहयांज मर, ए प्रमाणे कहीने हुं तो भय रहित प्रसन्नचित्त थइने पासेना नगरमां पहोंच्यो ॥ ८ ॥ ते नगरमां में एक अतिशय मनोहर जिनमांदर जोयुं. तरतन ते मंदिरमा जईने जिनेंद्र भगवाननां दर्शन करीने रस्ताना परिश्रमथी थाकेलो नागोज जमीन उपर सूइ में रात्री वितावी ॥ ८९ ॥ मने पहरेवाने कपडां कोण आक्शे? अने नग्न शरिर रहेतां मागी पण केवी रीते शकुं ? ए कारण मारा कुल आम्नायथी चाल्युं आव्यु. तप करवुज श्रेष्ठ छे, ए प्रमाणे बहु वखत सुधी विचार करीने हुं तेवोने तेवोज दिगंबर मुनि थइ गयो । ९० ॥ ते पछी अनेक पुर, नगर, गामोमां फरतां फरतां आज आपना आ विद्वजनोथी भरेला नगरमां आवी पहोंच्यो ॥ ९१॥ आ प्रमाणे में मारी मेळेज व्रत ग्रहण करवानुं कारण टुंकामांज आपने कही संभळाव्युं. विद्याधरनां आ वचन सांभळीनज ते सघळा ब्राह्मण हांसीथी प्रसन्न मुख थइने बोल्या ॥ ९२ ॥ हे दुमते ! हमे असत्य भाषण करवामां चतुर अनेक प्रकारना मनुष्य जोया छे परंतु तारा जेवो असत्य कहेवावाळो कोई पण जोयो नथी के जे मुनिव्रत धारण करीने पण जूटुबोले छे?।।९३॥ भिंडीना झाडनी डाली उपर कमंडळने राखg अने तेमां हाथीए प्रवेश करवो, फरवू अने नीकळg, आजसूधी आ त्रण लोकमां शुं कोईए पण जोयुं अथवा सांभळयुं छे? ॥ ९४ ॥ हे दुर्मते! कदाचित अग्निमां पाणी, शिलापर कमल, गधेडाने शीगडां, सूर्यमां Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अंधकार अने अचल पर्वर्तमां चलपणुं थई जाय परंतु तारा वचननी सत्यता तो कदापि धई शकती नथी ॥ ९५ ॥ आ सांभळीने मनोवेग कह्यु के हे ब्राह्मणो! मोटें आश्चर्य छे के आवा असत्यभाषी फक्त हमज छीए? तमारा मतमां एवां एवां अनिवार्य असत्य वचन नथी? ॥ ९६ ॥ आ लोकमां घणुंखरूं सघळा माणसो पारकानोज दोष जुए छे अथवा पोताना असत्त्य मतनुज पोषण करवावाळा देखाय छे, परंतु पारकाज गुणोनी शुद्धि अने अमित ज्ञानना धारक पुरुषोना विचारनो विस्तार करवावाळा पक्षपात राहत कोई विरलाज होय छे ॥९७ ॥ इति श्री अमितगति आचार्यकृत धर्म परिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाटिकामां बारमुं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ १२ ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ प्रकरण १३ मुं. ते पछी ब्राह्मणोए कह्यं के-भद्र! जो तें असंभव वात अमारा वेद अथवा पुराणमां जोई होय तो कहो || १ | जो पुराणोमां एवी असंभवता नीकळी आवशे तो अमे पुराणोनुं कथन कदी ग्रहण करीभुं नाह, केमके न्यायनिपुण पुरुष कदी पण न्यायरहित वचनने ग्रहण करता नथी || २ || आ सांभळीने रुषीरूप धारक मनोवेगे कयं के हे ब्राह्मणो! बेशक हुं जाणुं हुं अने कहीश, परंतु कहेतां डरूं छु, केमके ज्यारे में मारुं वृतांत कधुं, त्यारे तो तमे गुस्से थई गया अने हवे तमारा वेदपुराणाना संबंधमां कहीश तो कोण जाणे तमे शुं करी बेसशो ! ॥ ३-४ ॥ ब्राह्मणोए कां के तमे निर्भय थईने कहो. जो तमारा वचनोनी माफक कहेवावालुं कोई शास्त्र हशे तो हमे ते शास्त्रने अवश्य छोडी दईशुं ॥ ५ ॥ त्यारे मनोवेगे कां के जो तमे विचारवान छो तो लो हुं कहुं हुं, एकचित्त थईने सांभळो ॥ ६ ॥ एक समये युधिष्ठरे सभामां कह्युं हनुं के कोई एवो पुरुष छे जे पातालमांची फणीन्द्रने लई आवे ? || ७ | त्यारे अर्जुने कां के है देव ! आपनी आज्ञा होय तो पातालमां जईने सप्तऋषी सहित फणीश्वरन हुं लावी शकुं हुं ॥ ८ ॥ ते पछी अर्जुने गांडीव धनुषवडे तीक्ष्णमुखवाळा छराथी कामथी वियोगिनी स्त्रीनी माफक पृथ्वीने कोरीने काळुं Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पाढयुं ॥ ९ ॥ ते पछी पातालमां जईने दश करोड सेना सहित शेषनाग अने सात रूपियाने लई आव्यो ॥ १० ॥ मनोवेगे कां के-केम विप्रो ! तमारा शास्त्रमां एवं लख्युं छे के नाही ! त्यारे ब्राह्मणोए कां के–बेशक एमज लखेलुं छे ॥ ११ ॥ पछी मनोवेगे कह्यं के ज्यारे बाण - वडे करेला सूक्ष्म काणामांथी दश करोड सेना सहित शेषनाग आवे छे तो हे विप्रो ! कमंडलना काणामांथी हाथी केम नहि नीकळे ? ते पक्षपात छोडीने जलदी कहो ॥ १२-१३ ॥ तमारुं शास्त्र तो साचुं अने मारुं वचन जूठु छे ! माटे एमां पक्षपात सिवाय बीजु कई कारण देखातुं नथी || १४ || त्यारे ब्राह्मणोए क के कमंडलना छिद्रमांथी हाथी नुं अन तारुं नीकळवूं तो हमे शेषनागना आव्या गयानी माफक प्रमाण कर्यु, परंतु एटलो माटो हाथी ते कमंडलमां केवी रीते समायो ? तथा हा थीना भारथी भिंडीनुं झाड केम टूटयुं नहि ? तथा कमंडलना मु खमांथी ज्यारे हाथीनुं पुष्ट शरिर नीकळी गयुं तो पूछडीनो बाल म अटकी रह्यो ? माटे हे भद्र ! आ वचन तो तारुं हमे कदी मानी शकता नथी त्यारे मनोवेगे कयुं के ए वचन मारुं प्रत्यक्ष रीते सत्य छे केमके आपना शास्त्रमां सांभळयुं छे के एक वार अंगुठानी बराबर अगस्त्य मुनिए समुद्रनुं सघलुं जळ त्रण चमचायां भरीने पी लीधुं हतुं ॥ १५–१६-१७=१८ ॥ ज्यारे अगस्त मुनिना पेटमां समुद्रनुं सघळु जळ समाई गयुं तो हे विप्रो ! मारा कमंडलमां हाथी केम न समाय ? ॥ १९ ॥ तथा एक वखत आ सघळी सृष्टि समुद्रमां तणाईने नाश थई गई, एवं समजीने ब्रह्माजी व्याकुलचित्त थई आमतेम ढूंढता फर्या ॥ २० ॥ त्यारे अलसीना पेडनी शाखा उपर राइ बराबर Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमंडल राखीने तेनी नीचे बैठेला अगस्त्य मुनिने जाया ॥ २१ ॥ अगस्त्य मुनिए कयुं के हे विरंची ! तुं व्याकुलचित्त थई केम फरतो फरे छ ? ॥ २२ ॥ त्यारे ब्रह्मानीए कह्यं के हे साधु ! मारी सृष्टि कोई जग्याए पण नती रही, तेथी हुँ गांडो थईने तेने शोधतो फरुं छु ॥ २३ ॥ अगस्त्य मुनिए कह्यं के हे विधे ! तुं मारा कमंडलमा प्रवेश करीने जो, बीजे कई न जो ॥ २४ ॥ त्यारे ब्रह्माए कमंडलमा प्रवेश करीने जायें तो त्यां एक वडनुं झाड छे, तेना पांदडा उपर पेट फुलावेला श्रीपति ( विष्णु भगवान ) सूई रह्या छे ॥ २५ ॥ त्यारे ब्रह्माए विष्णु भगवानने कह्यु के हे कमलापति ! निश्चल थई पेट फुलावी केम सूई रह्या छो? ॥ २६ ॥ त्यारे विष्णुए कह्यु के-तारी सृष्टि एक समुद्रमां तणाई जती हती, तेथी तेने में मारा पेटमां राखी लीधी छे ॥ २७ ॥ माटे शाखाओथी व्याप्त मोटा वडना झाडना पांतरा उपर सूतेला विष्णुर्नु पेट एज कारणथी फूली गयलं जणाय छे, एवो विचार करीने ब्रह्माए कह्यु के-हे श्रीपते ! तमे बहु सारुं कर्यु, के प्रलयमां नष्ट थती पृथ्वीनी रक्षा करी. परंतु ॥ २८ ॥ २९ ॥ हे श्रीपति ! ते सृष्टिने जोवाने मारुं मन बहुज उत्कंठित थई रयुं छे.ते ठीकजछे, के बालबच्चानो वियोग सघळानेज असह्य होय छे ॥ ३० ॥ त्यारे विष्णुए कह्यु के तुं फोकैट केम दुःखी थाय छे ? मारा पेटमा प्रवेश करीने आनंद साये तारी सघळी सृष्टिने जोइ ले ॥ ३१ ॥ ते पछी ब्रह्मा विष्णु भगवानना पेटमां जई पोतानी सृष्टिने जोई बहुज हर्षित थया. ते उचितज छे केसंतानने जोईने कोनुं मन हर्षित नहि थाय? ॥ ३२ ॥ विष्णुना पेटमां बहु वखत सूधी पोतानी संघळी सृष्टिने जोईने ब्रह्माजी विष्णुना Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभिकमलना छिद्रमांथी नीकळ्या, परंतु नीकळती वखते वृषणना बालनो एक अग्रभाग अटकी गयो, त्यारे लज्जित थवानी शंकाथी ते काढवामां असमर्थ थई तेज बालापने कमल बनावीने त्यांज पोतानुं आसन जमावीने बेसी गया. ते ठीकज छे,के विश्वव्यापिनी माया देवाने पण छोडती नथी ॥ ३३-३४-३५ ॥ तेज दिवसथी ब्रह्माजीनुं पद्मासन अथवा कमलासन नाम जगतमां प्रसिद्ध थयु. ते ठीकज छे, के महत्पुरुषोए करेलु कपट जगत् प्रसिद्ध होय छे, ॥ ३६ ॥ हे विप्रो, तमारा पुराणोमां एवं कथन छे के नहि ? ते निर्मत्सर भावधी कहो केम के सत्पुरुष होय छे, तेओ कदी असत्यवादी थता नथी ॥३७॥ त्यारे ब्राह्मणो बोल्या के बेशक ए प्रमाणे कथन हमारा पुराणोमां प्रसिद्ध छे. हे भाई! एवं कोण छे के जे प्रकाशमान सूर्यने छूपाची शके ? ॥ ३८ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के-हे ब्राह्मणो! ज्यारे ब्रह्मानो बाल नाभिना काणांमां अटकी गयो तो हाथीनी पूंछडीनो बाल कमंडलना काणामां केम न अटके ? ॥ ३९ ॥ ज्यारे सधळी पृथ्वी सहित कमंडलना भारथी अलसीना झाडनी डाळी नहि टूटी तो एक हाथीना भारथी मारुं भिंडानुं झाड केवी रीते टूटी शके ? ॥ ४० ॥ ज्यारे अगस्त्यना कमळबराबर कमंडलमां सघळी पृथ्वी समाई गई तो हे ब्राह्मणो ! मारा मोटा कमंडलमां मारी साथे हाथी केम नहि समाई शके ॥ ४१ ॥ कई विचार तो करो, के विष्णु जगतने पेटमा राखीने जगतविना क्यां बेठा! अने अगस्त्य मुनि पण क्यां बेठा हता? अने अलसी, झाड पण कोना उपर रघु? अने ब्रह्माजी पृथ्वी विनाज सृष्टीने ढूंढता क्या फर्या! Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ ॥ ४२ ॥ घणुं आश्चर्य छे के-पृथ्वी होवा छतां भिंडीना झाड उपर हाथी सहित मास कमंडलर्नु रहेतो असत्य अने तमारं ते थडपाया वगरनुं कथन सत्य? ए केवो न्याय छे! ॥ ४३ ॥ जो ब्रह्मा सर्वज्ञ छे, व्यापक छे, चराचर पदार्थोने जाणवावाळा छे, तो एवा ब्रह्माए सृष्टी क्यां छे ते केम न जाण्यु, ने ढूंढता फरदुं पडयुं? ॥ ४४ ॥ जे ब्रह्मा जलदीथी नरकमाथी प्राणिओने खेंचीने लावी शके छे ते ब्रह्मा पोताना वृषणना बालने केम नहि छोडावी शक्या? ॥ ४५ ॥ जे विष्णु सघळी पृथ्वीने प्रलय थती जाणीन रक्षा करे छे, तेणे सीताजीना हरणने केम न जाण्युं अने रक्षा केम नहि करी ॥ ४६॥ जे लक्ष्मण सघळा जगतने मोहित करी शके छे, ते लक्ष्मण इन्द्रजीत वडे मोहित थईने नागपासमां केम बंधाई गया? ॥ ४७॥ जे विष्णुना स्मरण मात्रथी सघळा जीवोनी आपदानो नाश थाय एम मानो छो, एवा विष्णु भगवानने सीतानो वियोग थवो वगेरे दुःख केम प्राप्त थयु! अने जे पोतानीज आपदा दूर करी शकता नथी, ते बीजानी आपदा केवी रीते दूर करी शके! ॥ ४८ ॥ जे रामचन्द्रे नारदने पोताना दश जन्मनी वातो कही, ते रामे शेषनागने पोतानी कान्ता सीतानो हाल केम पूछयो? के-॥ ४९ ॥ हे फाणराज ! कमळसमान हाथ पग अने मोढांवाळी , रुपलावण्यनी नदी, गुणोनी खाण, एवी मारी स्त्री तमे कोई जग्याए जोई ? ॥ ५० ॥ लोक अनादि काळथी मिथ्यात्वरुपी हवाथी टाढा ( ठंडा) करायला छे, तेने सेंकडो जन्ममां पण सरल करवाने कोण समर्थ छे? ॥ ५१॥ क्षुधा १ तृषा २ भय ३ द्वेष ४ राग ५ मोह ६ मद ( गर्व) ७ रोग ( चिंता ९ जन्म १० जरा ११ मृत्यु १२ विषाद १३ विरमय Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ रति १५ स्वेद १६ खेद १७ निद्रा १८ ए अढार दोष सर्व साधारणने विशेष करीने दुःखनां कारण छे, माटे ते जुदा जुदा कहिए छीए ॥ ५२-५३ ॥ क्षुधारुपी अग्निथी तप्तायमान थईने मनुष्यनुं शरिर तुरतज सूकाइ जाय छे, तथा पांच इंद्रिओ पण पोतपोताना विषयोमां प्रवृत्ति करती नथी अने ॥ ५४ ॥ तृष्णाथी पीडित थवावाळानो विलास विभ्रम ( कटाक्ष ) हास्यसंभ्रम ( विनय ) कौतुक वगर सघळा तरतज नष्ट थइ जाय छे ॥ ५५ ॥ पवनथी खोलां सूकां पांतरांनी माफक भयथी सघळु शरिर कंपित थइने वचनशक्ति नष्ट थइ जाय छे अने सघळा विषय विपरीत देखाय छे-॥ ५६ ॥ जे पुरुष द्वेषी छे, ते विनाकारणज सघळाना दोषोने ग्रहण करे छे अने विना कारण गुस्से थइ जाय छे त्यारे ते नष्टबुद्धि क्रोधि थइ जाय छे अने कोई पण मानतो नथी॥ १७ ॥ जे नीच कामातुर होयछे, ते पंचेन्द्रिओना विषयोमा आसक्त थइ बीजा प्राणीओने पीडा करे छे तथा युक्त अयुक्तने कई पण जोता नथी॥ ५८ ॥ जेनी पाठळ मोहरुपी पिशाच लागी जाय छे, ते पुरुष मारी स्त्री, मारी पुत्री, मारुं धन, मारुं घर अने बांधव पण मारा छे, ए प्रमाणे करतां करतां मोहित थइ जायछे ॥ ५९॥जे पुरुष मद सहित छे ते दुराचारी, ज्ञान, जाति कुल, ऐश्वर्य, तप, रुप, बल बगेरेना गर्वथी सघळानो अनादर करवा लागी जाय छे ॥ ६० ॥ जे मनुष्य वातपित्त कफजनित रोगरुपी आग्निथी तप्तायमान थाय छे, ते शरिरद्वारा पराधिन थईने कदी सुखी थता नथी ॥ ६१ ॥ जे नर चिंतातुर होय छे, ते मित्र केम थशे, धन कम मळशे, पुत्र केम थशे, स्त्री कम थशे, मारी प्रसिद्धता केम थशे, अमुकनी साथे प्रीति केम थशे, ए प्रमाणे हमेशां आर्तध्यानमां मग्न थई दुःखीज रहे छे Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३३ ६२॥ नरकथी पण वधारे छे असाताकर्मनो उदय जेमां एवा क्रमकुल सहित गर्भमां प्राणीजन वारंवार जन्म लईने दुःख भोगवे छे ॥ ६३ ॥ घडपणमां पातानुं शरिरज वशमा रहेतुं नथी, तो बीजा कुटुंबीजन तो ते चेतना रहित बुढाना वशमां केम रहेशे ? ॥ ६४ ॥ जेनुं नाम सांभळतांज मनमां कंपारी छूटे छे, एवं मृत्यु साक्षात् आववाथी कोने भय अथवा दुःख थतुं नथी? ॥ ६५ ॥ उपसर्ग, महारोग, पुत्र, मित्र अने धननो क्षय थवाथी अल्पज्ञ जीवोनेज प्राणहारी दुःख थाय छे ॥ ६६ ॥ पोतानी पासे होवी असंभव छे एवी पारकानी संपत्तिने जोवाथी ज्ञानशून्य पुरुषोने दुःखदायक आश्चर्य थाय छे ॥ ६७ ॥ सघळी अशुचिओनुं घर, त्याग करवा योग्य ग्लानिकारक कुत्सित शरीरमां कूतरानी माफक नीच पुरुषज रत (लवलीन)थायछे ॥६८ ॥ व्यापार करवाथी देहने नष्ट करवावाळो अथवा विकल्प करवावाळो खेद (कष्ट)बल रहित जीवोने थाय छे ॥६९॥जे प्रमाणे अग्निथी घीनो बडो पीगळी जाय छे, तेज प्रमाणे व्यापार संबंधी असह्य परिश्रमथी जलदीथी मनुष्यनुं शरीर खेदमयी थई जाय छे ॥ ७० ॥ जे पुरुष निद्राने वशीभूत होय छे ते मदीराथी उन्मत्तनी माफक सघळा व्यापार रहित थई पोताना हित आहितने जाणता नथी ॥ ७१ ॥ ___आ प्रमाणे अराढ दोष महा दुःखD कारण छे. महादेव तो कपालरोगथी दुःखी छे, विष्णुने शिरोरोगी, सूर्यने कुष्टी (कोढी) अने अग्निदेवने पाण्डू रोगी कह्या छे ॥ ७२ ॥ तथा विष्णु निद्राथी व्याप्त छे. अग्नि क्षुधाथी, शंकर रतिथी अने ब्रह्मा रोगथी व्याप्त छ । ७३ ॥ स्त्रीहोवू ते रागने प्रकट करे छे, वैरीने मार द्वेषने प्रगट करे छे. पोताना विघ्नने न जाणवू अज्ञानपणुं सूचवे छे अने हीआर Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने राखq ते भयने प्रगट करे छे ॥ ७४ ॥ जे ब्रह्मा, विष्णु, महादेवादी ए दोषोवडे पीडीत थाय छे, तेओ बीजाने केवी रीते दुःखथी छोडावी शके छ?; केमके-हाथीने मारवावाळा सिंहने हरण मारवं कई हिसाबमां नथी, परंतु जे हरणनेज मारवामां असमर्थ छे, ते हाथीनो क्षय केवीरीते करी शके ॥७॥ ने प्रमाणे रुपी पुद्गलनां स्पर्श रस गंधादिक गुण नियमथी होय छे, तेज प्रमाणे रागी पुरुषमा क्षुधादिक अष्टादश दोष पण अवश्य होय छे ॥७६ ॥ए सिवाय तमारा पुराणोमां ब्रह्मा विष्णु महेशने एकमूर्ती कह्या छे. जो एम छे तो ए वणे परस्पर मस्तक छेदनादि क्रिया केम करे छे? ॥ ७७ ॥ तथा अंधकारना समूहने सूर्यनी माफक जे देवे उपर प्रमाणे अराढदोषोनो नाश कीधो छे, तेज सघला देवोना अधिपति संसारी जीवोना पापने नष्ट करवामां समर्थ छे ॥ ७८ ॥ तथा बीजुं पण सांभळो. तमारा पुराणोमां कां छे के ब्रह्माजीए पाणांनी अंदर पोतानुं वीर्यक्षेपण कर्यु, तेनाथी एक बुदबुदा ( परपोटो ) उठीने तेमांथी एक जगदंड ( भगतने पेदा करवावाळु एक इंडु) पेदा थयुं ॥७९॥ते इंडाना बे भाग करवाथी त्रण लोकनी (सृष्टीनी) उत्पत्ति थई गई, माटे जो एवं शास्त्राम' कर्तुं छे तो एम बतावो के सृष्टि होवा पहला पाणी कोना उपर हतुं ॥८॥नदी, पर्वत, पृथ्वी, वृक्षादिकोनी उत्पत्तिना उपादान कारणोना अभावस्वरुप आकाशमां पृथ्वी, नदी पर्वतादिक पदार्थोनी उत्पतिकारक सामग्री क्यां आगळ मळी ? ।। ८१ ॥ केमके जे आकाशमां ( सृष्टिना पहेलां ) एक शरिरने उप्तन्न करवानी सामग्रीनू मळवू पण दुर्लभ छे, तेमां त्रण लोकना कारणभूत मूर्तिक पुद्गल द्रव्यनी प्राप्ति केवी रीते थई शके ? ॥ ८२ ॥ शरीर रहित ब्रह्माए Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृष्टिने के वी रीते बनावी ? केमके जे पोते शरीर रहित ( अमूर्तिक ) छे, ते बीमा शरीरने ( मूर्तिक पदार्थने ) कदी बनावी शकता नथी ॥ ८३ ॥ वळी सृष्टिने उत्पन्न करीने जे ब्रह्मा नाश करे छे तेथी तेने लोकनी ह त्यानु ( पोताना संतानने मारवार्नु ) जे महापाप लागे छे, ते केवी रीते दुर थई शके ? ॥ ८४ ॥ जो ब्रह्मा कृतकृत्य, शुद्धर्ति, नित्य, अमूर्तिक सर्वज्ञ छे तो तेने सृष्टि रचवाथी शुं लाभ छे ? ॥ ८५ ॥ जो सृष्टि विना३ । करवा योग्य छे तो तेने उत्पन्न करतीज व्यर्थ छे, केमके फरी फरी विनाश करीने विनाशनीय जगतने उत्पन्न करवामां कई फळ नथी ॥ ८६ ॥ ए प्रमाणे तमारां सघळां पुराण पुर्वापर विरोधी भरेलां छे, माटे हे विप्रो! न्यायनिष्ट विद्वजन तेना ऊपर केम विश्वास करे? ॥ ८७ ॥ आ प्रमाणे मनोवेगना कहेवा पछी ब्राह्मणोए कई उत्तर आप्यो नाहि, त्यारे ते मनोवेग त्यांथी नाकळीने बागमां आव्यो अने पोताना मित्र पवनवेगने कहेवा लाग्या के ॥ ८८ ॥ हे मित्र ! तें देवोनो वृत्तांत्त तथा पुराणोनो अर्थ सांभळयो के केवो छे ? जे विचारवान छे तेने तो ए पुराणोमां अथवा देवोमां कईपण सार देखातो नथी ॥ ८९ ॥ एवो कोण पुरुष छे के जे नारायण चतुर्भुज ब्रह्माने चतुर्मुखी अथवा महादेवने त्रिनेत्रि कबुल करे अथवा प्रतिपादन करे ? ॥ ९ ॥ जगतमा सघळाने एक मुख, बे हाथ, अने बे आंखन देखाय छे, परंतु मिथ्यात्वथी आकुलित लोक कंईनुं कई बक्या करे छे ॥ ९१ ॥ हे मित्र आ पृथ्वि अनादिनिधन आकाशमा स्थिर अने अकृत्रिम छे. आकाशनी माफक एनो पण कोई कर्ता हर्तानथी ॥९२ ॥ आ लोकमां पोतपोतानां कमों प्रमाणे प्राणीमात्र हमेशां पवनथी सूकां पांतरांनी माफक सुखदुःख Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ भागवता नरकादिक चारे गतिओमां परिभ्रमण करे छे ॥ ९३ ॥ ए ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र पोतानुं दुःख पण नष्ट करवामां समर्थ छे, ए. वातने बुद्धिमान केवी रीते विश्वास करी शके ? केमके- ॥ ९४ ॥ जे आळसु पोतानाज बळता घरने होलवतो नथी, ते बीजाना घरने होलवशे पवी वातने शुभमति पुरुष कोई प्रकारे पण पोताना हृदयमां श्रद्धान करी शकता नथी ॥९५ ॥ जे देव राग, द्वेष, भय, मोहादिकथी मोहित थईने पोताना सुखदायक पदार्थोंने जाणता नथी एवा नष्टबुद्धि बीजाने हमेशना सुखना कारणभूत मोक्षमार्गनो उपदेश केवीरीते करशे? ॥ ९६ ॥ आश्चर्य छे के आ लोकनी स्थिति तो जुदाज प्रकारे छे अने कामभोगना वशीभूत नष्टबुद्धि खळ पुरुषाएं जुदान प्रकारे कही दीधुं छे तेओए दुःखदायक नरक वासने जोयुं नथी. जो जोते अथवा जाणते तो नरक लईजाय एवां महापापरुष असत्य वचन कदी कहेते नहि ॥ ९७ ॥ भव समुहमां अटकवा वाळा कुमार्गीओवडे सत्यार्थ मोक्षमार्ग आच्छादन करवामां आवे छे, तेने जे कोई नष्टबुध्धि विचारता नथी, ते मोक्षरूपी मंदरियां केवीरीते जशे ॥ ९८ ॥ जे निमर्ल बुद्धिना धारक छे, तेओ छेदीने, तपावीने, घसीने अने कूटीने सोनानी परिक्षा कर्या करे छे, तेज प्रमाणे शील,संयम, तप, दया आदिक गुणोथी अमूल्य धर्मरुपी रानी पण परि क्षा करीने ग्रहण करे छे ॥ ९९ ॥ जे पुरुष देव, धर्म, गुरु अने शास्त्रनी परिक्षा करीने निर्दोष देव शास्त्र गुरु वगेरेनी उपासना करे छे, तेओ कर्मरुपी मोटी बेडीने कापीने अविनाशी पवित्र मोक्षपदने प्राप्त थायछे।१००॥ जे पूजनीय ज्ञानी पुरुष पोताना हितनी वांछा करे छे, तेओए पोताना घमंडने छोडीने देवथी देवनी, शास्त्रथी शास्त्रनी, धर्मथी धर्मनी, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ अने गुरु साथे गुरुनी परिक्षा करवी जोईए ॥ १०१ ॥ देव तो तेज छे के-जे सघळां कर्म रहित, सर्वज्ञ अने इन्द्र धरणींद्र नरेन्द्रोथी पूजित होय. धर्म तेज छे के जे-रागादि दोषोनो नाश करवामां कुशल अथवा दयाप्रधान होय. शास्त्र तेज सारं छे के जे-हेय उपादेय अने युक्तिपूर्वक वस्तुनुं सत्यार्थ स्वरुप प्रगट करवामां निपुण होय अने यति कहेतां गुरु तेज छे के जे-अपरिमाण ज्ञानना धारक परिग्रह रहित होईने निर्दोष होय ॥ १०२ ॥ ____ इति श्री अमितगति आचार्यकृत 'धर्म परिक्षा । संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाटीकामां तेरमुं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ १३ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रकरण १४ मुं. ए पछी मनोवेगे कह्यु के हे मित्र ! तने बीजां पण कौतुक बताईं छु, एम कहीने ऋषिनो वेश जे को हतो ते काढी नांख्यो ॥ १ ॥ ए पछी ते बन्नेए तपस्वीनो वेश बनावीने पटना नगरमां उत्तर तरफ प्रवेश कर्यो अने ॥ २ ॥ एक बीजी वादशालामां जईने घंट वगाडीने मनोवेग सोनाना सिंहासन उपर बेसी गयो. घंटनो अवाज सांभळतांज ब्राह्मणो आवीने बोल्या के-हे तापस ! तुं क्याथी आव्यो ? ॥ ३ ॥ तुं व्याकरण जाणे छे के विस्ताररुप तर्कशास्त्र जाणे छ ? शास्त्रोना माणकार आ ब्राह्मणो साथे कयो वाद करशे ? ॥ ४ ॥ त्यारे तापसरुप मनोवेगे कह्यु के-हे ब्राह्मणो ! हुं तो आ पासेना गाममाथी आव्यो छु, व्याकरण के तर्कवाद हुं कई जाणतो नथी ॥ ५ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के-हे तपस्वी ! तुं मश्करी ठठो छोडीने जे खरं होय ते कहे. स्वरुप पूछवाबाळानी साथे मश्करी ठठो करवो व्याजबी नथी ॥ ६ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के-हे ब्राह्मणो ! हुं तमने खरेखलं कहुं, परंतु कहेता डरूं छु, केमके जे निर्विचार दुष्ट पुरुष होय छे, ते युक्त वचन कहेवा छतां पण अयुक्त समजीने तरतज मोटो उपद्रव करी वेसे छे ॥ ७-८ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के हे भाई! जे कई कहेवा योग्य होय ते कहे, आहआं सघळा ब्राह्मणो विवेकी अने युक्त पक्षना अनुरागी छे ॥ ९॥ ब्राह्मणोनुं आ वचन सांभळाने मनोवेगे Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह्यु के जो तमे सवना विचारवान छो तो हुं मारुं यथेच्छ वृतांत्त कहुं छु ॥ १० ॥ शाकेत नगरमा बृहतकुमारिका नामनी मारी माताने मारा दादाए मारा पिताने आपी ॥ ११ ॥ ते बन्नेना विवाह वखते वाजांनो शब्द सांभळीने यमराजनी माफक एक मदोन्मत हाथी जेनी साथे ते बांधेलो हतो ते स्तंभने तोडीने चाल्यो आव्यो ॥ १२ ॥ ते हाथीना भयथी विवाहनो आनंद छोडीने सघळा लोक दशे दिशामां दोडी गया. ते ठीकज छे के एवा मोटा भयमां स्थिर कम रहे ॥ १३ ॥ एवा समयमा व्याकुल चित्त थई वरे पण नासवानो उपाय को तो तेना धक्काथी ते बहु बेहोश थई पृथ्वी उपर पड़ी गई. आ कौतुक जाईने लोकोए कह्यु के जुओ, जुओ, वर पण वहुने पाडीने नासी जाय छे. लोकानुं आ प्रमाणे वचन सांभळीने लज्जायमान थई मारो पिता कोई जग्याए नासी गयो, ते फरीथी आव्यो नहि ॥ १४ ॥ १५ ॥ ते पछी दोढ महिनो रहीने मारी माताने गर्भनुं लक्षण जणायुं अने पेट सहित ते गर्भ नव मास सूधी वधतो रह्यो ॥ १६ ॥ मारी दादिए पूछयु के हे पुत्री! आ पेट काणे वधार्यु? त्यारे तेणे कयु के- हाथीना भयथी नासती वखते वरना अंग स्पर्श सिवाय आजसूधी हुं कोई पुरुषने अडकी नथी. हुं कईपण नथी जाणती के ए शुं थयुं ॥ १७ ॥ एक दिवस मारा दादाने घेर केटलाक तपस्वी आव्या हता तेओने विधिपूर्वक आहारदान आपी ने मारा दादाए पूछयु के आप क्यां जाओ छो? ॥ १८ ॥ ते तपस्वीओए कह्यु के आ देशमां बार वर्षनो दुकाळ पडशे ते माटे अमे बार वर्ष माटे ज्यां सुकाल छे त्यां जइए छीए ॥ १९ ॥ तापसिओए किंचित उपकारनी साथे एम पण कर्दा के-आहिंआ शुं काम भूखे मरे छ? Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुं पण अमारी साथे चाल. ए प्रमाणे कहांने ते तपस्वी तो चाल्या गया ॥ २० ॥ में माताना गर्भमा रहेतांज तेनां अने मातानां सघळां वचन सांभळी चकितचित्त थईने मारा मनमां विचार्यु के अहिंआंतो बार वर्षनो दुकाळ पडशे, तो हुं शुं गर्भमांथी नोकळी भूखथी दुःखी थई मरीश? ॥ २१-२२ ॥ ए प्रमाणे विचार करीने हुं बार वर्ष सूधी गर्भमांज रह्यो. ते ठीकजछे,के भूखनाभयथी मनुष्य शुंनी करता?॥ २३ ॥ ज्यारे दुकाल पुरो थयो त्यारे तेज तपस्वी (हुं गर्भमां हतोनेज ) मारा दादाने स्यां आव्या ॥ २४ ॥ मारा दादाए तपस्वीओने नमस्कार करीने पूछयु तो तेओए कह्यु के-'हवे दुकाल पूरो थयो, माटे हमे हमारे देश जईए छीए । ॥ २५ ॥ तेओनां आ वचन सांभळीने हुं पण गर्भमांथी नीकळवा लाग्यो. ते वखत मारी माता चूलानी पासे बेठी हती, ते मारा प्रसवनी वेदनाथी त्यांज ओढवाचें नांखीने बेहोश थई गई. हुं तेज वखते गर्भमाथी नोकळीने चूलानी राखमां पडी गयो, हुं बार वर्षनो भूख्यो हतो तेथी उठतां साथेज में एक पात्र लईने मारी मातानें कह्यु के हे माता, हुं बहुन भूख्यो छ माटे मने खावाने आप; ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ ते वखते मारा दादाए कह्यु के-हे तपस्वीओ! तमे कोई जग्याए पण आq बाळक जोयुं छे? जे पेदा थतां साथेज भोजन मांगे? ॥ २९ ॥ तेओए कह्यु के-आ कोई उत्तात छे, एने घरमांथी काढी मूको, नहि तो हे भाई ! तारा घरमां हमेशां विघ्न थतां रहेशे ॥ ३० ॥ त्यारे मारी माताए कह्यु के तुं मने मोटो दुःखदायक छे माटे हवे यमने त्यां जा, तेज तने खावाने आपशे ॥ ३१ ॥ त्यारे में कह्यु के हे माता ! जो तुं आज्ञा आपे तो हुं चाल्यो जाउं छु, माताए कह्यु, बेशक तुं मारे घेरथी चाल्यो मा. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ ॥ ३२ ॥ ते पछी हुँ मारे शरीरे भस्म चोळीने माथु मुंडयो घेरथी नीकळी तपस्वीओनी साथेज चाल्यो गयो ॥ ३३ ॥ तपस्वीओमां रहीने में मोटुं कठीण तष कर्यु केमके जे चतुर छे ते कल्याणकारी कामनो आरंभ करतां कदी प्रमादि थता नथी ॥ ३४ ॥ एक दिवस हुं याद करीने साकतपुर नगरमा गयो, तो मारी माताने बाजा वरसाथे परणेली जोई त्यारे ॥ ३५ ॥ में मारो पूर्व संबंध कहीने तपस्वीओने पूछयु, तो तेओए कह्यु केएक साथे विवाह थयापछी बीजा वर साथे विवाह करवामां कई दोष नथी केमके-'द्रौपदिना पांचे पांडव भर्तार हता, तो तारी माताने बे भर्तार होवामां शु दोष छे' ॥ ३६-३७ ॥ एकवार विवाह करवा पछी देवयोगथी पति मरी गयो होय तो अक्षतयोनि स्त्रीनो फरथी विवाह संस्कार थवो जोईए ॥ ३८ ॥ जो पति परदशेमां चाल्यो गयो होय तो प्रसूता स्त्री आठ वर्ष सूधी अने अप्रसूता चारवर्ष सूधी पोताना पतिने आववानी राह जोईने बीजो पति करीले. बलके-॥ ३९ ॥ विशेष कारण होवाथी पांच पति सूधी करवामां पण स्त्रीओने कोई पण दोष नथी. ए प्रमाणे व्यासादि ऋषिओनुं वचन छे. ॥ ४० ॥ ए पछी में रूषिओर्नु वचन सांभळीने मारी माताने निर्दोष जाणी तापसोना आश्रममा एकांतमा रहीने एक वर्ष सूधी तप कर्यु ॥ ४१ ॥ ते पछी हे ब्राह्मणो ! तीर्थयात्राने माटे पृथ्वीमां फरतां फरतां आज आपना आ नगरमां आव्यो छु ॥ ४२ ॥ आ प्रमाणे सांभळीने क्रोधनी साथे होठो कचकचावीने ब्राह्मणो बोल्या के अरे दुष्ट! तुं आ प्रमाणे असत्य बोलवा- क्याथी शीख्यो? ॥ ४३ ॥ हमने तो मालूम पडेछे के ब्रह्माजीए जगतनी सबळी असत्यता एकठी करीनेज तने बनाव्यो छे, नहि तो आ प्रमाणे असंभव वात फोकटज तुं शुं काम Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व हेते? ॥ ४४ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के हे विप्रो ! तमे ए प्रमाणे केम कहो छो ? तमारा पुराणोमां शुं एवां कार्य नथी ? ॥ ४५ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के हे भाई ! र्ते हमारा वेद अथवा पुराणोमां एवं असंभव जोयुं होय तो बताव, ॥ ४६ ॥ त्यारे मनोवेगे कडं के हे ब्राह्मणो! हुं कहीश, परंतु तमे लोक वगरविचारजे मारा सघळां वचन ग्रहण करो, तो तमने कहेतां डरूं छु ॥ ४७ ॥ केमके- तमारा वेद अने पुराणोमां जग्या जग्याए ब्रह्महसा छे तो तमे सुभाषित कहेलाने केवी रीते ग्रहण करशो ? ॥ ४८ ॥ जे प्रमाणे तमारा शास्त्रमा कडं छे के-पुराण, मानवधर्म, ( मनुस्मृतिमां कहेलो धर्म ) अंग सहित वेद अने चिकित्सा ए चार आज्ञा सिद्ध छे, जेने हेतुथी खंडन नहि करवी जोईए ॥४९॥ तथा मनु व्यास वसिष्टनां वचन वेदानुकूलज छे. एनां वचनोने जे अप्रमाण करे छे,तेने मोटी भारीब्रह्महत्या लागे छे ।। ५०॥जे सदोष वचन होय छे,तेमां हेतु बताववानो निषेध करवामां आवे छे, केमके चोख्खा सोनानी परिक्षा कराववाने कोई पण डरतुं नथी ॥ ५१ ॥ त्यारे वेदावलम्बियोए कह्यु के-हे भद्र ! केवल मात्र वचन कहेवामांज पाप लागतुं नथी केमके- तीक्ष्ण धार ए प्रमाणे मात्र बोलवामांज जीभ कपाती नथी ॥ ५२ ॥ जो वचन मात्र बोलवाथीज पाप लागे छे तो उष्ण अग्नि कहेतां मुख केम नथी बळतुं ? ॥ ५३ ॥ ते माटे तमे निर्भय थईने पुराणोनो अर्थ कहो. हमे सघळा नैयायिक छीए, माटे न्याय पूर्वक कहेलां वचनने अवश्य ग्रहण करीशुं ॥ १४ ॥ ते पछी सर्व शास्त्रना जाणकार मनोवेग विद्याधरे कयु के- जो ए प्रमाणे छे तो हे विप्रो ! हुं मारा पोताना विचारने प्रगट करूं छु ॥ ५५॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागीरथी नामनी बे स्त्रीओ एकठी सुती हती, ते बन्नेना स्पर्शथी एकने गर्भास्थिति थइने जगत् प्रसिद्ध भगीरथ नामनो पुत्र उप्तन्न थयो ॥ १६ ॥ जो स्त्रीना स्पर्श मात्रथी स्त्रीने गर्भ थाय छे तो पुरुषना स्पर्शथी मारी माताने गर्भ केमे नहि थाय ? ॥ ५७ ॥ तथा गांधारि नामनी छोकरी धृतराष्ट्ने आपवानो निश्चय कर्यो हतो, ते वाक्सम्प्रदानथी बे मास पहेलांज रजस्वला थई गई ॥ ५८ ॥ चोथे दिवसे स्नान करीने तेणे फनसवृक्षने आलिंगन कर्यु, तेज दिवसथी गांधारिने मोटा भार सहित गर्भास्थिति थईने पेट वधवा लाग्युं ॥ ५९ ॥ तेना पिताए गांधारीने गर्भ थयलो जायो तो तरतज धृतराष्ट्रने परणावी दीधी, केमके लोकापवाद दूर करवाने माटे सघळा यत्न करे छे ॥६० ॥ पछी ते गांधारीना पेटमां फनसर्नु बहु मोटुं फल थयुं, तेमांथी एकसो पुत्र उत्पन्न थया ॥ ६१ ॥ मनोवेगे कयु के-कहो, तमारा पुराणमां एवं छे के नहि ? ब्राह्मणोए कह्यु के बेशक छे, तेनो कोण ना कहि शके छ ? ॥ ६२ ॥ जो फनसना आलिंगनथीज पुत्रनुं थर्बु कहेलुं छे तो मारी माताने पुरुषनो स्पर्श थवाथी पुत्रना उत्पत्ति थवी असत्य कम छे? ॥ ६३ ॥ आ प्रमाणे मनोवेगनुं वचन सांभळीने ब्राह्मणोए कह्यु-के तुं पतिना स्पर्श मात्रथी उत्पन्न थयो ते तो सत्य छे, परंतु तपस्वीओनुं वचन सांभळीने तुं बार वर्ष सूधी माताना गर्भमांज रह्यो, ए वात अमे साची मानता नथी ॥ ६४-६५ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के-पूर्व काळमां श्री कृष्णे सुभद्राने चक्रव्युहनी रचनाना व्योरा कह्या हता, त्यारे तेना गर्भमा रहेला अभिमन्युए सांभळ्युं हतुं, एवं तमारा पुराणोमां का Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पांतरां उपर नि त्यां आया थई छे, एवु पालना करीने छे, तो में तपस्विओनुं वचन केम नहि सांभळयुं? ॥ ६६-६७ ॥ एक समये यमनामा मुनिए कोई तलावमा पोतानी लंगोट धोई- ते लंगोट ने लागेलं वीर्य जलमां पडवाथी एक देडकीए पी लीधुं. ते पविाथी देडकीने गर्भ रही गयो. गर्भना दिवस पूरा थवाथी ते देडकी ने एक बहुज सुंदर कन्या ऊत्पन्न थई, परंतु देडकीए जाण्यु के-आ शुभलक्षणा तो अमारी जातिनी नथी, एवं समजीने तेणे एक कमलना पांतरां उपर मूकी दीधी ॥ ६८-६९-७० ॥ए पछी एक वखते तेज यम नामना मुनि त्यां आव्या तो ते सुंदरीने जोतांज ओळखी लीधी के आ तो मारा वीर्य्यना बलथी उत्पन्न थई छे, एवं समजी स्नेह साथे ते पुत्रीने ग्रहण करी अने अनेक प्रकारना उपायोथी प्रतिपालना करीने मोदी करी. ते ठीकज छे के पोताना संतानने पालवाने सघळाज यत्न कर्या करे छे । ७१-७२ ॥ ते छोकरीए युवान थवाथी रजस्वलावस्थामां पोताना पिताना वीर्यथी मेली लंगोटी पहेरीने स्नान कर्यु. स्नान करती वखते ते लंगोटीने लागेला वीर्य्यनुं कोई बिन्दु ते छोकरीना पेटमा चाल्युं गधु, तेना संयोगथी ते छोकरी गर्भवती थई. त्यारे ते मुनिए पोताना वीर्यथी गर्भोत्पत्ति जाणी कन्या- दुषण प्रगट थवाना भयथी पोताना तपोबलथी ते गर्भने स्थिर करी दीयो अर्थात गर्भन वधq अथवा संततिनुं उत्पन्न थर्बु बंध करी दीधुं ॥ ७३-७४ ॥ तेथी निश्चल करलो ते गर्भ सात हजार वर्ष सुधी ते कन्याने कष्ट आपतो रोकाई रह्यो ॥ ७९ ॥ ते पछी ते मुनिए लंकाधिपति रावण महात्मा साथे ए कन्या परणावी; त्यारे तेना तेज गर्भथी इन्द्रजीत नामनो पुत्र उत्पन्न थयो ॥ ७६ ॥ ते इन्द्रजीत सात Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५. हजार वर्ष पहेलान गर्भमां आव्यो अने तेनो पिता रावण सात हजार वर्ष gam: पछी उत्पन्न थयो ॥ ७७ ॥ जो इन्द्रजीत पोतानी माताना गर्भमा सात हजार 1 r गर्भमां बार वर्षे कबुल कर्यु के केवी रीते कर्यु ? तारूं कहेतुं सत्य छे, परंतु तें उत्पन्न थतांज तप ग्रहण ॥ ७९ ॥ तथा तारी माता परणेली छतां पण कन्या केम थई ? एसघळु थवं अत्यंत अणघटतुं छे, माटे हमारा संदेहरुपी अंत्रकारने दूर कर ॥ ८० ॥ त्यारे मनोवेगे कह्युं के ध्यान दईने सांभळो, पूर्व कालमां अनेक तपस्त्रीभोथी पूजनीय पारासर नामनो एक तपस्वी हतो ॥ ८१ ॥ ते पारासर एक दिवस तरुण अवस्थानी धारक योजनगंधा नामनी धीवरनी कन्याए चलावेला नावधी गंगाजीथी पार थतो हतो ॥ ८२ ॥ ते वखते धीवरनी कन्याने अतिशय तरुण जोईने ते पारासर तेनी साथे रमवा लाग्यो. ते नीतिज छे के कामबाणथी भेदायला पुरुष योग्य अयोग्य स्थानने जोता नथी ॥ ८३ ॥ ते बिचारी बालिकाए पण ऋषिना श्रापना भयथी ते नीच कृत्य करवानुं स्वीकार्य केमके- संसारी जीव अकृत्य करीने पण पोताना जीवनी रक्षा करे छे ॥ ८४ ॥ परंतु आ मीच कृत्यने करतां, कोई जोशे तो मारे शरार्मंदा थवुं पडशे वगेरे निंदाना भयथी पारासरे तपोबलना प्रभावथी दिवसमांज अंधकारमय रात्री करी दीधी. ते ठीकज छे के सामग्री बिना कोईनुं पण कोई कार्य सारी रीते सिद्ध धतुं नथी ॥ ८५ ॥ पछी शुं थयुं ते जुओ. ते नीच कर्म करतां वर्ष सूधी रह्यो, ए वात सत्य छे तो हुं मारी माताना केम नहि रह्यो ? ॥ ७८ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए लाचार थईने ܕ ܐ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ तर ते भीवरीना पेटथी अष्टादश पुराणना कर्ता जगत्मसिद्ध वेदव्यासजी उप्तन्न थई गया. व्यासजीए भक्तिपूर्वक पोताना पिता पारासरजीने कह्युं के-हे पिता ! भने आज्ञा आपो के - हुं शुं करूं? ॥ ८६ ॥ पारासरे कछु के - हे पुत्र ! तुं अहिंज तप करतो रहे, एम कहीने पारासरणीए प्रसन्नता साथे व्यासजीने दीक्षा आपीने योगी ( तपस्वी ) बनावी दीघा || ८७ || ते पछी ते योजनगंधा धीवरनी कन्याने पण पारासरे पोताना तपना प्रभावथी एंत्री सुगंधित शरीरवाळी करी दीधी के- जेनी सुगंधथी दशे दिशा बहेकत्रा लागी पछी ते पारासरजी पोताना आश्रममां • चाल्या गया ॥ ८८ ॥ हवे जरा विचार तो करो के -जो व्यासजीए जन्म लेतांज पितानी आज्ञाथी तप ग्रहण कर्य तो हूं मारी मातानी . आज्ञाथी केम तपस्वी न थाउं ? || ८९ || अने व्यासजीने पेदा करवा छतां पण ते घीवरी, कन्याज रही तो मारी माता कन्या रहेवामां शंका राखवी ए पक्षपात सिवाय बीजुं शुं छे ? ॥ ९० ॥ तथा ए बात पण महत्पुरुष, विचारवी जोईए के सूर्यना प्रसंगथी कुंतीए कर्ण नामनो पुत्र पेदा करीने पण ते कन्या रही, तो मारी माता कन्या केम नहि रहे ? ॥ ९१ ॥ तथा पूर्वकालमां एक जगत्प्रसिद्ध उद्दालक नामनो मोटो तपस्वी हतो, तेने स्वप्नावस्थामा वीर्य स्खलित भई गयुं, तेने ग्रहण करीने गंगाजीमां कमलपत्र उपर स्थापन करी दीधुं ॥ ९२ ॥ ते दिवसे अनेक देवांगनाओ सहित इन्द्राणीनी माफक गुणोनी राजधानी अतिशय सुंदर रघुराजानी चंद्रमति नामनी कन्या पोतानी सखिओ साथै चतुर्थ स्नान करवाने मादे गंगा स्नान आवी ॥ ९३ ॥ स्नान करती Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ समये ते विर्यसहित कमळने सूधवाथी ते वीर्य ते चंद्रमतिना पेटमा चाल्युं गयु, तेथी जळनी सीपनी माफक ते चंद्रमतिने सघळी देहयष्टि ने वधारतुं गर्भाधान थई मयुं ॥ ९४ ॥ ते कुमारी कन्याने गर्भवति आइने तेनी माताए आ वात रघुराजाने कही. राजाए तुरतन ते चंद्रमात कन्याने वनमां मोकलावी दीधी. ते ठीकज छे के सत्पुरुष पोताना ग्रहकलंकथी डरताज रहे छे ॥ ९५॥ ते पछी ते कुमारीए तृणबिन्दु नामना मुनिना आश्रममां धनने नाश करवावाळी दुर्नीतिनी माफक निर्मलकीर्ति नष्ट करवानुं कारण नागकेतु नामना पुत्रने मण्यो ॥९६ ॥ ते बालाए खेदखिन्नचित्त थइ तेज वखते पोताना पुत्रने कयु के-मा, तुं तारा पितानी तलाश कर, एम कहीने तेज वखते पुत्रने पेटीमां घाली गंगाजीमां पेटी तरती मुकी दीधी॥९७॥तेपछी ते विशुद्धज्ञानी उदालक रुषिए गंगाजीमां संतरण करीने तरती पेटीमां पोताना वीर्यथी उत्पन्न थयला पुत्रने जोइने ग्रहण कर्यो ॥ ९८ ॥ पछी ते चंद्रमति पण पोताना पुत्रने शोधती ते रुषिनी पासे आवी. रुषिए प्रसन्नता साथे ते बाळकने बतावीने कह्यु के हुं तारो छु, हवे तुं मारी प्रिया थई जा ॥ ९९ ॥ ते कुमारिकाए कह्यु के, हे मुनि! जो मारा पिता तमने प्रदान करतो निःसंदेह हुं तमारी प्रिया थई शकुं छु, ते माटे तुं जईने मारा पिताने याचना कर, केमके, कुलीन कन्याओ पितानी आज्ञा वगर पोते पोतानी मेळे पतिने ग्रहण करती नथी॥ १०॥ ते पछी ते उदालक ऋषीए तरत रानानी पासे जईने प्रार्थनापूवक ते महा गुणवती योवनवती चंद्रमतिने फरी कुमारी कन्या करीने आनंदनी साथे विवाह कर्यो, अने तेने पोताली प्राणाप्रिया Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ 'स्त्री बनावी लीधी, ते नीतिज छे के-कामना पांचे बाणोथी पीडित थईने पाणीजन कया कया अनर्थ करता नथी. ॥ १०१ ॥ इतिश्री अमितगति आचार्यकृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजरात भाषाटीकामां चौदमुं प्रकरण पूर्ण थयु. ॥ १४ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १५ मुं. ते पछी मनोवेगे कह्यु के जो पुत्र होवा छतां पण चन्द्रमति कन्याज रही तो मारा होवाथी मारी माता कन्या केम न होय ? ॥ १॥ आ प्रमाणे ते वौदिक ब्राह्मणोने निरुत्तर करीने ते मनोवेगे बागमां जईने अने तापसीनो वेष छोडीने पोताना मित्रने का के-हे मित्र! केवु आश्चर्य छे के-ए लोकोनां पुराण परस्पर विरुद्ध होवा छतां पण मिथ्यात्वने वशीभूत थई तेना सयासत्यनो कई पण विचार करता नथी ॥२-३ ॥ कोई जग्याए फनस वृक्षना आलिंगनथी पण स्त्रीने पुत्र थाय छे? जो एम थई शके छे तो मनुष्यना स्पर्शथी वेला केम फळता नथी? ॥ ४ ॥ स्त्रीना स्पर्श मात्रथी स्त्री गर्भवती केम थई शके छे? गायना संगथी गायनुं गर्भवति थ, हमे तो कदि पण जोयुं नथी ॥ ५ ॥ जरा सरखी देडकी मनुष्यने पेदा करे छे एवो कोई विश्वास करशे ? कोई जग्याए भात वाववाथी कोदरा पण पेदा थयला जोया छ ? ॥ ६ ॥ जो शुक्रना भक्षण मात्रथीज संतान थई जाय तो स्त्रीओने संतानने माटे पतिनो संग करवानुं शुं प्रयोजन छे? ॥ ७॥ शुक्रना स्पर्श मात्रथीन पुत्रनी उप्तात्त थई जाय तो पछी बीयां पडतांन पृथ्वी धान्य केम आपती नथी ? ॥८॥ जो शुक्रसहित कमलने फक्त सुंधवाथीज स्त्रीने गर्भाधान थई जाय छे तो. भोजनसहित थाळनी पसे होवाथी ताप्ति केम थती नथी? ॥९॥ देडकीए तेने कन्या जाणीने कमलनांपांतरां उपर केवी रीते मूकी ?शु देडकानी जातमा एवं ज्ञान कदी कोईए Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जोयुं अथवा सांभळयुं छे ? ॥ १० ॥ सूर्य, धर्म, पवन अने इन्द्रना संगथी कुन्तीने कर्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, एटला पुत्र थया, एवो कयो बुद्धिमान विश्वास करी शकशे ॥ ११ ॥ जो देवोनी साथे मनुष्यनो संगम थाय छे, तो मनुष्योनो देवांगनाओनी साथ संगम थवो केम जोवामां आवतो नथी ? ॥ १२ ॥ सवळी अशुचिओनुं घर एवा महा मलिन मनुष्यना शरीरमा धातु अने मेल राहत देव केवी रीते रमे ? ॥ १३ ॥ हे मित्र ! अन्यमतनां शास्त्र छे ते सघळां अविचारिओनेज रमणीक देखाय छे, परंतु विवेकी पुरुष तेनो जेटलो विचार करे छे तेटलोज खंडित थई जाय छे || १४ || महाप्रभाववाळा देवता अने तपस्वीगण कन्याने भोगवीने स्त्री करे छे, ए वात विद्वान माणस कदापि मानता नथी, केमके ॥ १५ ॥ जे परस्त्रीलंपट थईने परस्त्रिओनुं सेवन करे छे एवा व्यभिचारीओने प्रभावशाली देव केवीरीते कही शकाय ? ॥ १६ ॥ हे मित्र ! असत्य कथा करवाथी शुं लाभ? हुं तने जैनमत प्रमाणे कर्णराजानी उत्पत्तिनी साची कथा कहुं हुं ते सांभळ ॥ १७ ॥ हस्तिनापुर नगरना व्यास नामना राजाने गुणोना घर एवा धृतराष्ट्र, पांडु अने विदुर नामना जगत् प्रसिद्ध त्रण पुत्र थया ॥ १८ ॥ एक दिवस कोई मनोहर बागमां क्रीडा करता पांडुए मंडपमां पडेली एक विद्याधरनी अंगुठी जोई ॥ १९ ॥ पाण्डु ते अंगुठीने आंगळीमां घालीने जोतो हतो, एटलामांज ते अंगुठीनो मालिक चित्रांगद नामनो विद्याधर पोतानी अंगुठीने शोधतो आवी पहोंच्यो ॥ २० ॥ ते निस्पृहि पांडुए तेज बखते ते अंगुठी ते विद्याधरने सोंपी दीधी. ते नीतिज छे के महापुरुष परद्रव्यमां निस्पृाहिज होय छे ॥ २१ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते विद्याधर पांडुनी आ प्रमाणे अलोभताने ओई तेने पोतानो परम मित्रा समजवा लाग्यो; केमके-जे अन्य द्रव्यथी परांडमूख छे ते जगता मात्रना मित्र थाय छे ॥ २२ ॥ ते विद्याधरे पांडुने कह्यु के-हे साधु ! तुंज मारो मित्र छ, केजे परद्रव्यने कचरा समान जुए छ ॥ २३ ॥ हे मित्र ! तुं उदास देखाय छे तेनुं कारण शुं छे ? केमके-चतुर पुरुष पोताना मित्रथी कई पण छुपावता नथी ॥ २४ ॥ त्यारे पांडुए कह्यु के-हे मित्र ! सूर्यपुरमां अंधकवृष्टि नामनो राजा स्वगना इन्द्रनी माफक राज्य करतो रहे छे, ते राजाने त्रिलोकने जीतबाबाळा कामदेवे उंची करेली पताका समान एक कुति नामनी अतिशय सुंदर कन्या छे ॥ २५-२६ ॥ ते कामदेवने वघारवा वाळी कन्या तेना पिताए पहेलांतो मने आपत्री कही हती, परंतु मने पांडुरोगी जोईने हवे आपनो नथी ॥ २७ ॥ तेज माटे हे मित्र ! मारा मनमा लाकडाने कुहाडा समान मारा माने कापवावाळो खेद उत्पन्न थई गयो छे ॥ २८ ॥ त्यारे चित्रांगदे कायु के-हे मित्र ! ए खेदपणाने छोड, हुं तारा उगने दूर करीश, तुं मारुं कर्तुं कर ॥ २९ ॥ हे मित्र ! आ मारी अंगुठीने लईने पहेरी ले, जेनाथी तुं कामदेव समान सुंदर थई ते तारा मननी प्यारीने सेवन कर. ज्यारे ते गर्भवती थई जशे, त्यारे ते राजा पोते पोतानी मेळेज तने आपी देशे, केमके-दषित कन्याने पोताना घरमां कोई पण राखतुं नथी ॥ ३०-३१ ॥ ते पछी ते पांडु ते अंगुठी पहेरीने कुंतीना महेलमां गयो. पहेलां तो संसारी जीव पोतेज विषयलंपटी होय छे; पण ज्यारे सुगम उपाय मळी जाय तो पछी कहेज शुं ॥३२॥ आ. प्रमाणे कामाकारनो धारक ते पांडु कुंतीने Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेळवीने स्वेच्छापुर्वक सेवन करवा लाग्यो. एवो कोण पुरुष छ के जे पोताना मनने प्यारी स्त्रीने एकांतमा मेळवीने पोतानी इच्छा पूर्ण न करे ॥ ३३ ॥ कुमारीने सात दिवस सूधी ते युवान पुरुषे सेवन करीने तेने गर्भारोपण करी दी● ॥ ३४ ॥ ते पछी ते पांडु त्यांथी निवृत्त थइ कुंतीने त्यांन मुंकीने पोताने वेर आव्यो, ते ठीकज छे के मनवांछित कार्यनी सिद्धि थवाथी कोने निवृति थती नथी ? ॥ ३५ ॥ कुंतीनी माताए तेने गर्भवती जाणीने पूरा दिवस थवाथी गुप्त भावी प्रसूति करावी. ते ठीकज छे के पोताना घरनी निंदाना भयथी सघन गुप्तवातने छूपावे छे ॥ ३६ ॥ पछी कुंतीनी माताए गृहकलंक ना भयथी तेना पुत्रने एक पेटीमां बंध करीने गंगाजीमांतरतो मूकी दीधो ॥ ३७ ॥ सम्पत्तिने दुर्नीतिनी माफक ते पेटीने गंगाजी तरावती लई जती हती, जेने चंपापुरीना आदिस राजाए लई लीधी ॥३८॥ पेटीने उघाडीने जोई तो तेमां राजाए पवित्र लक्षणोसहित विद्वानोवडे पूजनीय जिनवाणीना अनिंद्य अर्थसमान सुंदर बाळक जोयो ॥ ३९ ॥ बालकने पोतानो कान पकडेलो जोईने राजाए तेनुं प्रीतिपूर्वक कर्ण एवं नाम राख्यु ॥ ४० ॥ जे प्रमाणे दरिद्री द्रव्यने मेळवीने तेनी रक्षा करे छे, ते प्रमाणे ते पुत्र वगरनो राजा तेने पुत्र समजी मोटा यत्नथी रक्षा करीने उछेरवा लाग्यो ॥ ४१ ॥ ते पछी ते महोदयरुप आदित्य राजा मरण पामवाथी ते कर्ण आकाशने चन्द्रमा समान त्रिमुवनने आनंद करवावाळो चंपावती नगरीनो राजा थई गयो ॥ ४२ ॥ आदित्य नामना राजाए पालनपोषण करीने उछेर्यो ते कारणयीते कर्ण आदिसज कहेवायो छे. ज्योतिष जातिना सूर्यनो पुत्र कदापी नथी ॥४३॥जोधातुराहत देवोवडेस्त्रिओनरनेउप्तन Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे छे,तो पाषाणवडे पृथ्वीमांधान्यादिक उप्तन्न थर्बु जोईए॥४४॥ ते पछी दोष छूपाववाने माटे अंधकवृष्टि राजाए ए सघळी बीना जाणीने ते कुंती पांडुनेज परणावी, अने धृतराष्ट्रने गांधारी नामनी बाजी कन्या परणावी ॥ ४५ ॥ पुराणानी साची कथा तो आ प्रमाणे छे, अने व्यासजीए जुदाज प्रकारे कही छे. रागद्वेष अने आग्रहथी लवलिन पुरुष पाप कार्यथी डरता नथी ॥ ४६ ॥ केमके धर्मात्मा पुरुष होय छे, तेओ युक्तिथी सिद्ध नहि होय, एवां वचन कदापि कहेता नथी. पापी माणसज युक्तिथी अघटित वचन कहे छे ॥ ४७ ॥ आ संसारमा सघळानो सर्व प्रकारनो संबंध जोवामां आवे छे परंतु एवं कदापि पण जोवा सांभळवामां आव्युं नथी के-पांच भाईओने एकज स्त्री होय ॥ ४८ ॥ जो के संसारी जीव सर्व प्रकारनी धनसंपत्तिनो विभाग करे छे, परंतु स्त्रीनो संविभाग तो नीचपुरुषोने त्यां पण निंदनीय छे ॥ ४९ ॥ हे मित्र ! योजनगंधा नामनी धीवरीनो जणेलो व्यास कोई बीजोज हशे. अने आ धन्यवादनीय सत्यवती रामकन्या नो व्यासपुत्र ( व्यास नामनो ) राजा बीजो छे ॥ ५० ॥ पारासर राना बीजो छे, अने पारासर तापसी बीजोज छे, परंतु मूढ लोक नाम मात्रने सांभळीने कंईनो कई संबंध लगावे छे ॥ ५१॥ दुर्योधनादिक सो पुत्र तो गांधारी अने धृतराष्ट्थी उत्पन्न थया, अने जगत्प्रसिद्ध पांच पाडव छे ते कुंती तथा माद्रीना पुत्र छे ॥ ५२ ॥ गांधारीना सों पुत्र तो कर्ण राजा सहित जरासिन्धु नामना राजाना अनुयायी सेवक हता. भने पांच पांडव श्री कृष्ण नवमा नारायणनी सेवामां रहेता हता ॥ ५३ ॥ ते महाबली श्री कृष्ण जरासिंधु प्रति नारायणने Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारीने सघळी पृथ्वीनो (त्रण खंडनो ) राजा थयो ॥ ५४॥ अने कुंतीना पुत्र युधिष्टर, भीम अने अर्जुन तो तपस्या करीने मोक्षे गया. अनेमाद्रीना मोटा पुत्र नकुल अने सहदेव सर्वार्थ सिद्धिए गया ॥१५॥ अने दुर्योधनादिक पण जिनशासननी सेवा करीने पोतपोताना कर्मानुसार स्वर्गादिकमां गया ॥ ५६ ॥ हे मित्र! पुराणोनो अभिप्रायतो आवो छे, अने व्यासजीए कईनुं कईज कह्यं छे. ते नितीन छे के मिथ्या स्वयी आकुलीत छे चित्त जेर्नु एवा पुरुषोनी वाणी सत्य केम होय? ॥५७ ॥ महाभारतमां अतिशय निंदानी कारणरूप पूर्वापर विरुध्ध कथाने जोई व्यासजीए पोताना मनमा ए प्रमाणे विचार कर्यो के-॥ ५८ ॥ जो आ लोकमां निरर्थक कार्य पण थई जाय छे तो निश्चय करीने खोटा अवाळु मारु बनावेलं आ असंबद्ध शास्त्र ( महाभारत ) पण प्रसिध्ध थई जशे ॥ ५९ ॥ आ प्रमाणे विचार करता करतां व्यासजीए गंगाना किनारा उपर पोतानु ताम्रपात्र वालूरतमां दाटीने तेना उपर तीनो ढगलो बनावीने स्नानार्थ गंगाजीमा प्रवेश कर्यो ।। ६० ॥ व्यासजीने रेते नो ढगलो करीने स्नान करवाने जता जोई मूर्ख लोकोए " ए प्रमाणे रेतीनो ढगलो करी गालामार्थ जवामां कोई पण विशेष पुण्य (धर्म) यशे" एबुं समजीने व्यासजनी देखादेखीथी सघळा माणसो रेतीनो ढग बनावी गंगालान करवा लाग्या ॥ ६१ ।। व्यासजी स्नान करीने पोताना ताम्रपात्रने जोवाने माटे आव्या, तो असंख्यात रेतीना ढगलाओमां ते स्थाननो पण पत्तो लगाडी शक्यो नहि ॥ ६२ ॥आ प्रमाणे रेतीना ढगथी गंगा किनाराने भरेलो कोई सवळा लोकोने मूह समीने आ श्लोक बोल्या के-६३ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ दष्ट्वानुसारीभिर्लोकैः परमार्था विचारिभिः । तथा स्वं हार्यते कार्य यथा मे ताम्रभोजनं देखादेखी करे छे, अर्थः- जे लोक परमार्थनो विचार नाह करीने बीजानी ते मारा ताम्रभाजननी माफक पोतानुं कार्य नष्ट करे छे ॥ ६४ ॥ आ मिथ्याज्ञानरूपी अंधकारना विस्तारथी भरेला लोकमां जो कोई विचारवान पुरुष होय तो लाखमा कोई एकज हशे ॥ ६५ ॥ ते माटे निश्चय छे के मारूं आ विरुद्धशास्त्र ( महाभारत) पण लोकमां बहुमान्य थशे. आ प्रमाणे लोक मूढतानो विचार करीने व्यासजी पाताना मनमां बहु प्रसन्न थया ॥ ६६ ॥ आ प्रकारनां लौकिक पुराणोने पोताना शत्रु ववना समान जाणीने बुध्धिमानोर प्रमाण कर कोई प्रकारे पण उचित नथी ॥ ६७ ॥ हे मित्र ! हुं तने बाजा पण पुराणाना गपाटा बतावुं छु एम कहींने मनोवेगे भगवां वरू वाळो वेष धारण कर्थे ॥ ६८ ॥ ते पछी पोताना मित्रने साथै लई पांचमे दरवाजेथी पटना नगरमा गयो, अने वादशालामां जईने घंट वगाडीने सोनाना सिंहासन उपर बेसी गयो || ६९ ॥ घंटो अवाज सांभळीने सघळा ब्राह्मण एकठा थईने आव्या अने मनोवेगने करूं के - तुं विचक्षण पुरुष देखाय छे, हमारी साथै कया विषयमां वाद करशे ? कई जाणे पण छे के नहि? ।। ७० ।। रक्तपटधारी मनोवेगे कह्युं के - हे ब्राह्मणो ! हुं कई पण शास्त्र जाणतो नथी. आ अपूर्व घंट वगाडोने आ सिंहासनपर अमयोज बेसी गयो हुं ॥ ७१ ॥ ब्राह्मणोए कह्युं के - हे भाई ! मस्करी छोडोने साचुंज स्पष्टताथी कहो ? समीचीन कहेवावाळानी साथे मश्करी करवावाळानी निंदा करवामां आवे छे ॥ ७२ ॥ मनोवेगे कछु के Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ हुं मारा जोयला आश्चर्यने अवश्य कहीश, परंतु तमे विना विचारे कंईनुं कंई समजी लेता नहि ॥ ७३ ॥ ब्राह्मणोए कधुं के हे भाई ! तुं कोई प्रकारे डर नहि, जे कंई कहेतुं होय ते कहे अमे सघळा न्यायवासित मनवाळा विवेकी छीए ॥ ७४ ॥ त्यारे मनोंवेगे कह्युं के जो तमे सघळा विवेकी अने नैयायिक छो, तो हुं हुं हुं ते सांभळो. अमे बन्ने उपासकोना पुत्र छीए. तथा बौद्धगुरुनी सेवा कर्या करीए छीए ॥ ७५ ॥ एक समये ते बौद्धोए पोतानां कपडा सुकाववाने माटे पाथरी दीघां हतां अने अमे बन्ने हाथमां लाकडी लईने ते कपडांनी रक्षा करवा लाग्या ॥ ७६ ॥ हवे ते वखते अमे बन्ने मोटा यत्नथी ते कपडांनी रक्षा करता हता. एटलामांन महा भयंकर मोटा मोटा बे गीध आव्या ॥ ७७ ॥ गीधना भयथी अमे बन्ने एक माटीना टेकरा उपर चढी गया, परंतु ते बन्ने गीधोए ते टेकराओ उठावीने आकाश मार्गमां चालवु शरु कर्यु ॥ ७८ ॥ अमारो बुमाटो सांभळीने बौद्ध भिक्षुक अमारी रक्षाने माटे आव्या, परंतु एटलामां तो ते झडपवाळा गीध बार योजन दूर चाल्या आव्या ॥ ७९ ॥ ते पछी ते बन्ने गीध ते टेकरीने जमीन उपर मूकीने अमने बनेने भक्षण करवाने तैयार थपा पण तेज वखते तेओए अनेक प्रकारना शस्त्रधारी शिकारीओने जोया ॥ ८० ॥ तेओने जोतांज ते बन्ने गीध भयभीत थईने अमने बन्नेने खावाना छोडीने जता रह्या. ते ठीकज छे, के प्राण जवानी बीकमां एवो कोण छे के जे भोजन करवा बेसे ! ॥ ८१ ॥ ते पछी ते शिकारीओनी साथे शिव नामना देशमां आवीने अमे बन्नेए पोताना मनमां विचार कर्यो के ॥ ८२ ॥ आ पारका देशमां तो भान्या, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंतु रस्ताखर्च विना अने मार्ग जाण्या विना रस्तो भूली जइशं, तो आपणे घेर केवीरीते जइY?॥८३॥ एनाथी श्रेष्ट तो एज छे के- आपणे बन्ने आपणा कुलथी चालता आवेला बुद्धभाषीत तपने ग्रहण करीए, जेथी उभयलोकमां नित्य समिचीन सुखनी प्राप्ति थाय ॥ ८४ ॥रक्तवस्त्र तो छेज, फक्त मूंडावी लईशुं. अनर्थोनुं कारण एवा घरने आपणे शुं करशुं ?॥ ८५ ॥ आ प्रमाणे विचार करीने हमे बन्नेए पोतानी मेळेज बुधभाषित व्रत ग्रहण करी लीधां, केमके चतुर होय छे तेओ पोतेज धर्मकार्यमा लागी जाय छे, कोईना उपदेशनी जरुर राखता नथी॥ ८६ ॥ ते पछी हमे बने नगरना समुहोथी शोभित आ पृथ्वीमा फरतां फरतां आज आपना आ नगरमा आल्या छीए ॥ १७ ॥ गीधोए टेकराने उपाडवो अने लई नवो वगेरे जे कंई आश्चर्य हमे प्रत्यक्ष जोयां हता, ते आपना आगळ कह्यां ॥ ८८ ॥ आ वचन सांभळीने ब्राह्मणोए कह्यु के हे भाइ ! तमे तपस्वी थइने पण आ प्रमाणे असत्य भाषण केम करो छो ? ॥ ८९ ॥ अमने तो मालम पडे छे के सृष्टि कर्ताए त्रण लोकना असत्यवादिओने एकठा करीनेज तमने बनाव्या छे, केमके - आवा असत्यवादि बीजा कोई पण हमारा जोवामां अथवा सांभळवामां आव्या नथी ॥९० ॥ ब्राह्मणानुं वचन सांभळीने मनोवेग बोल्यो के - हे ब्राह्मणो ! आपनां पुराणोमां शुं आवा जुठां वचन नथी ? अवश्य छे परंतु आ सघळु जगत पारकाना दोषोनेज जुए छे. पोताना दोषने कोई जातुं नथी. जे प्रमाणे चन्द्रमामा कलंक तो सघळा जुए छे, परंतु पोतानी आंखमा नांखेली मेसने कोई पण जोतुं नथी ॥ ९१-९२ ॥ आ सांभलीने वेदाभ्यासिमीमां श्रेष्ट एवा ब्राह्मणोए कयु के - हे भाई ! जो तें हमारा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराणोमां एवं असंभव कोई जग्याए पण जोयुं होय, तो निःशंक थईने कहे. हमे विचार करीने एवा असत्यने अवश्य छोडी दइशुं ॥ ९३ ॥ आ प्रमाणे सांभळीने मनोवेगे कयु के – हे विप्रो ! जो तमे असत्य जाणीने छोडी देशो, तो हुं तमारा पुराणने कहुं छु ॥ ९४ ॥ जेवखते वीररसाना धारक रामचंद्रजी त्रिशिख खग्दुषणादि राक्षसोने मारीने सीता अनेलक्ष्मणसहित वनमा रहेता हता, तेवखते त्यांलंकाधिपति रावण आव्यो अने ते रावणे सोना-हरण बनाने मद्रजीने ललचाव्या अने सीतानी रक्षा करबाबाळा जटायु मारी सीताने हाण करी लई गयो ते ठीकन छ के- कानी पुरुष कोने पद . करता नथी? ॥ ९५-९६ ॥ते पछी रामचंद्रजीए बलवान बलिराजाले मारीने वानरोसहित सुग्रीवन राजा बनाव्यो, अने पोतानी प्यारी सीतानो पत्तो मेळववाने माटे हनुमानने मोकल्या ॥ ९७ ॥ सरे लंकामां सी गाने जोईने ते बहु झडपवाळा हनुमानना आववा यछी रामचंद्रजीए वांदराओने आज्ञा करीने मोटा मोटा पर्वतोक्डे समुद्रमा पूल बंधाव्यो ते ठीकज छे, के स्त्रीनी वांछा करवावाळा कयु आश्रर्यकारक कार्य करता नथी? ॥ ९८ ॥ ___आ प्रमाणे श्री अभितगती आचार्यकृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाटीकामां पंदरमुं प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ १५ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १६ मुं. १. ए पछी एक एक वांदरोए जोतजोतामां पांच पांच पर्वतो उपाडीने आकाशमां अनेक प्रकारनी क्रीडा करतां समुद्रनो पुल तैयार करी दीधो ॥ १ ॥ माटे हे ब्राह्मणो! वाल्मीकि मुनिना बनावेला रामायण नामना ग्रंथमां आ प्रमाणे कयुं छे के नहि ? ॥२॥ त्यारे ब्राह्मणोए कमु के हे भाई! ए रामायणना सत्य कथनने कोण असत्य कही शके छ ? केमके-हाथथी उदयरुप प्रभातने कोई छुपावी शकतुं नथी॥ ३ ॥ ते पछी रक्तपटधारी मनोवेगे कह्यु के-हे विनो! एक एक वांदरो पांच पांच पर्वत रमतनी माफक आकाशमां लई जाय तो बे मोटा मोटा गीध एक नाना सरखा टेकराने आकाशमां लईने चाल्या गया, ए वातने असत्य केम कहो छो? ॥ ४-५ ॥ तमारं कहेलं तो सत्य अने मारुं कहेलुं असत्य ! माटे अहिंआं तो मने विचारशून्यता सिवाय बीजुं कोई कारण देखातुं नथी ॥६॥ तमारा एवा शास्त्रमा देवधर्मनुं पण स्वरुप बरोबर नथी, माटे जेतुं कारणज सदोष छे, तेनुं कार्य निर्दोष केम होय!॥ ७॥ एवा मिथ्याज्ञान अने चारित्रवालामां बेसवु अमारा सरखाने योग्य नथी. आ प्रमाणे कहीने ते बन्ने मित्र त्यांथी चाल्या आव्या ॥ ८ ॥ रक्ताम्बर वेष छोडीने मनोगे पोताना मित्रने कयु के- सघळा प्रकारे असंभव. अभिप्रायने .प्रगट करवावाळां शास्त्र ते सांभळयां ? ॥ ९॥ ए जे 'रामायणादिकमां धर्म कह्यो छे, ते प्रमाणे चालवाथी कई पण Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० फलनी सिद्धि नथी, केमके रेतीने पीलवाथी कदी तेल नीकळवानुं नथी ॥ १० ॥ हे मित्र ! वांदराओथी राक्षस कदापि मारी शकाता नथी, केमके -क्यां ए अष्ट महाऋधिना धारक राक्षस अने क्यां ए ज्ञानरहित पशु ! ॥ ११ ॥ जरा विचार तो कर, के वांदरा मोटा मोटा भारी पर्वतीने केवीरीते उपाडी शके ? अने ते अगाध समुद्रमां नांखेला केवीरीते रही शके अने केवीरीते पुल बंधाई शके छे! ॥ १२ ॥ जो रावण देवताओथी पण अवध्य छे एवं वरदान पाम्यो छे तो मनुष्य कई रीते मारी शके छे॥१३॥ तथा जो देवताओएज वांदरा थईने राक्षसोना अधिपतीने मार्या एम कहो तोए कहे पण मनोवांछित गतिने प्राप्त थतुं नथी ॥ १४ ॥ शंकरे सर्वज्ञ थईने रावणने एवं वरदान केम आप्युं के जेनाथी देवताओने पण मोटो उपद्रव थयो ॥ १५ ॥ हे मित्र ? पाणीने वलोववाथी मांखण नीकळतुं नथी. तेज प्रमाणे अन्य मतनां पुराणोनो विचार करवाथी ते सर्वे प्रकारे सार रहित देखाय छे ॥ १६ ॥ हे मित्र ! ए लोकोना कह्या प्रमाणे सुप्रीवा - दिक वानर अने रावणादिक राक्षस नहोता ॥ १७ ॥ एसघळा विद्या विभवथ संपन्न जैनधर्ममा लवलीन पवित्र सदाचारी मोटा प्रतापी मनुष्योना राजा हता. एनी सेनामां वांदरानुं चित्र कहाडेली ध्वजा होवा थी ते वानरवंशी कहेवामां आवे छे। अने मोटी विद्याओना धारक रावणादिकनी ध्वजामां राक्षसोनी मूर्तिनुं चिन्ह होवाथी राक्षसवंशी कवाय छे ।। १८-१९ || माटे हे मित्र ! चन्द्रमा समान उज्वलद्रष्टिना धारक जे जीव छे तेओए जे प्रमाणे महावीर स्वामीना गौतम गणधरे श्रेणिक राजा आगळ वर्णन करेलं छे ते प्रमाणे श्रद्धान कर जोई || २ || हे भाई ! अन्यमतना पुराणोना बीजा पण गपाटा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताईं छु, एम कहीने तेणे पवनवेग सहित श्वेतांबरनो वेष धारण कर्यो अने ॥ २१॥ पटना नगरमां छठे दरवाजेथी प्रवेश करीने पाठशालामा जईने तरतज वाद सुचनानो घंट वगाडीने सोनाना सिंहासन उपर बेसी गयो ॥ २२ ॥ घटनो अवाज सांभळतांन ब्राह्मणोए आवीने मनोवेगने पूछयुं के-तुं कयुं शास्त्र माणे छ ? तारा गुरु कोण छे ? हमारी साथे कयो वाद करी शके छे ते कहे, कह्या वगरतो फक्त तारी सुंदरताज देखाय के ॥ २३ ॥ मनोवेगे कयु के - हुं कई जाणतो पण नथी अने मारो कोई गुरु पण नंथी. वादनुं नाम पण जाणतो नथी तो वाद करवानी शक्ति क्यांथी होय ? ॥ २४ ॥ हुं तो आहयां पहेलां नहि जोयलं ए, सोना, सिंहासन जोइने बेशी गयो, अने आ घंटनो अवाज सांभळवानी इच्छाथी वगाडी जोयुं छे ॥ २५ ॥ हमे शास्त्र ज्ञान रहित गोवालीयाना मूर्ख छोकरा छीए. कोई भयथी हमारी मेळेज तप ग्रहण करीने पृथ्वीमां भ्रमण करता फरीए छीए ॥ २६ ॥ ब्राह्मणोए कह्यु के- तमे कपा भयथी भयभीत थइ आवी युवावस्थामा तप ग्रहण कर्यु ते कृपा करीने कहो. हमने सांभळवानी घणी इच्छा छे ॥ २७ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यं के हमारा पीता आभीर देशना वृक्ष नामना गाममां घेटां पाब्वानो रोजगार करता रहे छे ॥ २८ ॥ एक दिवस घेटांनी रक्षा करनार हमारा नोकरने ताव आववाथी हमारा पीताए धेटांओंनी रक्षा करवाने माटे हमने बन्ने भाईओने मोकल्या तथा हमे बने वनमां गया ॥ २९ ॥ हमे ते वनमां मोटा उदयरूप कुटुंब समान शाखाओ सहित फळोथी नम्रीभूत एक कोतुंबाड जोयुं ॥ ३० ॥ तेने जाइने काठ खावानी इच्छाथी में आ भाईने कह्यु के - हे भाइ ! घेटांओनी रक्षा कर, हुं आ शाडनां कोठ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ खाईने भानुं हुं ॥ ३१ ॥ ते घेटांओनी रक्षा माटे भाइना चाल्पा नवा पछी में ते कोठना झाडने बहु उंचुं जोइने विचार कर्यों के - ॥ ३२ ॥ आ झाडउपर तो हुं कोइ प्रकारे पण चढी शकतो नथी तो पछी केबी रीते कोठ खाइने मारी भूख मटाडुं ? ॥ ३३ ॥ पछी में ते कोठना झाडनीचे जइने विचार कर्यो तो कोइ उपाय सुज्यो नाह, त्यारे लाचार थइ मस्तक कापीने मारा सघळा प्राण सहित तेने कोठना झाडउपर फेंकी दीघुं ॥ ३४ ॥ मारा मस्तके जेम मेम कोठ खावां शरु कर्या, तेम तेम महा सुख करवावाळी तृप्ति आववा लागी एटले मारी भुख मटबा लागी, ॥ ३५ ॥ ज्यारे मारा मस्तके नीचे नजर करीने मारुं पेट पूर्ण भरलं मोयुं तो झाड उपरथी झट आवीने मारा धडउपर जोडाइने पहेलांनी माफक चोटी गयुं ते पछी हुं मारां घेटां जोवाने गयो ॥ ३६ ॥ ज्यारे हुं त्यां जइने जोऊं ह्युं तो मारो भाई एक जग्याए सूइ रह्यो छे, ने घेटांओनो कई पत्तो पण नथी ॥ ३७ ॥ में मारा भाइने ऊठाडीने पूछयुं तो तेणे कह्युं के हे भाइ ! मारा सूइ जवा पछी घेटां क्यां चाल्यां गयां ते मालुम नथी ॥ ३८ ॥ त्यारे में मारा भाइने कह्युं के - हवे आपणे घेटांओ गुमावीने घेर केवी रीते जइए ? पिताजी सांभळतांज कोप करशे अने आपण बँन्नेने बहु मारशे ॥ ३९ ॥ अने वेष वगर परदेशमां जइशुं तो पण भुखथी मरी जइशुं, ते माटे हे भाई ! आपणे बंने कोई वेष धारण करीए ॥ ४० ॥ आपणे आर्हआं लाकडी कमंडल सहित मुंडित मस्तकवाळा ने श्वेत वस्त्रवाला साधुओने भोजनादिकनुं मोटुं सुख छे ॥ ४१ ॥ आपणा कुळथी एवा श्वेतांबरी साधुओनीज भक्ति थती आबी छे माटे आपणे बंने तो श्वेत पटधारीज बनीए बीजा वेषनुं कई प्रयोजन नथी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४२ ॥ आ प्रमाणे विचार करीने हमे बन्ने पोतानी मेळे श्वेतांबरी साधु बनी गया, अने. पृथ्वीमां भ्रमण करता करता आज तमारा नगरमां आव्या छीए ॥ ४३ ॥ ब्राह्मणोए का के-कदाच तुं नरकमां जवाथी डरतो नथी तो पण व्रती पुरुषे आ प्रमाणे असत्य भाषण कर सर्वथा अयोग्य छे ॥ ४४ ॥ आ सांभळीने मनोवेगे कडं के तमारा वाल्मीकीकृत रामायणमां आ प्रमाणेनां वचन शुं नथी? ॥ ४५ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के-जो तें रामायणमां कोई जग्याए पण एवं कथन जोयुं होय तो निःसंदेह कहे. त्यारे मनोवेगे कह्यु के-॥४६ ।। दश मस्तक अने वीश हाथवाळा अतीशय धारवीर त्रण भुवनमा प्रासंध राक्षसोना अधिपति रावणे शिवजीमां अत्यंत स्थायी भाक्ति प्रगट करवाने माटे तरवारथी पोतानां नव मस्तक कापी नांख्यां अने पुष्पना दल समान छे होठ जेना एवा मुखरुपी नव कमलो द्वारा शिवभीनी भक्तिपूर्वक पूजा करी. ते ठीकज छे, के वरदाननी इच्छा राखवावाळा शुं शुं करता नथी, ॥ ४७-४८-४९ ॥ ते पछी रावणे पीस हाथोथी गंधर्वदेबोने पण मोहित करवावाळु हस्तक नामनुं संगीत करवा मांडयु ॥ ५० ॥ महादेवे पण पार्वतीना मुख उपरथी पोतानी द्रष्टि हठावाने रावणना साहसने जोई तेने मन मान्युं वरदान आप्यु ॥५१॥ ते पछी गरम गरम लोहीथी जमीनने सिंचन करती डोकाओ नी हार मस्तकमालाने रावणे जोड रहित पोतानी खांधोपर वळगावी लीधी ॥ ५२ ॥ हे ब्राह्मणो! आ प्रमाणे वाल्मीकीए रामायण मां लल्यु छ के नहि ते तमे लोक जो सत्यवादी छो तो बरोबर कहो ॥ ५३॥ ब्राह्मणोए कह्यु के-हे साधु! ए सघळु सत्य छे, ए प्रमाणे Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्रसिध्ध अने प्रत्यक्ष वातने अन्यथा कोण कही शके ? ॥ ५४ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्युं के जो रावणनां कापेलां नव मस्तक तेना धड साथे वळगी गयां तो मारुं एक मस्तक केम न वळगी शके ? ॥ ५५ ॥ तमारुं तो ए वचन सत्य अने मारुं वचन असत्य ! एमां मोहना महात्म्य सिवाय बीजुं कई कारण देखातुं नथी ॥ ५६ ॥ कदाच आप कहो के रावणनुं मस्तक तो महादेवजीए जोडी दीधुं पण ते कदी थई शकतुं नथी, केमके जो महादेवजीमां मस्तक जोडवानी शक्ति होत तो तपस्विओ द्वारा कपाय लुं पोतानुं लिंग केम नाहि जोडी दीधुं ? ॥ ५७ ॥ जे महादेव पोतानो उपकार करवामां असमर्थ छे, ते बीजानो उपकार कदी करी शके नहि, केमके ने वैरीना मारथी पोतानीज रक्षा करी शकतो नथी, ते बीजानी रक्षा केवीरी करशे ? ॥ ५८ ॥ हे विप्रो ! बीजुं पण सांभळो. श्रीकंठा नामनी ब्राह्मणीए नगतप्रसिध्ध दधिमुख नामना पुत्रने ( जेने मस्तक सिवाय हाथ पग धड कई पण नहोतुं ) उत्पन्न कर्यो ॥ ५९ ॥ ते दधिमुखे थोडाज दिवसोमां नदिओने समुद्र समान मनुष्यने निर्मळ करवावाळा सघळा वेद अने स्मृति वगेरे मोढे करी लीधां ॥ ६० ॥ एक दिवस ते दधिमुखे ( मस्तके ) अगस्त्यमुनिने जोई भक्तिपूवर्क प्रार्थना करी के - हे मुनि! आज तो आप मारे घेरज भोजन करो ॥ ६१ ॥ अगस्त्यमुनिए कं के है भद्र ! तारुं घर क्यां छे? के ज्यां तुं मने पूर्वक भोजन करावशे ? ॥ ६२ ॥ दधिमुखे कह्युं के - हे मुनि शुं मारा पितानुं घर छे ते मारुं घर नथी? मुनिए कहां के तारो ते घर साथे कई पण सबंध नथी, केमके आदर Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ जेना घरमां दान धर्म क्षमादि गुणवाळी सारी स्त्री होय तेज ग्रहस्थ (घरवाल ) होय छे. कुमार अवस्थामां दान आपवा योग्य (दाता ) गृहस्थी थई शकता नथी ॥ ६३-६४ ॥ आ प्रमाणे कहीने मुनिना चाल्या नवा पछी दधिमुखे पोतानां मातापिताने का के-कोई पण प्रकारे मारुं कुमारपणुं दूर करो अर्थात् मारो विवाह करो ॥६५॥तेनां मातापिता ए कह्यु के हे पुत्र! तने पोतानी पुत्री ते कोण आपशे? तोपण अमे तारी आ ईच्छा पूर्ण करीशुं ॥ ६६ ॥ ते पछी घणुं द्रव्य आपीने कोई दरिद्रीनी पुत्री साथे महोत्सवपूर्वक दधिमुखनो विवाह करी दीधो ॥६७ ॥ केटेलाक दिवस पछी दधिमुखनां मातापिताए कह्यु के-हे बेटा! हवे अमारी पासे द्रव्य रघु नथी माटे तुं जुदो थईने तारी स्त्री- पालनपोषण कर ॥ ६८॥ आ सांभळी दधिमुखे पोतानी स्त्रीने कयु के-हे वल्लभा ! पिताए आपणने घरमांथी काढी मूक्या, माटे चालो, कोई जग्याए पण रहीने जीवन व्यतीत करीए ॥ ६९ ॥ ते पछी ते पतिव्रता पोताना पतिना ( मस्तकने) एक शिंकामां राखीने पृथ्वीमां घेर घेर देखाडती फरवा लागी ॥ ७० ॥ आ प्रमाणे पूजा प्रतिष्टा मेळवती ते पतिव्रता उज्जनि नामनी नगरीमा आवी. ते नगरीमां चारे तरफ मोटा मोटा जंगल हतां ॥ ७१ ॥ आ प्रमाणे मस्तक मात्र पतिने पालती स्त्रीने जोवाथी सघळा लोको तेने भक्तिपूर्वक अन्नवस्त्रादि आपवा लाग्या ॥ ७२ ॥ ते पतिव्रता पोताना पति सहित शिंकाने केरानी झाडीमां (जुगारीओना अखाडा आगळ ) राखीने नगरमां भिक्षा माटे चाली गई ॥ ७३ ॥ त्यां आगळ परस्पर बे जुगारीओनु युद्ध थयुं जेमां एके बीजानुं माथु तरवारथी कापी नांख्यु. ॥ ७४.॥ ते वखते एकनी तखार लागवाथी दघिमुखनु, शिंकुं पण कपाई गयुं. त्यारे Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते दधिमुख- मस्तक नीचे पडतांज पेला जुगारीना धड उपर वळ्गी गयुं ॥ ७५ ॥ निःसंधिरुप ( जेमा जोडयलानुं कई पण चिन्ह न देखाय एबुं ) मस्तक जोडाई जबाथी ते दधिमुख सर्वांग सुंदर सघळु काम करवाने समर्थ एवो पुरुष थई गयो ॥ ७६ ॥ आ प्रमाणे कहीने मनोवेगे ब्राह्मणोने कह्यु के- हे विप्रो ! तमे तमारा मनमा विचार करीने जलदी कहो के, वाल्मीकोन आ वचन सत्य छे के नहि ॥ ७७ ॥ ब्राह्मणोए कह्यु के-बेशक ए सत्य छे. एवो कोण छे के ने आ कथनने असत्य कही शके ? केमके उदयरुप सूर्यने अनुदयरुप कोण कही शके छ ? अर्थात कदी दिवसनी पण रात थई शके छ ? कदापि नहि ॥ ७८ ॥त्यारे मनोवेगे कह्यु के-जोदधिमुखनु मस्तक जे कापलं नहोतुं अने ते बीजा मनुष्यना धडने सन्धिरहित वळगी गयुं तो मारु कापेलु मस्तक तरतज जोडाई गयुं तेने केम सत्य कहेता नथी ? ॥ ७९ ॥ तथा तीक्ष्ण तरवार वडे रावणे अंगदना बे ककडा करी नांख्या तेने पछी हनुमाने केवी रीते जोडी दीधा ? बीजं पण सांभळो ॥ ८० ॥ एक दानवेन्द्रे पुत्र प्राप्तिने माटे देवीनी उपासना करी. देबोए प्रसन्न थईने तेनी वांछा पूर्ण करवाने माटे एक पिंड ( लाडू )आप्यो अने कह्यु के आ लाडू तारी स्त्री खाशे तो तेने पुत्र थशे. दानवेन्द्रने बे स्त्री हती. तेणे एक स्त्रीने पेलो लाडू आपी दीधो. बन्ने स्त्रीमां पण परस्पर अनुराग हतो तेथी तेणे ते लाडू अडधो अडघ करीने अडधो पोते खाधो अने अडधो पोतानीशोकने खवाडयो, जेनाथी ते बन्नेने गर्भ रह्यो. ।। ८१-८२॥ ज्यारे ते बन्नेना गर्भना दिवस पूरा थई गया त्यारे बन्नेने मनुष्यनुं अडधुं अडधुं शरीर उत्पन्न थयुं, माटे तेने नकामुं. समजीने घरनी Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहार फेंकी दी, परंतु जरा नामनी राक्षसीए ते बन्ने भागने जोडया तो एक छोकरो थई गयो. तेज छोकरो देव मनुष्यने जीतवावाळो प्रशंसनीय छे पराक्रम जेनुं एवो जगत्प्रसिद्ध जरासन्ध नामनो राजा थयो ॥ ८३-८४॥ हे ब्राह्मणो ! जो घा रहित शरीरना वे भाग जोडाईने एक थई गयो तो मारुं मस्तक तरतर्नु कापेलं ताजा लोही सहित होवा छतां पण केम नहि जोडाई जाय ? ॥ ८५ ॥ जरासन्ध अने अंगद वगेरेना जुदा जुदा भाग जोडाईने जीवता रह्या तो मारुं धड अने मस्तक कम नहि जोडाय ? ॥ ८६ ॥ तथा बीजं पण सांभळो. पार्वतीनो पुत्र कार्तिकेय (षडानन) छ टुकडाथी मोडीने बनावेलो छे तो मारा कपायला देह अने मस्तकना जोडावा उपर विश्वास केम करवामां आवतो नथी ? ॥ ८७ ॥ एसिवाय षडानन देव छे, ते छ मुखथी खाय छे अने स्त्रीथी उत्पन्न थया माटे ए पण असंभव छे ॥ ८८ ॥ तथा देवांगनाने उत्पन्न थया एम कहो ते पण नहि बने, केमके रक्तमलादि रहित देवांगनाने गर्भनुं थर्बु पत्थरने गर्भ थवानी समान असंभव छे ॥ ८९ ॥ आ सघळं सांभळीने ब्राह्मणोए कह्यु केहे भाई ! तेंजे कयुं ते सघळु साचुं छे-परंतु तारा मस्तके तो झाड उपर फल खाधां अने नीचे तारुं पेट भराई गयुं, ए केम सत्य थई शके ? ॥९०॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के-हे ब्राह्मणो! श्राद्धमां ब्राह्मणोने भोजन कराववाथी मरेला देहरहित पिता पूर्वजोनी तृप्ति थाय छे तो मारुं शरीर मस्तकनी पासे रहेतां मारी तृप्ति अथवा उदरपुर्ति केमन थई शके? ॥ ९१ ॥ घणुं आश्चर्य छ के-जे शरीर बळीने खाख थई गयु अने जेने मर्याने घणो काळ वीति गयो, एवा पिता बगेरे Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ एवा तो बीजाने भोजन कराववाथी तृप्त थई जाय छे, तो मारुं शरिर पासे रहेता पण मारी तृप्ति नहि थाय ? ॥ ९२ ॥ तेन प्रमाणे नर्कना भयथी भयभीत थवा वगर मिथ्यात्वरूपी अंधकारथी आंधळा थईने न्यासादिके धर्ममां प्रवीण महान् पूजनीक पुराण पुरुषांना विषयमां कईनुं कई बकी दीघेलुं छे ॥ ९३ ॥ जेमके - दुर्योधन जिनेंद्र भगवानना चरणोनो भ्रमर धन्यपुरुष चर्मशरीरी एटले तेज भवथा मोक्ष पदने प्राप्त थवावालो हतो, ते युद्धमां भीमवढे मार्यो गयो. आ प्रमाणे व्यासे कयुं छे ते सर्वथा असत्य छे ॥ ९४ ॥ अने मुक्तिरुपी स्त्रीने आलिंगन करवानी छे इच्छा जेने, मोक्षगामी कुंभकर्ण इन्द्रजीतादि विद्याधर पुरुष रत्नोने व्यासे निंदनीय मांस भक्षण करवावाळा दुष्ट अने मनुष्यने खावावाळा राक्षस बतावेला छे, ते मोटा अन्याय कर्यो छे ॥ ९५ || जे वालिमहात्मा कर्मबंधनो नाश करीने सिद्धपदने प्राप्त थया अर्थात मोक्षमां गया, तेमने वाल्मीकिए रामथी मार्या गया एम लखेलुं छे ते सर्वथा असत्य छे ॥ ९६ ॥ एक वखत कैलास पर्वत उपर वालिमुनि ध्यानमां बेठेला होवाना कारणथी कैलास उपरथी जं रावणनुं विमान अटकी गयुं. जेथी गुस्से थईने रावणे पोताना विद्याबलथी शरीरने मोटुं करीने कैलास पर्वतने उपाडीने समुद्रमां नाखवानी तैयारी करी ॥ ९७ ॥ कैलास पर्वतना जैनमंदिरोनी रक्षा करवाने माटे वालिमुनिराजे पोताना पगना अंगूठाथी कैलासने दबावी दीधो, त्यारे लंकाधिपति रावण पगोने संकोचीने बहु रडयो ॥ ९८ ॥ आ प्रमाणे वालिमुनिद्वारा कैलासनी रक्षा थई, जे लोकप्रसिद्ध छे. परंतु व्यासादिक कपि छे, ते रुद्रने माटे आवी कथा जोडे छे. क्या ए मुनिसुव्रत भगवानना समयमां थवावाळो रावण अने क्यां वर्धमा Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ ने स्वामिना समयमां थवावाळो रुद्र ? कईनुं कंईज जोडी दीधुं छे ॥ ९९ ॥ अने अहल्याना संयोगथी तो दीनवृत्ति इन्द्र नामनो विद्याधर दूषित थयो हतो, परंतु मूर्खोए निर्मल वृत्तिवाला सौधर्म स्वर्गना पति इन्द्रने भ्रष्ट थयला कही दीधुं छे, माटे एवं कदी नथी, केम के - देव अने मनुष्यनो संग कदापि थई शकतो नथी || १०० || अने सौधर्म स्वर्गना अधिपति महात्मा साथी बचारे छे लक्ष्मी जेनी एवा इन्द्रने 'रावणे जीती लीमा' आ प्रमाणे नष्टबुद्धिओए प्रसिद्ध कर्तुं छे, माटे आ कहेवुं कीडाए सिंहने जीती लीवो होय एवं छे ॥ १०१ ॥ इन्द्र नामना विद्याधरनी जग्याए स्वर्गपति इन्द्रदेवने जात्या कहे छे, ते ठीकज छे के विचारशून्य दुर्जन थाय छे, तेओ आ प्रमाणे महापुरुषोने कलंकित करने जगतां प्रसिद्ध करेछे ॥ १०२ ॥ जे विष्णु ( कृष्ण नारायण ) जगतना पूजनीय जगत्प्रसिद्ध महाबली ऋण खंडना अधिपति हता, तेमणे पोताना अर्जुननं सारथीपणुं अथवा दूतपणुं कर्यु कहे छे, ए केवुं आश्चर्य छे ? अने एवा महापुरुषने केवा कलंकीत कर्या छे ? || १०३ || माटे हे ब्रह्मणो ! ए सघळां पुराण, जगतना जीवोने चित्तमां भ्रम पैदाकरवावाळां अने असत्यार्थनो प्रकाश करवावाळां छे. आ प्रमाणे जाणीने अमितगति एटले अपरिमाण ज्ञानना धारक निर्मल चित्तवाळा पुरुषोए पोताना मनमां ए लौकिक पुराणोनो विश्वास राखवो जोइए नहि ॥ १०४ ॥ आ प्रमाणे श्री अमितगति आचार्यकृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाठीकामां सोल प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ १६ ॥ - 14*18 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० प्रकरण १७ मुं. ज्यारे ब्राह्मणोने निरूत्तर (निराश ) जोया त्यारे ते बन्ने विद्याधर पुत्र त्यांथी नीकळीने अनेक वृक्षोथी शोभीत पेला बागमां आव्या ॥ १ ॥ अने श्वेतांबरनो वेष छोडीने सज्जनसमान नम्रीभूत विचित्र फलवाळा एक झाड नीचे बेठा ॥ २ ॥ पछी जैनमत ग्रहण करवानी इच्छाथी पत्रनवेगे कह्यु केहे मित्र! ब्राह्मणोना शास्त्रो, कई वधारे बीजं पण संभळाव ॥३॥ त्यारे मनोवेगे कयु के-हे मित्र! ब्राह्मणोने त्यां धर्मादिकमां प्रमाणभूत एक वेदशास्त्र छे तेने ए लोक अकृत्रिम ( अपौरुषेय ) अने निर्दोष बताने छे, परंतु तेमां संसाररुपी वृक्षने वधारवावाळी हिसानुं प्रतिपादन करखें छे, तेथी ठग धूर्तानां अथवा निशाचरोनां शास्त्र समान समजीने उत्तम पुरुषो तेना उपर विश्वास करता नथी ॥ ४ ॥ ५ ॥ वेदमां कहेली हिंसाज जो धर्मर्ने कारण थई जाय, तो पछी वेदमां अने ठगोना शास्त्रमां कईपण फरक देखाय नहि ॥ ६ ॥ धर्मनुं प्रतिपादन करवाबाळा वेदमां अपौरुषेयतानु प्रतिपादन को छे, परंतु विचार करवाथी कोई प्रकारे पण अपौरुषेयता सिद्ध थती नथी॥ ७ ॥ केमके तालुकठऔष्ठादीथी उत्पन्न थयला वेदने अकृत्रिम केम कहि शके छे? जो एम कहवाशे तो सूत्रधारना बनावला महेलने पण अकृत्रिम मानवो पडशे ॥ ८ ॥ जो कोई कहे के ताल्वादिकतो वेदने उत्पन्न करवाबाळा नथी पण प्रकाश करवा छे, ए कहे, पण बनतुं नथी, केमके एमां कोई पण Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ निश्चयकारक हेतु देखातो नथी. जे प्रमाणे दीवो प्रकाशक छे, तेनाथी घटपटादि प्रकाशित थाय छे, परंतु घटपटादिक जे प्रमाणे दिवा विना पण प्रकाशित थई शके छे, ते प्रमाणे तालु आदि विना वैदिक शब्द कदापि प्रकाशित थई शके नहि ॥ ९-१० ॥ तथा कृत्रिम शास्त्रोमां अने वेदोमां कई विशेषता पण देखाती नधी, तो पछी वैदीक लोक केवारीते तेनी अपौरुषेयता सिद्ध करे छ? ॥ ११ ॥ ए सिवाय जो तालुकंठओष्ठादिक प्रकाशक छे तो जे प्रमाणे दिवो अनेक घटपटादिकने एक साथेज प्रकाशित करी दे छे, ते प्रमाणे तालुआदिक वेदने एक साथेज प्रकाशित केम करता नथी? ॥ १२ ॥ सर्वज्ञ विना वेदोनो अर्थ स्पष्ट केवीरीते प्रकट थई शके ? जो वेद पोतेज अर्थप्रकाशक छे, तो एमां अनेक विसंवाद ऊभा थाय छे, ते प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे के-जैन बौद्धादिक सिवाय शिव वैष्णव दयानंदि वगेरे सघळा मतबाळा पोताने वेदानुयायी कहे छे, परंतु परस्पर एक बीजानी निंदा करता अने वेदनो असत्य अर्थ करवावाळा बतावे छे ॥ १३ ॥ जो वेद अनादिनिधनज छे तो वेदमां आ युगमा थयेला ऋषिओनां हजारो गोत्र अने शाखाओगें वर्णन केम लखेलुं छे? ॥ १४ ॥ जो कोइ कहे के वेदनो अर्थ परंपराथी जगायलो छे, तो ए कहे, पण ठीक नथी केमके जेनुं मुळ कारण सर्वज्ञ नथी, तेनी परंपरा क्यांथी आवी? ॥ १५ ॥ जो कोई कहे के सवळा असर्वज्ञ ळमीने सर्वज्ञनी माफक वेदार्थने जाणी शके छे एपण ठीक नथी, केमके सघनज आंधळा मळीने पोताना इष्ट मार्गने क दापिजाणी शकता नथी॥ १६ ॥ बीजा सवळा असर्जना होवाथी अनादि कालना नष्ट थयेला वेदार्थने आदिम लोक व्यवहारनी माफक कोण प्रकाश Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ करी शके छ? ॥ १७॥ ए सिवाय सज्जन विद्वजनोमां अपौरुषेयता सर्वत्र खरी पण मानवामां आवती नथी, कमेके- जार चोरोनो पंथ पण अपौरुषेय छे, माटे एवो कोण पुरुष छेके जे 'जारचोरोना पंथने योग्य न माने? ॥ १८ ॥ बी जे प्रमाणे दुष्ट शिकारी लोक वनमा जईने अनेक प्राणीओने दुखित करे छे, ते प्रमाणे यज्ञ कराववावाळा ब्राह्मणोद्वारा संसारभ्रमण→ कारण एवी जीव हिंसा करवामां आवे छे ॥ १९ ॥ दुष्ट भीलोनी माफक यज्ञ कराववावाळाए जबरदस्तिथी मारेला तथा दुखित करला अथवा व्याकुल करेला जीव स्वर्गमां जाय छे, माटे हे मित्र? वैदिकोनुं आ प्रमाणे कहे केQ आश्चर्यकारक छ? केमके स्वर्गनी जे उत्तम गतिने संसारी जीव धर्माचरण नियम अने ध्यानादिक कठण तपस्या कराने पाप्त करे छे, ते गाति जबरदस्तीथी मारला जीवोने केवी रीते पाप्त थई शके! ॥ २०-२१ ॥ ए कारणथी महा हिंसाना साधक वेद मतावलाम्बओनां वचन सत्पुरु पोए कदी पण मानवां जोईए नहि धर्मात्मा लोक हिंसक शिकारीओनुं वाक्य कदीपण माने छे! कदापि नहि. ॥ २२ ॥ वणाएक मूर्ख लोको सत्य, शौच, तप, शील, न्यान, स्वाध्याय वगेरे उत्तम आचरणोथी रहित थइने पण ब्राह्मणादि उत्तम जातिमां पेदा थवा मात्रीज पोताने धर्मात्मा अने सबळाथी उच्च (श्रेष्ठ) माने छे, माटे ए पण मोटो भ्रम छे, केमके-सदाचार कदाचारना कारणथीज जातिभेद थाय छे. फक्त ब्राह्मणनी जाति मात्रज श्रेष्ठ छे एवो नियम नथी ।। २३-२४ ॥ खरु जोतां ब्राह्मण क्षत्रि वैश्य अने शुद्ध ए चारे का मनुष्यजाति छे, परंतु आचार मात्रथी एना चार विभाग करवामां आवे छे ॥ २५ ॥ कोई कहे के-ब्राह्मण जातिमा क्षत्रिय कदापि Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थई शक्ता नथी केमके-चोखाना क्षेत्रमा कदी कोदरा उत्पन्न थयेला जोया नथी॥ २६ ॥ तमे पवित्राचारना धारकनेज ब्राह्मण कहो छो, शुद्धशीलनी धारक ब्राह्मणीथी उत्पन्न थयेलाने ब्राह्मण केम कहेता नथी? एनो उत्तर एछे के ब्राह्मण अने ब्राह्मगीनो सदाकाल शुद्धशीलादिक प्रावित्राचार रही शक्तो नथी केमके-बहु काल वीति जवापछी शुद्धशिलादिक सदाचार छूटी जतो अने जातिच्युत थतो जोईए छीए ॥ २७-२८ ॥ ते माटे जे जातिमां संयम नियम शील तप दान जितेन्द्रियता अने दया वगेरे हालमा विद्यमान होय, तेनेज सत्पुरुषोए पूजनीय जाति कही छे. ॥ २९॥ केमके तपादिकमां बुद्धि लगाडवाजि योजनगंधा सरखी धीवरी आदिना गर्भमां उत्पन्न थयेला व्यासादिकनी पूजा थती जोई ए छीए ॥ ३० ॥ तथा शीलसंयमादिना धारक नीच जाति होवा छतां पण स्वर्गमां गया अने जेओए शील संयमादिक छोडी दीघां, एवा कुलीन पण नरकमां गया छे ॥ ३१ ॥ उत्तम गुणोथीज उत्तम जाति पेदा थाय छे अने उत्तम गुणोनो नाश थवाथी नाश थई जाय छे, ते माटे बुद्धिमानोए उत्तम गुणोने आदरपूर्वक धारण करवा अने नीचताने करवावाळो जाति मात्रनो गर्व करवो छोडीने जेनाथी पोतामां उच्चपणुं आवे, एवा शीलसंयमादिनो सत्कार कर्या करवो जोईए ॥ ३२-३३ ॥ घणाएक मूढो शीलसत्यादि सदाचारो विनाज गंगा स्नानादिकथी पोताने पवित्र ( पाप राहत ) माने छे, माटे मारी समजमां तेना समान पापरुपी वृक्षने वधारवावाळो बीजो कोई पण नथी, केमके-शुक्र, शोणीत, वीर्य अने लोहीथी बनेला अने मातानी उगाळथी (माळी) वधेल महा अपवित्र शरीरने स्नान करीने पवित्र माने छे तो एनाथी वधारे आश्चर्य बीजं शुं Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ थशे! ॥ ३४-३५ ॥ जळथी शररिनो बहारनो मेल धोवाई शके छे, परंतु अंदरनो शुक्र शोणित हाडमांसा दक अथवा पाप धोवई शके छे, ए वात कोना हृदयमां ठरी शके? अर्थात ए वातने कयो बुद्धिमान मानी शके? ॥ ३६ ॥ संसारी जीव जे पाप मिथ्यात्व असंयम अज्ञानथी उपार्जन करे छे, ते पाप निश्चय करीने सम्यकत्व संयम अने ज्ञान वगर कदापि नष्ट थई शकतुं • नथी ॥ ३७ ॥ क्रोध,मान, माया लोभादि कषायोथी उत्पन्न थयेलुं पाप गंगास्नानथी धोवई जाय छे, एबुं वचन मूढात्माज (मूर्खाओज) कहेछे. परीक्षक विद्वान कदी कही शकतानथी ॥३८॥जे जळ शरीरनेज शुद्ध करवामां असमर्थछे ते जळ शरीरनी अंदर रहेवावाळा दुष्ट मनने केवीरीते शुद्ध (निर्मळ) करी शके ? ॥ ३९ ॥ जे लोक एवं कहे छे के-गर्भथी मृत्यु पर्यंत आ जीव पृथ्वी, अप, तेज, वायु ए चार तत्त्वोथीज बनेलो छे, अने ए चार तत्त्वो सिवाय बीजो कोई जीव पदार्थ नथी, ते लोक पोताना आत्माने ठगे छे ॥ ४० ॥ ज्ञान ए जीवनो स्वभाव छे अने ज्ञान- कार्य जाणवू अथवा विचार करवू ए छे. आ जाणवा अथवा विचारवानी शक्ति दरेक देहधारीमां प्रतिक्षणे होय छे. प्रतिक्षणना ज्ञानने पूर्व क्षणचें ज्ञान कारण होय छे अर्थात पहेलाना ज्ञानथी मध्यनुं ज्ञान, मध्यना ज्ञानथी अन्तनुं ज्ञान अने अन्तना ज्ञानथी पहेलानुं ज्ञान उत्पन्न थाय छे. ज्यारे आ प्रमाणे प्रत्येक क्षणना ज्ञानने पूर्व पूर्वनां ज्ञान कारण छे तो तेनो अभाव कदापि थइ शकतो नथी. उयारे ज्ञान गुणनो अभाव नथी त्यारे तेना स्वामीनु अर्थात् जीवनुं अस्तित्व मानकुंज पडशे ॥ ४१-४२ ।। कदाच शरीर जोवामां आववा छतां पण चैतन्य ( जीव ) जोवामां आवतो नथी, परंतु शरीर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ चैतन्य नथी पण जड अने रुपीछे, एवी शरीरमा जे चैतन्यमाव देखाय छे ते एनो विरुद्धधर्मी अरुपी चैतन्यन ( जीव ) छे, माटे जे प्रमाणे जडरुप शरीर जडरुपनेत्रोथी देखाय छे, ते प्रमाणे अरुपी होवाथी चैतन्य ( जीवपदार्थ ) पण ज्ञान चक्षुथी देखाय छे. एज एनी ज्ञानजनक सामग्रीमा भेद होवाथी शरीर अने चैतननो स्पष्ट भेद छे. जडरुप नेताथी चैतन्य जोवा चाहो, ते कदापि देखाई शके नहि ॥ ४३-४४ ॥ आ प्रमाणे सघळाभूतवादिओमां आत्मानुं अस्तित्व प्रत्यक्ष होवा छतां पण मूढ लोकोए केवीरीते कही दीधु के-परलोक नथी. आत्मा नथी, वगेरे केवी रीते कही दीधुं हशे!॥४५॥ जे प्रमाणे मळेला दूध अने पाणीनी जुदाई कोई विशेष विधिथी करवामां आवे छे ते प्रमाणे आत्मतत्वने जाणवावाळा विद्वान पुरुष आत्मा अने शरीर ने जुदा जुदा जाणे छे ॥ ४६ ॥ घणाएक अल्पज्ञानी बंधमोक्षादि तत्वोनो अभाव कहे छे, माटे तेना सिवाय बीजो कोण धृष्ट छ ? केमके-॥४७॥ आत्मा जो सर्वथी अने सदाकाल कर्मथी बंधातो नथी तो आ दुःखमयी घोर संसारमा कम भ्रमण करे छे ? ॥ ४८ ॥ जो आत्मा नित्य शुद्ध ज्ञानी अने परमात्मा छे तो तेनी आ दुर्गन्धमय अपवित्र शरिरमां स्थिति केम छे ? ज्यारे ए कोईना वशमा छे त्यारे तो ए जेलखाना समान आ दुर्गन्धमय शरीरमा रहे छे, नहि तो शुं करवा रहेते ? ॥ ४९ ॥ जो सुखदुःखादिनुं ज्ञान देहने होय छे तो पछी निर्जीव मुडदांने सुखदुःखादि थर्बु कोण रोकी शके अर्थात् मूडदांने पण सुखदुःखादि थर्बु जोईए ॥ ५० ॥बंघबुद्धिने नाहि करतो आत्मा ज्यां त्यां परिभ्रमण करतो कर्मथी बंधातो नथी एबुं वचन कदापि कहेवू ठीक नथी ॥ ५१ ॥ निबुद्धि जीव ज्यां त्यां केम फरे छे ? कदी जडरुप पर्वतोने पण हालवा चालवानी क्रिया जोवामां आवे Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ छे ? ।। ५२ ॥ मरवानी इच्छा न करीने पण जो कोई विष खाय छे तो शुं ते नथी मरतो? अवश्य मरे छे ॥ १३ ॥ जो आत्मा सर्व शुद्ध होत, तो पछी ध्यानाभ्यासादि केम करवामां आवे छे ? कोई चोख्खा सोनानी परिक्षा माटे पण प्रवृत्ति करे छे ? अर्थात् कोई पण करतुं नथी ॥ ५४ ॥ कोई कोई मात्र ज्ञानथीज आत्मानी शुद्धि माने छे, माटे तेने पण मोटो भ्रम छे, केमके औषधीनुं मात्र स्वरुप जाणवाथीज के ईनो रोग दूर थतो नथी, परंतु तेने खावाीज थाय छे. तेज प्रमाणे ज्ञाननी साथे श्रद्धा अने चारित्र होवाथीज आत्मानी शुद्धि ( मोक्ष ) थाय छे ॥ ५५ ॥ कोई कोई श्वास रोकवा मात्रनेज ध्याननी सिध्धि थवी माने छे, माटे तेओ आकाशना फूलोथी मुगट बनाववानी इच्छा करे छे ॥ ५६ ॥ जे प्रमाणे काष्टमां आग्नि छे, ते मुप्रयोग विना प्रगट थती नथी, ते प्रमाणे आत्मा पण आ देहमांज रहे छे परंतु मृढ लोकोने तेनी प्राप्ति अथवा ज्ञान थतुं नथी ॥ ५७ ॥ सम्यगदर्शन, सम्यगृज्ञान अने सत्यगचरित्रद्वारा आत्मानां कर्म नष्ट थाय छे, केमके आ पूर्वोपार्जित कर्ममल वातपित्त अने कफथी उत्पन्न थवावाला व्याधिओनी माफक अनेक प्रकारनां दुःख दे छे. माटे आ रत्नत्रयीज नष्ट करवा जोईए, केमके-॥ ५८ ॥ जीव अने कर्मनो अनादि कालथी संबंध छे, माटे रत्नत्रय सिवाय बीचं कोई पण ए कर्मोनो नाश करवामां समर्थ नथी ॥ ५९॥ कोई कोई मतवाळा दीक्षा मात्रथीन आत्मा नी मुक्ति थवी माने छे, माटे ए पण भ्रम छे, केमके मात्र राज्य स्थापन थवाथीज शत्रुनो नाश थतो नथी ॥ ६० ॥ जे मूर्ख लोक दीक्षा मात्रथीज पापनो नाश थवो माने छे, ते आकाशनी तलवारना अग्रभागथी शत्रुनो शिरच्छेद करवा चाहे छे ॥ ६१ ॥ जीव, मिथ्यात्व, अव्रत अने क्रोधादि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोद्वारा कर्मबंध करे छ, माटे मिथ्यात्त्र, अव्रत अनं कषायोनो अभाव कर्या वर ते कर्मबंध केवी रीते नष्ट थई शके ? ॥ १२ ॥ जे लोक व्रताचरण विना दीक्षा मात्रधीज मोक्ष फलनी प्राप्ति थवी कहे छ, ते आकाशनी वेलना पुष्पोनी सुगंधिनुं वर्णन करे छे ॥ ६३ ॥ कोई कोई ऋषिओना आशीर्वाद मात्रथीन कर्मक्षय थवो माने छे, जो कदाच एम होत तो राजाना मित्रबंधुओना आशीर्वचनोथी राजाना शत्रु नष्ट थई जाय, परंतु एवं कदी पण जोवामां आवतुं नथी ॥ ६४ ॥ जो दीक्षा लेवाथी जीवो नो राग( संसारी मोहज नष्ट थतो नथी ते ते दक्षिा अनेक जन्मोनां करेलां प्राचीन कमोंने केवी रीते नष्ट करी शके ? ते माटे-॥६५॥ सत्यार्थ गुरुनां वचनोथी जाणीने रत्नत्रयनु सेवन करवावालानांज पाप नष्ट थाय छे. आ वचनज सत्य जाणवू ॥ ६६ ॥ हे मित्र ! कषायने वशीभूत थंईने आत्मानां करेलां पाप दीक्षा लेवाथीन नष्ट थई जाय छे, ए वातने कयो विद्वान खरी मानी शके ? ॥६७ ॥ जो कषाय सहित ध्यान करवाथीन मोक्षपदनी प्राप्ति थाय, तो वन्ध्याना पुत्रनुं सौभाग्य वर्णन करवामां पण द्रव्यनी प्राप्ति थवी जोईए, ते असंभव छे ॥ ६८ ॥ जे पुरुषोए इन्द्रिओनो जय अने कषायोनो निग्रह कर्यो नथी, एवा पुरुषोनां वचन धूर्तानां वचन समान सत्य नथी ॥ ६९ ॥ उर्व अने अधोद्वारथी निकलवाथी मारी निंदा थशे, एवं समजीने जे बुद्ध माताना पेटने फाडीने निकळयो अने मांस भक्षणमां लोलुपी थईने मांस भक्षण करवामां दोषनो अभाव कहे छे, ते मूढबुद्धने कृपा ( दया) केवीरीते हाई शके? ॥ ७०-७१ ॥ जे मूर्खे कीडाथी भरेला शरीरने जाणी बुझीने पण वाघेणना मुख आगळ नांखी दीg, ते बुद्धने संयम Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम थई शके? ॥ ७२ ॥ में बुद्ध प्रत्यक्षथी विरुष्ध सर्व शून्यपणा आत्मामो अभाव अने क्षण भंगुरता कहे छे, तेने कयुं ज्ञान थई शके! ॥ ७३ ॥ जे सर्व शून्यतानी कल्पना करे छे, ते बुध केवा? अने तेना मतमां बंधमोक्षादि तत्वोनी व्यवस्था शुं थई शके ॥ ७४ ॥ मेना मतमां स्वर्ग मोक्षना सुखने भोगववावाळा आत्मानोज स्पष्ट रीते अभाव कहेलो छे तो तेना मतमा व्रतादिकन करवू सर्वथा व्यर्थज छे ॥ ७५ ॥ जेना मतमां क्षणमां क्षणमां नवीन आत्मानुं आवq अने आगलानु चाल्या नद्, मानेलं छे, तेना मतमा हंता अने हणवा योग्य, दाता अने दानादिक सघळा पदार्थ विरोधरुप थई जाय छे. तथा विद्वान माणम क्षणिक वादिना मतने सर्वथा असत्य माने छे ।। ७६ ॥ ने बुध्धनो सघळो पक्ष सर्वथा प्रमाणथी बाधित छ, ते दुरात्माने सर्वज्ञपणुं थ, पण असंभव छे ॥ ७७ ।। बनारम निवासी प्रजापतिनो पुत्र तो ब्रह्मा छे. अने वसुदेवनो पुत्र कृष्ण नारायणछे. तथासात्यकी अने मुनिनो पुत्र महादेव रुद्र छे, पण नष्ट बुध्धिवाळा लोकाए ब्रह्माने आ अनादिनिधन सृष्टिनो कर्त्ता, विष्णुने रक्षक अने महादेवने संहारक ( सृष्टीनो नाश करनार ) कहेला छे, ए केम मानवामां आवे? ॥ ७८-७९ ॥ जो __ आ णे सर्वज्ञानी वास्तवमा एकज मूर्ति छे तो ब्रह्मा अने विष्णु महादवेना गिनो छेडो केम मेळवी शकया नहि? ॥ ८० ॥ सर्वज्ञ चातरागी शुध्ध परमेष्टीना ए त्रणे अवयव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश )अल्पज्ञरागी अने अशुद्ध कम थया? ॥ ८१॥प्रलयनी स्थिात अने रचनाना करवावाळा पार्वतीना पति महादेव तपस्विओदारा लिंग छेदनादि श्रापने Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ केवीरीते प्राप्त थया! ॥ ८२ ॥ जे तपस्विओए महादेवजीने पण मोटो श्राप दीधो, ते तपास्त्र कामदेवना बाणोद्वारा केवगिते घायल थता रह्या? शुं कामदेवने श्राप दईने भस्म करी शक्या नहि? ॥ ८३ ॥ ने देव त्रण जगतना कर्ता हर्ता विधाता छे अने जेने देवताओ नमस्कार करे छे,ते त्रण महापुरूषोने (ब्रह्मा, विष्णु, महेशने) कामदेवे केवीरीते जीती लोधा? ॥ ८४ ॥ अने ने कामदेवे सघळा देवोने जीतीने अतिशय दुःखीत कर्या, ते कामने महादेवे पोताना त्रीजा नेत्रथी केवारीते भस्म करी दीधो ?॥८५॥ जे देव पोते राग, द्वेष, मोहादिक १८ दोषोने वशीभूत थई दुःख भोगवे छे, ते देव धर्मार्थी पुरुषोने हितकारी धर्मनो उपदेश केवीरीते करी शके ॥ ८६ ॥ हे मित्र! जेने सेवन करीने संसारी जीव मोक्षपदने प्राप्त थई शके एवा निर्दोष देव धर्म गुरु कोई मतमां पण जोवामां आवता नथी ॥ ८७ ॥ रागीदेव परीग्रही गुरु अने हिंसामय धर्म सेवन करेला जीवोनी मनोवांछित सिद्धिने अतिशय दुर्लभ करे छे ॥ ८८ ॥ मूढ माणसज आ प्रमाणेनी मिथ्यात्वरुप बुध्धि पोतानी सुखसमृधिने माटे करे छे, ते ठीकज छ, केमकेनष्ट थयली छे बुद्धि जेनी एवा मूढ शुं नथी करता ? ॥ ८९ ॥ वध्यानो पुत्र तो राजा अने पत्थरनो पुत्र मंत्री ए बने मृगतृष्णाना नळमां स्नान करीने लक्ष्मीने सेवन करे छे. भावार्थ-जे लोक रागी द्वेषी देव परीग्रहधारी गुरु अने हिंसामय धर्मने सेवन करीने सुखसपत्तीनी इच्छा करेछे, ते लोक वन्ध्या पुत्र अने पत्थर पुत्र समान छे ॥ ९ ॥ ने रागद्वेष मद मोह विद्वेषादिक सघळा सुरनरेश्वरोने जीती लीधा, एवा दोष सूर्यमां अंध Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. कार समान जेना शरीरमा स्थान मेळवता नथी, अने जेणे सघळां पापोने नष्ट करीने केवलज्ञान प्राप्त कर्यु, अने जे जगतना सघळा चराचर पदार्थानी व्यवस्थाने जाणे छे, तेज त्रिलोकपूज्य सिद्धि साधक आप्त स्वरुप जिनेद्र भगवाननेज उ-तम पुरुष सेवन करे छे ॥९१-९२ ॥ मे सघळा नर सुर विद्याधरने वेधवावाळा कामना बाणोथी नह टूठया, अने संसाररुपी वृक्षने कापवानो छे आशय जेनो एवा जितद्रिय छे. तेज यति एटले गुरु छे ॥ ९३ ॥ अने तेज धर्मरुपी वृक्ष छे के जेनी जीवदया पालनरुपी मजबूत जड छे, सत्य शौच शम शीलादिक पांतरां छे अने इष्ट सुखरुप फलोना समूहने फले छे ॥ ९४ ॥ अने लेना वडे पंडित अन सकारणयुक्तिथी समस्त बाधारहित, सिब्धिपद देखाडवामां तत्पर एवा बंधमोक्षनी विधि जाणे छे, तेज सत्यार्थ शास्त्र छे ॥ ९५ ॥ जो मद्य, मांस अथवा स्त्रिओना अंगर्नु सेवन करत्रावाळा रागी पुरुषज धर्मात्मा होय तो पछी कलाल अथवा मद्यपान करवावाळो खाटकी वगेरे व्यभिचारी माणसज निराकुल थईने स्वर्ग चाल्यो जशे ॥ ९६ ॥ जे यति क्रोध लोभ मद मोहादिथी मर्दित छे, पुत्र दारा धन मदिरादिने चाहना वाळा, धर्म संयम दामादयी रहीत छे, तेओ संसारी जीवोने भव समुद्रमा नांखवावाळा छे ॥ ९७ ॥ हे मित्र ! देव तो राग द्वेषादि दोषोथी दृषित, यति परीग्रहना संगथी भ्रष्ट अथवा व्याकुल, अने धर्म जीवाहंसामयी, ए त्रणे सेवन करवाथी तरतज भवसमुद्रमा नांखी दे छे ॥ ९८ ॥ जन्ममृत्युरुप अनेक मतो थी तथा राग द्वेष मद मत्सरार्दिी व्याप्त आ लोकमां मोशनो मार्ग मळवो दुर्लभ छे, ते माटे हे मित्र : तुं हमेशां परिक्षाप्रधानी थईने रह ॥९९॥ अन्मजरामरण रहित देवो बडे बंदनीय देव, अने दूर कयों छे परिग्रह Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम अने इन्द्रिओनो वेग नेणे एवा गुरु, अने कपटना संकट रहितसकल जीवदयाप्रधान धर्म, ए त्रणेज अप्रमाण छे, ज्ञाननी गति जेमां, एवी मोक्ष लक्ष्मिने प्राप्त करवावाळा छे, तेओ निरंतर मारा मनमा वसो ॥ १० ॥ आ प्रमाणे श्री अमितगति आचार्यकृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाटीकामां सत्तरमु प्रकरण पूर्ण थयु. ॥ १७ ॥ FULra A Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ प्रकरण १८ मुं. -----moor ए पछी पवनवेगे अन्यमतनी आवो अनर्थ वातो सांभळीने पोताना संदेहरुपी अंधकारनो नाश करवाने माटे मनोवेगने पूछयु के-हे मित्र ! आ परस्पर विरुद्ध एवा अनेक प्रकारना अन्यमतोनो केवी रीते प्रचार थयो ते मने कहो ॥ १-२ ॥ त्यारे मनोवेगे पवनवेगनो प्रश्न सांभळीने कयुं के हे मित्र ! अन्यमतोनी उत्यत्तिनो इतिहास कहुंछु ते सांभळ ॥ ३ ॥ आ भरतक्षेत्रमा रात अने दिवसनी माफक दुनिवार छे वेग जेनो एवा उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी नामना बे काळ निरंतर क्रमथी आव्या करे छे ॥४॥ जे प्रमाणे एक वर्षमा ६ऋतु थाय छे, ते प्रमाणे एक एक काळमां एक बीजाथी जुदा मुखमा सुखमा ? सुखमा २ सुखमा दुःखमा ३ दुःखमा सुखमा ४ दुःखमा ५ दुःखमा दुःखमा ६ आवा छ विभाग थाय छे ॥ ५ ॥ एक एक काळ दश कोडा कोडी सागरनो थाय छे. जे कालमा उपर प्रमाणे सुखमा सुखमादि ६ काल थाय छे, तेने तो अवसपिणी काळ कहे छे अने ने काळमा एनाथी उलटा एटले दुःखमा दुःखमा १ दुःखमा २ दुःखमा ३ सुखमा दुःखमा ४ सुखमा ५ अने सुखमा सुखमा ६ आ प्रमाणे उत्तरोत्तर आयुकायादिकनी उन्नतिवाळा ६ काळ थाय छे, तेने उत्सर्पिणी काळ कहे छे. ए बने एक वखते बीती जाय तेने एक कल्पकाल कहे छे. हालमां जे काळ चाली रहेला , ते दश कोडा कोही सागरनो अवसर्पिणी काळ छ एनाज छ विभागोनी संक्षित व्यव Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था कहुं छु ॥ ६ ॥ आ भवसपिणी काळमा पहेलो सुखमासुखमा काम चार कोहा कोडी सागरनो थयो अने बाजो सुखमाकाळ त्रण कोडाकोडी सागरनो थयो ॥ ७ ॥ त्रीजो सुखमा दुःखमा काळ बे कोडा कोडी सागरनो थयो एमांथी पहेला काळमां मनुष्योनी आयु त्रण पल्यनी, बीजा मां बे अने त्रीजामां एक पल्यनी होय छे ॥ ८ ॥ आयुनी माफक तेना शरीरनी उंचाई पण पहेलामा त्रण कोश, बीजामां बे कोश, अने जीनामां एक कोशनी होय छे, अने पहेलामा त्रण दिवसे बीजामां बे दिवसे अने त्रीजामां एक दिवसे आहार ले छे ॥ ९ ॥ आहारनुं प्रमाण पहेला कालमां बोरसमान बीजामां आमळा समान अने त्रीजामां बहेडानी बराबर सर्वेन्द्रिओ ने बळकारी बीजाने दुर्लभ वीर्यवर्द्धक कल्पवृक्षोए आपेलं होय छे ॥१०॥ ए त्रणे काळमां उत्पन्न थवावाळा मनुष्योमा स्वामीसेवकादिकनो अथवा पारकाने घेर जवा आववानो संबंध होतो नथी, तेओ एक बीजाथी हित अधिक होता नथी तथा तेमने व्रत अथवा संयम कंईपण होतुं नथी ॥११॥ एत्रणे काळमां एक साथे चंद्रमा अने चांदनीनी माफक स्वाभाविक कांति अने उद्योतथी सर्वांग सुंदर स्त्रीपुरुषोनुं जोड़ेंज (युगल) उप्तन्न थाय छ, अनेते नोडु ४९ दिवसमा सवळा भोग भोगवीने समर्थ नवयौवन भाषत थई जाय छे, नवं नोडुं उत्पन्न थतांज पहेलं जोडुं एटले ते बन्नेनां मातापिता मरी जाय छे अने नवा जोडा साथे पोतानुं अस्तित्व छोडी जाय छे, तेथीन ए त्रणे काळमां उत्तरकुरु, वगेरे भोगभूमिनी माफक सघळां मनुष्य गणत्रीमां बराबरज उत्पन्न थाय छे ॥ १२-१३ ॥ ते जोडांमांथी प्यारी प्रियभाषिणी स्त्री तो पोतानां पतिने ' हे आर्य' कहीने संबोधन करे छे भने विचित्र प्रकारनी खुशामद करवावाळो पुरुष ' हे आर्य ' आ प्रमाणे Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ कहीने संबोधन कर्या करे छे ॥ १४ ॥ एत्रणे काळोमां रहेवावाळा मनुष दहसहित धर्मनी माफक निर्मल आकारना धारक मद्यजाति १, तूर्यजाति २, गृहजाति ३, ज्योतिरांगजाति ४, भूषणांगजाति ५, भोजनजाति ३, मालाजाति ७, दोपकजाति ८, वस्त्रजाति ९, अने पात्रजाति १०, आ दश कल्प वृक्षोद्वारा मळेला नाना प्रकारना भोग ( सुख ) भोगवे छे. ए कारणथी ए त्रणे कालनी भूमीने भोगभूमि कही छे ।। १५-१६ ॥ ज्यारे त्रीजा काळ्ना अंतमा एक पल्यनो आठमो भाग बाकी रही जाय छे त्यारे ते काळमां १४ कुलकर एटले ते भोग भूमिओमां राजा समान मुखिओ उत्पन्न थाय छे. तेओ ते समयथी काळजें पलटएटले कर्म भूमिने थवानी व्यवस्था समजावता रहे छे, कल्पवृक्षनो एक पछी एक नाश थई जवा पछी सूर्य चंद्रमा देखाय छे. त्यारे प्रजाने क्षुधादिक वेदनाथी पीडित थवाथी दुधफलादिकनुं भक्षण करवू वगेरे सधळा प्रकारना उपायो बतावीने सघळी प्रजाना भय अथवा दुःखनो नाश करता रहे छे, ते कारणथी एने १४ कुलकर अथवा १४ मनु पण कहे छे. आ वर्तमान अवसर्पिणी कालना बीजा समयना अंतमा पहेला प्रतिश्रुति, बीजा सन्मति, जीजा क्षेमंकर, चोथा क्षेमंधर, पांचमा सीमंकर, छठा सीमंधर, सातमा विमलबाह, आठमा चक्षुष्मान् , नवमा यशस्वी, दशमा अभिचन्द्र, अग्यारमा चद्राभ, बारमा मरुदेव, तेरमा प्रसेनजित, अने छेल्ला नाभिराजा आ प्रमाणे १४ कुलकर उत्पन्न थया ॥१७-१८-१९-२०॥ ए सघळा १४ कुलकर जातिस्मरण (पोताना पूर्व जन्मना जाणकार ) अने दिव्यज्ञानवाला थाय छे, तेओ सघळी प्रजाने कर्मभूमिनी व्यवस्था बतावे छे ॥ २१ ॥ पूर्व दिशाथी सूर्यनी माफक नाभिराजा अने महादेवी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ मरुदेवीद्वारा ऋषभनाथ तीर्थंकर उत्पन्न थया ॥ २२ ॥ जे बखते नाथ तीर्थकर स्वर्गमांथी मरुदेवी माताना गर्भमां आव्या, ते वखते कुबेरे अयोध्या नगरीने मनोहर कोट खाई अने रत्नमयी मकानोथी शोभित करी ॥ २३ ॥ इन्द्रे निर्मल नीति अने कीर्ति समान कच्छराजानी नंदा अने सुनंदा नामनी बे कन्याओनो आदिनाथ साथ विवाह कराव्यो ॥ २४ ॥ ते बन्ने स्त्रीओथी आदिनाथ भगवानने ब्राह्मी अने सुंदरी नामनी बे कन्या अने मनने आनंद आपवावाळा सो पुत्र थया ॥ २९ ॥ कल्पवृक्षने अभाव थवाथी ज्यारे व्याकुल प्रजाए भगवानने जीवता रहेवानो उपाय पूछयो त्यारे भगवाने आसे, मासे, कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, अने शिल्प एवा छ उपाय बताव्या. ए सिवाय गाम, पुर, नगरोनी रचना वगेरे चोथा कालनी सघळी व्यवस्था इन्द्र पासे करावी अने सुखथी राज्यभोग करवा लाग्या ॥ २६ ॥ एक समये ज्यारे भगवाननी सन्मुख देविओनो सुंदर नाच थई रह्यो हतो, त्यारे नाचतां नाचतां एक नीलंजसा नामनी देवीनं मृत्यु थई जतुं मोईने भगवाने पोताना मामां विचार कयौं के ॥ २७ ॥ जे प्रमाणे विजळीनी माफक जोतां जोतां आ नीलंजसा देवांगना नष्ठ थई गई, ते प्रमाणे मोह करवावाळी आ सघळी लक्ष्मि पण नष्ट थई जशे ॥ २८ ॥ जे प्रमाणे मृगतृष्णामां जळ अने आकाशपुरीमां महाजनानी प्राप्ति नथी, ते प्रमाणे आ असार संसारमां सुखनी प्राप्ति नथी || २९ || जे इष्ट वस्तु विना आ संसारमा एक क्षण मात्र पण रही शकातुं नथी, ते वस्तुनो अग्नि समान महा तापकारक वियोग सहेवो पडे छे ॥ ३० ॥ जो के चंद्रमा क्षीण थई वृद्धिने प्राप्त थई जाय Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ छे अने रात दिवस पण जता आत्रता रहे छे, परंतु नदिना जलनी माफक गयलुं योवन कदी आवतुं नथी ॥ ३१ ॥ भाई बंधुओनो संयोग तो मार्गमां अथवा धर्मशालामां मळता मुसाफरना जेवो छे, मित्रानो स्नेह विजळीना चमकारा जेवो आस्थिर छे || ३२ || अने पुत्र मित्र घर, द्रव्य, धन धान्यादि संपदानी प्राप्ति स्वप्नना जेवी माथा छे. कदी स्थिर रही शकती नथी ॥ ३३ ॥ जेने माटे मोटां पाप करीने द्रव्यादिकनो संग्रह करवामां आवे छे, ते जीवन शरद रूतुना बादलनी माफक जलदी नाश पामे छे ॥ ३४ ॥ आ दुखदायक संसारमां एवो कोई पण जीव देखातो नथी के जे जगतमां फरवावाळा काल मृत्युना मुखमां न पडतो होय || ३५ ॥ आ संसारमां जीवोने एकमात्र रत्नत्रय सिवाय कोई पण आत्मीय कल्याण करे तेवुं नथी ॥ ३६ ॥ आ प्रमाणे विचार करीने जिनेंद्र भगवाने घेरथी बहार नीकळत्रानो विचार कर्यो, ते ठीकज छेके संसारनी असारता जाणवाबाळा घरमा केम रही शके ? ॥ ३७ ॥ ते पछी तेओ पोतानी मेळे आवयावाळी निर्दोष सिद्ध भूमिने लाववा जता होय तेम देवोए लावेली पोताथी शणगारेली पालखीमां बेसीने वनमां चाल्या गया ॥ ३८ ॥ ते पालखी पहेला तो राजाओंएं ऊंचकी अने पछी देवताओए ऊंचकी. ते ठीक छे के बुद्धिमान पुरुष सघळा प्रकारना धर्मकार्योंमां सामेल थाय छे ॥ ३९ ॥ ते पछी शकटामुख वनमां भगवाने एक वडना झाडनी नीचे पर्यंकासन बेसीने सवळां वस्त्राभूषण उतार्या अने सिने नमस्कार करीने मजबूत पांच मुट्ठिओथी पोताना केश उखेडी नांख्या ( पंचमुष्टि लोच कर्यो ) ॥ ४०-४१ ॥ ते पछी सघळा जीवोने कल्याण Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारक मोटा पराक्रमी सुरनर वडे सेवित ते जिनेद्र भगवान सुमेरुनी माफक कायोत्सर्गे छ महिनानुं ध्यान धरीने स्थिर उभा रह्या ॥ ४२ ॥ ते पछी इन्द्रे भगवानना केशोने रत्नमयी पेटीमां मूक्या अने पोताना माथा उपर पेटी मूकीने सघळा देवो सहित उत्साहपूर्वक पांचमा क्षीरसमुद्र मां केशने पधरावीने पोतपोताने स्थाने गया ॥ ४३ ॥ भगवाने त्यागरुप प्रकृष्टयोध धारण कर्यो हतो, तथा ते शकटामुख वननुं नाम प्रयाध प्रसिध्ध थयुं छे ॥ ४४ ॥ भगवाननी देखादेखी बीजा चार हजार राजाओए पण तेज प्रमाणे तप ग्रहण करी लीधुं. ते ठीकज छे के सत्पुरुषोए आचरण करेला कार्यनो सघळा लोक आश्रय करे छे ॥ ४५ ॥ ते सघळा राजा केटलाक दिवस सूधी तो ऋषभनाथ भगवाननी पेठे आहार पाणी विना रह्या परंतु छ महिनानी अंदर तो तेओ सबळा दिनचित्त थई गया, अने क्षुधातृषादि दुःख सहन करवामांअसमर्थ थई गया. ते ठीकज छे के दीनचि-तवाळा अज्ञानी लोकोथी क्षुधा तृषादि परीषह सहन थई शकता नथी ॥ ४६ ॥ ते सघळा दिगंबर मुनिओ फल भक्षण करीने अशुध्ध जळ पीवा लाग्या. एवँ कयु कार्य छे के जे क्षीणशरीरवाळो क्षुधातुर माणस न करे? ॥ ४७ ॥ ए दिगबर मुनिओर्नु आ खोटुं आचरण जोईने ते वनना कोई देवताए कह्यु के-हे नृपतिगणो दिगंबर मुनिनो वेष धारण करीने आq निंद्य कार्य करवू कदापि योग्य नथी, केमके दिगंबर मुनि थईने जे पोतेन ग्रहण करीने आहार पान करे छे, ते नीच पुरुष कदी संसार समुद्रने तरी शकता नथी ॥ ४८-४९॥ मे दिगबरी साधु होय छे, ते बीजाने घेर नवधा भाक्ति पूर्वक बीजाए आपलं प्रासुक भोजन धर्मवृध्धिने माटे हाथनेज पात्र बनावीने ग्रहण Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ कर्या करे छे, माटे तमे आ दिगंबर वेपथी फलादिकनो आहार करशो तो ठीक थशे नहि ॥ ५० ॥ आ प्रमाणे देवतानुं वचन सांभळीने ते सघळा, राजा व्याकुलाचि-त थई लंगोट धारण करीने खाडा अथवा नदिओनुं पाणी पीत्रा लाग्या ॥ ५१ ॥ एमांथी केटलाक राजा तो भूख तरसथी दुखी थई लज्जा छोडीने पोत पोताने घेर चाल्या गया, केमके ज्यां सूधी मनुष्यनुं चित्त दूषित न होय त्यां सूधीज ते लज्जा वान रहे छे ॥ ५२ ॥ केटलाक राजाओए एवो विचार कर्यो के - जो आप - णे भगवानने वनमां छोडीने चाल्या जइशुं तो भगवानना पुत्र भरतचक्रवर्त गुस्से थईने अमारी वृत्ति छिनवी लेशे, त्यारे तो भिक्षाटन करवुं पडशे, माटे एनाथी तो भगवाननी सेवा करतां आ वनमा रहेवुज श्रेष्ठ छे. आ प्रमाणे विचार करीने ते सघळा राजा कंदमूलादिक भक्षण करीने त्यांज रहेवा लाग्या, पोत पोताने घेर गया नहि || ५३ - ५४ ॥ ते पछी कच्छ महाकच्छ राजाए पोताना पांडित्यना गर्वथी फलमूलादि भक्षण करवंज तापसीय धर्म छे एवं बतात्रीने प्रचार कय ॥ ५५ ॥ अने मरीचिकुमारे सांख्यमतनी प्ररूपणा करीने पोताना कपिलादी शिष्योने उपदेश कर्यो ॥ ५६ ॥ एज प्रमाणे बाजा राजाओए पण पोताना पांडित्यना गर्वथी पोतानी मरजी प्रमाणे १८० प्रकारना क्रियावादी, ८४ प्रकारना अक्रिया वादी ६७ प्रकारना अज्ञानी अने ३२ प्रकारना वैनयिक एवा ३६३ प्रकारा महामिथ्यात्वने वधावावाळा पाखंड मत चलाव्या ।। ५७-५८ ।। एमांथी शुक्र अमे ब्रहस्पति नामना बे राजाओए मळीने स्वेच्छा पूर्वक पोतानी इन्द्रिओनुं पोषण करतां चार्वाक दर्शननी प्रवृत्ति करी ॥ १९ ॥ आ प्रमाणे ते राजाओए अनेक प्रकारनी वीटंबणा करी, माटे Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ एवो कोण पुरुष छे के जे मोटा पुरुषोना जेवी क्रियाओ करवा की इच्छा राखतां विटंबणा न करे ? ॥ ६० जे प्रमाणे आहार विना परिषहथी घबरायला ए सघळा भ्रष्ट थया ते प्रमाणे बीजा लोक पण मिथ्या मार्गमा प्रवर्तशे, ए प्रमाणे विचार करीने आदिनाथ भगवाने पोतार्नु ध्यान पूर्ण करीने मुनिओने करवा योग्य शुद्ध अन्न ग्रहण करवा नी इच्छा करी ॥६१-६२ ॥ जेथी हस्तिनापुरना श्रेयांस राजाए उत्तम स्वप्नद्वारा जातिस्मरण थवाथी पूर्वजन्मनी आहारदाननी विधि जाणीने नवधा भक्ति पूर्वक इक्षुरसतुं (शेरडीनारसनु) भोजन कराव्युं ॥६३॥ ते समये जे उत्तम श्रावक (व्रतधारी) हता, ते सघळाने भरतचक्रवर्तिए अत्यंत भक्तिपूर्वक धन धान्यादिथी सत्कार करीने चोथो ब्राह्मण वर्ण स्थापित कर्यो, ते चक्रवर्तिथी पूजाप्रतिष्टा मेळवीने ते ब्राह्मणो मोटा विस्तारवाळा थई आतिशय उद्भत थई गया ॥ ६४ ॥ आदिनाथ भगवाने इक्ष्वाकुवंश, नाथवंश, भोजवंश अने उग्रवंश एवा चारवंश चलाव्या, जे जगतमां प्रसिद्ध थया ॥ ६५ ॥ ते समये जे व्रती हता ते तो ब्राह्मण कहेवाया. जेओ भयथी प्रजानी रक्षा करता हता ते क्षत्रिय कहेवाया. जे व्यापारमा कुशल हता तेमनुं नाम वैश्य पडयुं अने जे सेवा करवामां तत्पर हतां ते शूद्र कहेवाया. आ प्रमाणे ए चारे वर्णनी व्यवस्था हती ॥ ६६ ॥ भरतचक्रवर्तिने तो सौथी मोटो पुत्र अर्ककीर्ति थयो अने भरतना भाई बाहुबलिने सोम नामनो पुत्र प्रसिद्ध थयो. एज बन्नना वंश सूर्यवंश अने सोमवंश ( चंद्रवंश ) नामथी प्रसिद्ध थया ॥६७ ॥ ते पछी कालदोषथी पार्श्वनाथ भगवाननो जे मौडिलायन ( मोगलायन ) नामनो शिष्य एक तपस्वी हतो, तेणे महावीरस्वामी Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० साथै गुस्से थईने बौद्धमतने स्थाप्यो ॥ ६८ ॥ तेणे शुद्धोदन राजाना पुत्र बुद्धपरमात्मा कहीने प्रगट कर्या छे. ते ठीकज छे के कोपरुपी शत्रुथी हार खाइने संसारी जीव शुं शुं करता नथी ! ॥ ६९ ॥ कृष्णना मरवा पछी तेनी लाशने बलिभद्रजी भ्रातृमोहने वशीभूत थई छ महिना सूधी लईने फर्या, तेज दिवसथी जगतमां कंकाल नामनुं व्रत प्रसिद्धिमां 'आव्युं || ७० || हे मित्र ! मिथ्यादृष्टि पुरुषोए जे अगणित पाखंडमत चलाव्या छे, तेनुं हुं हजु क्यां सुधी वर्णन करूं ! ॥ ७१ ॥ जे पाखंडमत चोथाकालमा बीजरूप हता, ते सघळा आ पंचमकालरूपी पृथ्वीमां प्रगट थईने विस्तार पामी गया || ७२ ॥ जे सघळा देवोथी वंदनीक छे अने जेणे विरागनी साथे केवळज्ञानरूपी आ लोकधी त्रण लोकनुं अबलोकन कर्तुं छे तेज जिनेंद्र परमेष्टि सत्यार्थ आप्त अथवा देव छे || ७३ || अने जे शास्त्रमां संसार अने मोक्षने कारण सहित वर्णत्रेला छे, अने जे सधळा प्रकारना बाधक प्रमाणोथी रहित छे तेज साधुं शास्त्र छे ॥ ७४ ॥ अने उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, || सत्य, सौच, संयम, तप त्याग, आकिंचन्य, अने ब्रह्मचर्य एज कल्याणकारक दश प्रकारना धर्म छे || ७५ || अने जे बाह्य अभ्यंतर २४ परिग्रह रहित, जितोंन्द्रय, निःकषाय, परिषहने सहवावाळा अने नग्नमुद्रा धारक होय तेज साचा गुरुं छे || ७६ || आ प्रमाणे ए चारे ( देव, शास्त्र, गुरु, धर्म ) मोक्षरुपी नगरनां द्वार, संसाररूपी अग्निने जल समान अने मनवांछित सिद्धिनुं एकमात्र कारणज छे. ॥ ७७ ॥ तथा एज चारे सम्यकत्त्व, ज्ञान, चारित्र अने तपरुपी माणेकने आपवाबाळा छे, ए चारे सिवाय बीजुं कोई पण मुक्तिनुं कारण नथी ॥ ७८ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ हे मित्र ! आ असार संसारमा भ्रमण करता जीवीए सर्व प्रकारनी लन्ध प्राप्त करी, परंतु आ चारमाथी एकने पण प्राप्त करी नहि ॥ ७९ ॥ संसारमां देश, जाति, कुल, रुप, इन्द्रिओनी पूर्णता, नीरोगता, दीर्घ जीवन ए सघळा एकथी एक अधिक दुर्लभ छे. एनाथी पण वधारे दुर्लभ साचा' धर्मनो उपदेश सांभळयो तथा ग्रहण करो छे, परंतु एं सघळा प्राप्त थवां छतां पण संसाररूपी वृक्षने कापवावाळी कुहाडी अने सिद्धिरुपी महेलमा प्रवेश करवावाळी दोधिका ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्र ) बहु महेनते प्राप्त थाय छे ।। ८०-८१ ।। हे मित्र! मे कोई मतमां ने कई खरो उपदेश छे, ते सघळा जैनमनोज समजबो. केमके मोती अनेक जग्याए मळे छे, परंतु ते सघन समुद्रमांधीज नीकळेला होय छे ॥ ८२ ॥ जिनेंद्र भगवानना वचनो सिवाय कोईनुं पण वचन पापोनो नाश करवावालुं नथी, केमके सूर्यनाज प्रभावथी रात्रीना, अंधकारनो नाश थाय छे ॥ ८३ ॥ हे धान्यनो नाश करवावाळा तीड छे, ते प्रमाणे बीजा संचळा आदिभूत, पूजनीय जिनेंद्रधर्मने जडमूळथी नाश करवावाळा छे ॥ ८४ ॥ पवनवेगना मनमां जे मिध्यात्वरुपी गांठ हती, ते मनोवेगे पर्वतने वज्रसमान उपला वचनोथी ढीली करीने खोली नांखी, त्यारे नाश थई गयो छे मिध्यात्वरूपी पर्वत जेनो, एवो ते पवनवेग पश्चाताप साथे कहेवा लाग्यो के हाय! हाय! में नष्टबुद्धिए मारो जन्म वृथाज खोई दधो ॥ ८५-८६ ॥ हाय! में अज्ञानीए तारां वचन न सांभळीने जिनेंद्रना वचनरुपी रखोने छोडीने अन्यमतना वचनरुपी पत्थर ग्रहण कर्या ॥ ८७ || हे मित्र ! मिध्यात्वरूपी विषने पीत्रावाळा में ; मित्र ! जे प्रमाणे जेटला धर्म छे ते Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ तारा आपला भ्रांति वगरना जिनेंद्रवचनरुपी अमृतने पीधुं नहि ॥ ८८ ॥ हे मित्र! तें हमेशां कहेवा छतां पण में निर्दोष सम्यकत्वरुपी अमृतरुपी पानने छोडीने जन्मजरासृत्युने आपवावाळा महाभ्रमरुप कष्टथी छे अंत जेनो एवा मिथ्यात्वरुपी विषयूँ सेवन कर्यु ॥ ८९ ॥ हे मित्र! मारो तुंज बंधु छे, तुंज पिता छे. अने तुंज मारो कल्याणकारक गुरु छे. केमके तें मने संसाररुपी अंधकूपमां पडतां पोतानी उत्तम वाक्यरुपी रसीथी पकडी राख्यो छे ॥९०॥ जो तुं जिनेंद्र भगवान भाषित धर्मने बतावीने मने नहि रोकते तो हुं चिरकालसूधी महादुःखदायक वृक्षोवाळा अपार संसाररुपी बनमां भ्रमण करतो रहेते ॥ ९१ ॥ हे मित्र! हुं मिथ्यात्वमाहीनी, मिश्रमोहिनी, सम्यकत्वमोहिनी अने मिथ्यास्वरुपी अंधकारथी मोहित थईने कष्टथी छे अंत जेनो एवी पर वाक्यरुपी रात्रीने प्राप्त थई गयो हतो, माटे तेंज मने मोहरुपी अंधकारने नाश करवावाळा, जिनेंद्रसूर्यना वाक्यरुपी उज्जवलकिरणोथी उपदेश कर्यो छे ॥ ९२ ॥ हाय! हुं निराकुलरुप सिद्धिपुरीमा प्रवेश करावावाळा जिनेंद्र भाषित निर्दोष मार्गने छोडीने बहु वखतथी दुष्टोए बतावेला नर्कमां लइजवावाळा महा भयंकर मार्गमां लागी गयो! ॥ ९३ ॥ साधारणरीते मीवोने उत्तम घर स्त्री, पुत्र, सेवक, बन्धु, नगर अने गामोथी भरेली राज्यसंपदा जग्या जग्याए प्राप्त थई शके छे, परंतु पंडितार्थी पूजनीय निर्मल तत्वरुचिर्नु माळवं कठण छे ॥ ९४ ॥ हे मित्र! मूढपुरुषो जेनाथी दूषित थईने, बतावेला सधळा वस्तुस्वरुपने विपरीत जुए छे ते मिथ्यात्वनो नाश करीने तेंज मने अलभ्य निर्मल सम्यकत्व आप्युं छे. ॥ ९५ ॥ में हवे मिथ्यात्वरुपी विषनो त्याग करीने मनवचनकायथी Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनशासनने ग्रहण कर्यु. माटे हे मित्र ! हवे तारा प्रसादथी हुं व्रतीरुप रत्नथी भूषित थई जाउं एवो उपाय कर ॥ १६ ॥दूर थई गयुं छे मिथ्यात्र जेनुं एव। पोताना मित्रनी उपर प्रमाणे वाणी सांभळीने मनोक्गने अत्यंत हर्ष थयो, ते ठीकज छे के पोताना उपायथी मनवांछित कार्यनी सिद्धि थवाथी एवो कोण पुरुष छे के जेने तरतज हर्ष न थाय ?॥ ९७ ॥ ते पछी मनोवेगे बीजो कंईपण विचार न करतां तेज वखते जिनेंद्र वचनोनी वासनावाळा पोताना मित्रने लईने जलदीथी उज्जयनि नगरीमां जवानो विचार कयों, ते ठीकज छ के एवो कोण पुरुष छे के जे मित्रोतुं प्रयोजन साधवामां प्रमाद करे? ॥ १८ ॥ जे प्रमाण इन्द्र उपेन्द्र नन्दनवनमां जाय छे, ते प्रमाणे अंधकारनो नाश करनारा आभूषणोथी अलंकृत ते बन्ने मित्र मनना वेगनी माफक चालनारा विमानमां बेसीने प्रसन्नता साथे उज्ज्यनी नगरीना वनमां गया. ॥ ९९ ॥ वनमां पहोंचीने ते बन्ने मित्र मनरूपी घरमा रहेनारा अनिवार्य लोकव्याप्त मोहरूपी अंधकारने वाक्यरूपी किरणोथी नाश करवामां समर्थ, अपरिमाण छे ज्ञाननी गति जेनी एवा केवळज्ञानीरूप सूर्यने भक्तिपूर्वक नमस्कार अथवा स्तुति करीने जिनमति नामना मुनिना चरणोनी पासे बेसी गया. ॥ १० ॥ आ प्रमाणे श्री अमितगतिआचार्य कृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ... ग्रंथनी गुजराती भाषाटिकामां अढारमुं प्रकरण पूर्ण थयु. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १० मुं. ज्यारे ते बन्ने मुनिनी पासे बेसी गया, त्यारे मुनिराज मनोवेगनी तरफ जाईने बोल्या केः-हे भाई ! शुं आ ज तमारो मननो प्यारो पवनवेग मित्र छ ? के जेने संसारसमुद्रथी तारनारो धर्म ग्रहण कराववानी इच्छाथी तमे महाविनय साथे केवली भगवानने उपाय पूछयो हतो ? ॥ १-२ ॥ आ सांभळीने मनोवेगे हाथ जोडीने कयुं के, हे महाराज ! ते पवनवेग आ ज छे. हवे ए व्रत ग्रहण करवानी इच्छाथी अहिंयां आव्यो छे. ॥ ३ ॥ हे साधु ! में एने पटना नगरमा लई जई ने अनेक प्रकारना दृष्टान्तोथी समजावीने मुक्तिरूपी घरमा प्रवेश करावनारुं सम्यक्त्व ग्रहण कराव्युं छे. ॥ ४ ॥ हे साधु ! छोडी दीधुंछे मिथ्यात्व जेणे एवो पवनवेग आ वखते जे रीते व्रतरूपी घरेणाथी भूषित थई जाय, एवो उपदेश आपो. ॥ ५ ॥ आ सांभळीने मुनिराजे कडं के, हे भाई ! परमात्मा अने गुरुनी साक्षीथी सम्यक्त्वपूर्वक श्रावकमां व्रत ग्रहण कर, केमके व्याप्रारीनो माफक साक्षीपूर्वक व्रत ग्रहण करवावाने भ्रष्टताने प्राप्त थतो नथी. ते माटे आ व्रत साक्षीपूर्वकज ग्रहण करवा योग्य छे. ॥६-७॥ जे प्रमाणे खेतरना क्यारामां पाणी विना रोपेलं अनाज फलीभूत थतुं नधी, ते प्रमाणे सम्यकत्व विना व्रत ग्रहण करवू पण सफल थतुं नथी ॥ ८॥ गहरी नीम सहित देवमंदिरनी माफक सम्यक्त्व सहित जीवोनुज दुर्धर व्रत निश्चल थाय छे. ॥ ९॥ जिनेंद्र भगवान भाषित जीव, अजिव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात तत्वोपर श्रधान करवाने सत्पुरुषोए व्रतोने पोषनारुं सम्यक्त्व कर्तुं छे. ॥ १० ॥ आ पवित्र सम्यग्दर्शनने शंकाकांक्षादि आठ दोष रहित अने संवेग, वैराग्य, दया अने कास्तिक्यादि गुणो सहित धारण करवावाळा पुरुषनुज व्रत (चरित्र ) फलवान थाय छे. ॥ ११ ॥ श्रावकाचारनुं वर्णन. श्रावकाचारमां पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत, अने चार शिक्षाव्रत ए प्रनाणे बार व्रत कहलां छे. ॥ १२ ॥ १ अहिंसा २ सय ३ अस्तये ४ ब्रह्मचर्य ५ असंगता ( अपरिग्रहत्व ) एनो एकदेश धारण करवो तेने पांच अणुव्रत कहे छे. ॥ १३ ॥ हे भाई ! व्रतने धारण करवू तो सहेलुं छे परंतु तेनी रक्षा करवी कष्टकारक छे, जेमके वांसने कापवो तो सहेज छे परंतु घसवो घणो अवरो छे ॥ १४ ॥ जे प्रमाणे मनवांछित सुखने आपवावाळा धनने घरमां संताडीने रक्षा करे छे, ते प्रमाणे पोताना चित्तरूपी घरमा ग्रहण करेला व्रतरूपी रत्नने राखीने यत्नथी सदा रक्षा करवी जोईए. ॥ १५ ॥ केमके जे व्रत प्रमादथी नष्ट थई जाय छे ते फरीथी प्राप्त यतुं नथी. शुं कोई समुद्रमा नांखेलुं दिव्यरत्न लई आववाने समर्थ छे ? कोई नहि ॥ १६ ॥ त्रस अने स्थावरना भेदथी जीव बे प्रकारना छे, तेमांथी व्रतनी इच्छा करवावाळा श्रावके त्रस जीवोनी रक्षा करवी जोईए, त्रस जीवोनी रक्षा करवानजे अहिंसाणुव्रत कहे छे ॥ १७ ॥ वे इंदिवाला, त्रण इंद्रिवाला, चार इन्द्रिवाला अने पांच इन्द्रिवाला ए चार प्रकारना स जीयोने जाणीने पाताना हितनी वांछा करनारा पुरुषाए Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन, वचन, कायाथी तेनी रक्षा करवी जोईए ॥ १८ ॥ हिंसा बे प्रकारनी छे. एक आरंभी अने बीजी अनारंभी. मुनि तो बन्ने प्रकारनी हिंसाने छोडे छे, परंतु ग्रहस्थ अनारंभी हिंसानेज छोडी शके छे ॥१९॥ जे श्रावक मोक्षनी इज्छा राखनारा अने करुणाना धारक छे, तेओए निरर्थक स्थावर जीवोनी हिंसा पण करंबी जोइए नहि ॥ २० ॥ घणाएक दयाहिन देवता, अतिथि, औषधि, पितृयज्ञ अथवा मंत्रादि साधवाने माटे जीवोनी हिंसा करे छे, परंतु ए माटे पण कदापि जीवहिंसा करवी जोईए नहि ॥ २१ ॥ कोई जीवने बांधवो, मारवो, नाक कान छेद, कापवू, बहु भार लादवो, भूखे तरसे राखबो, वगेरे अतीचारो सहित हिंसानो त्याग करवाथी अहिंसाणुव्रत स्थिर थाय छे ॥ २२ ॥ ___ जीभना स्वादने वशीभूत थई मांस भक्षणना लोभमां भयभीत जीवोनो प्राण हरवो कदी योग्य नथी ॥ २३ ॥ जे पुरुष पोताना शरीरनी पुष्टिने माटे पारकुं मांस खाय छे ते निर्दयी हिंसक नरकना अनंत दुःखोथी छूटी शकतो नथी ॥ २४ ॥ ए तो नियमज छे के, मांस भक्षीना चित्तमां कोई रीते पण दया होई शकती नथी. ज्यारे दयाज नथी तो ते निर्दय पुरुषमा धर्मनो अंश क्याथी होय ? अने धर्म रहित जीव अनेक दुःखोनु घर सातमा नर्कमां जाय छे. ॥२५ ॥ जेनुं चित्त प्राणीघात करती वखते जोवा अथवा स्पर्श करवाने दोडे छे, ते पण नरकमां जाय छे तो पछी हिंसा करनारा नर्कमां केम नहि जाय ? ॥ २६ ॥ जे पुरुष मांसनी लोलुपताथी जन्मारा सुधी हिंसा करे छे ते नर्करूपी कूवामांथी कदी नीकळशे नहि ॥ २७ ॥ जे मनुष्य मांस भक्षण करवामां रत होय छे, तेने नर्कमां नारकी Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ Pita लोढानी शिलाओ पकडावी ने वज्राग्निमां नांखी दे छे ॥ २८ ॥ जे प्रमाणे मांसभक्षी सिंहनुं चित्त, हरणने जोईनेज तेने मारखाने चालत थाय छे, ते प्रमाणे मांसभक्षी मनुष्योनी बुद्धिं पण जीवोने मावामां प्रवर्त्ते छे, ते माटे बुद्धिमानोए मांस भक्षणनो त्याग कवो जोईए ॥ २९ ॥ जे नीच उत्तमोत्तम सारा पदार्थोंने छोडीने -मांस भोजन करे छे, ते निश्चय करीने महा दुःखमय नर्कमांथी कदी नीकळतो नथी ॥ ३० ॥ बहु तो शुं कहीए ! मांसभक्षी अने कूतरामां कंईपण फेर नथी, तेथी हितैषी पुरुषोए कालकूट विषनी समान जाणीने मांसने अवश्य छोडी देवुं जोईए ॥ ३१ ॥ नावडे अग्निथी वेलानी माफक लोकमर्यादा नाश थई जाय छे धर्म अर्थनाश करावाळो मदिरा ( दारु ) ने कदापि पीवो जोईए नहि || ३२ || मदिराथी उन्मत्त थइने मनुष्य पोतानी माता, बहेन अने पुत्रीने पण भोगववानी इच्छा करवा लागी जाय छे, माटे मदिराथी वधारे निंद्य अने दुःखदायक पदार्थ जगतमां बीजो कोई नथी ॥ ३३ ॥ जे पुरुष मदिरा पीए छे, ते छाकटो थईने रस्तामां पड़ी जाय छे; तेना मोंहमां कूतरा पशाब करी जायछे अने चोर कपडां चोरीने लई जाय छे ॥ ३४ ॥ जे प्रमाणे अनि वृक्षोने बाळी मूके छे, ते प्रमाणे मद्यपान करवाथी मनुष्यना चित्तमांथी विवेक, संयम, क्षमा, सत्य, शौच, दया, जितेंद्रियता वगेरे सघळा धर्मनो नाश थई जाय छे ॥ ३५ ॥ मदिरा जेवुं बीजुं कोई कष्टकारक नथी, कोई अज्ञानदायक नथी अने कोई निंदनी अथवा महाव नयी || ३६ || जे पुरुष मदिरा पीने छाकटो यई जाय छे, ते जेने जुए छे तेनी आगळ निर्लज थइने नमस्कार करे छे, Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रडे छे, चकर खाय छे, स्तुति करे छे, गाय छे तथा नाच करवा मंडी जाय छे ॥ ३७ ॥ मदिरा ए सघळा दोषोनुं मूल छे, माटे एनो हमेशां त्याग करवो जोइए ॥ ३८ ॥ ____ अनेक जीवोनी हिंसाथी उत्पन्न थयेलं मधमाखियोनुं जूठण, अने म्लेच्छ भीलोनी लाळोथी मळेलु महा पापदायक मध दयाळु पुरुषोए सर्वथा भक्षण करवा योग्य नथी ॥ ३९ ॥ अनेक जीवोथी भरेलां सात गामोने बाळी मूकवामां जेटलुं पाप लागे छे, तेटलुं पाप मधनुं एक टीपुं भक्षण करवाथी लागे छे ॥ ४० ॥ जे धर्मात्मा पुरुष होय छे, तेओ माखीयोए एक एक टी' लावीने भेगुं करेला उच्छिष्ट अपवित्र मधने कदी भक्षण करता नथी ॥ ४१ ॥ मद्य, मांस अने मधमां दरेकेन। रसानुसार जुदी जुदी जातना जीव थाय छे, ते सघळाने निर्दयी जीव भक्षण करे छे ॥ ४२ ॥ जे नीच पुरुष प्रत्यक्ष जीवोथी भरेला पांच प्रकारना वड, पीपल, ऊमर, पाकर, अने कहूंभर ( उदम्बर ) फल खाय छे. तेना चित्तमां दया क्याथी होई शके ? ॥ ४३ ॥ जेओ सात्त्विक जिनाज्ञाने पालवावाळा अने जीव हिंसाना त्यागी छे, तेओए पांच प्रकारना उदम्बर फल सर्वथा छोडी देवा जोइए ॥ ४४ ॥ सिवाय जीव उत्पत्तिना कारणभूत एवां कंद, मूल, फल, पुष्प, माखण अने अन्नादिक पण दयावान पुरुषोए छोडी देवां जोइए ॥ ४५ ॥ बीजु-स्वहितवांछक पुरुषोए काम, क्रोध, मद, द्वेष, लोभ, मोहादिकने वशीभूत थई पारकाने पीडाकारी वचन बोलवू छोडी देवू मोइए Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ ॥ ४६ ॥ जे वचन बोलवाथी धर्मनी हानि थाप, लोकधी विरोध थाय भने विश्वास जतो रहे, एवं वचन शा माटे कहेतुं ? ॥ ४७ ॥ जे वचनथी नीचता उत्पन्न थाथ, जे असत्य वचननी म्लेच्छ लोक पण निंदा करे, एवं असत्य वचन श्रावको कदी कहेता मधी ॥ ४८ ॥ त्रीजुंः - खेतरमां, गाममां, कोठारमा, गौशालामां, नगरमा, वनमां भने मार्गमा भूलथी पडी गएलं दाटेलं अथवा स्थापन करेलुं वगर आपलं एवा परद्रव्यने निर्माल्य समान जोईने बुद्धिमान पुरुष कदी ग्रहण करता नधी, केमके, धनादिक छे, ते जीवोना सगळा का afने साधवावाळो बहारनो प्राण छे, माटे तेनो नाश थवादी मनुष्य जाणे तरत मरणतोलज थई जाय छे । ४९-५० -५१ ॥ जेणे कोईनु द्रव्य लीधुं तेणे तेना सघळा सुखोने आपवावाळा धर्म बंधु, पिता, पुत्र, कान्ति, कीर्त्ति, बुद्धि, स्त्री बगेरे सघळांज लई लीधां ॥ ५२ ॥ मरण थवाथी तो एक क्षणभरने माटे एक जीवनेज दुःख थाय छे, परंतु द्रव्यनो नाश थवाथी मनुष्यने सहकुटुंब उमर पर्यंत दुःख थाय छे ॥ ५३ ॥ तथा मच्छ, वाघ, शिकारी, ठग वगेरे निरंतर दुःख आपवावाळा करता पण चोर वधारे पापीष्ठ थाय छे ॥ ५४ ॥ जे माणस पारकुं द्रव्य हरण करे छे, तेने आ लोकमां तो राजादिकथी सर्वस्त्र हरणादि घोर दंड मळे छें अने परलोअमां नर्कनुं दुःख मळे छे ॥ ५५ ॥ चोथुः - नर्करूपी कूपनो मार्ग, स्वर्गरूपी घरमां जतां अटका नारी खाई, जे परस्त्री तेना सेवननो त्याग करीने व्रती पुरुषोए स्वदार संतोष व्रत धारण कर्खु जोइए || १६ || जेओ स्वर्ग मोक्षादिना सुखनी इच्छा राखे छे, ते पुरुषोए पोतानी स्त्री सिवाय सघळी स्त्रीओने माता, बहेन, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० बेटी समान जोत्री जोइए ॥ ५७ ॥ परस्त्री अत्यंत स्नेहयुक्त होवा छतां पण दुख आपवावाळी छे, सुंदर होवा छतां पण पापरूपी मेलने करनारी छे, रसनी आधार होवा छतां पण तृष्णाने वधारनारी छे, जडता सहित होवा छतां पण आताप वधारनारी छे, पोतानुं सर्वस्त्र आपवा छतां पण द्रव्यने हरनारी छे, आ प्रमाणे विरुद्धाचारथी चालवावाळी जे परस्त्री तेनो दूरथीज त्याग करवो जोईए ॥ ५८-५९ ।। जोके स्वस्त्री अने परस्त्रीना सेवनमां कंईपण विशेष नथी, परंतु परस्त्री सेवन करनारा तो नर्कमां जाय छे अने स्वदार संतोषी स्वर्गमा जाय छे. एनुं कारण एज छे के, स्वस्त्रीनी अपेक्षाथी परस्त्री सेवनमां अनुराग वधारे थाय छे अने परद्रव्यमां राग करवोज दुःखनुं मुख्य कारण छे ॥ ६० ॥ जे स्त्री पोताना पतिने छोडीने निर्लज थई परपुरुषनी साथे रमण करे छे, ते परस्त्रीनो केवी रीते विश्वास थइ शके ? ॥ ६१ ॥ रमणीय स्त्री जोवाथी सुख न थईमे आकुलता अने नर्कमां लई जनारा घोर पाप थवा सिवाय कंईपण प्राप्ति थती नथी ॥ ६२ ॥ जेना संगमात्रथी उभय लोक संबंधी हानि थाय छे, एवी परस्त्रीने लोक स्वदारसंतोषता छोडीने शामाटे सेवन करे छे ? ॥ ६३ ॥ जे पुरुष कामरूप अग्निथी संतप्त परस्त्री- सेवन करे छे, तेओने नर्कमां साक्षात् अग्मिथी लाल करेली लोहमयी स्त्री साथे वळ्गाडवामां आवे छे ।। ६४॥ एबुं जाणीने विद्वानोए यमराजानी द्रष्टि समान प्राणसंहार करनारी परस्त्रीने छोडी देवी जोइए ॥ ६५ ॥ ___पांचमुंः–जे प्रमाणे घणा तापवाळी अग्नि जळथी बुजावी देवामां आवे छे, ते प्रमाणे आपणो वधी गयेलो लोभ संतोष करीने शमावी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवो जोइए ॥ ६६ ॥ जे संतोषव्रतना धारी छे, तेओए धन, धान्य, गृह, क्षेत्र, द्विषद, चतुष्पद वगेरेनुं परिमाण करी लेवू जोइए ॥ ६७ ॥जे प्रमाणे लाकडां नाखवाथी अग्नि वधे छे, तेज प्रमाणे कषाय छोडवाथी धर्म, स्त्रीना संगथी काम, अने लोभथी लोभ वधे छे ॥ ६८ ॥ नहि जीतेलो लोभ मनुष्यने भयानक नर्कमां लई जाय छे, ते ठीकज छे के, जे बळवान वैरी होय छे, ते कयुं कयुं कष्ट आपता नथी? ॥ ६९ ॥ मेळवेली धनसंपदाने भोगवनारा घणा छे, परंतु ज्यारे आ जीव आरंभथी उपार्जन करेलं पापर्नु फल नर्कमां भोगवे छे, ते वखते पेला धनसंपदाने भोगवनारा पुत्रादिक वगेरे कोईपण सहाय थता नथी ॥ ७० ॥ जे मनुप्यने निश्चय संतोष छे तेना देव चाकर छे, कल्पवृक्ष तेना हाथमा छे अने तेना वरमां संपत्ति आवेली छे, एम समजबुं जोईए, केमके, आ सघळी सुखदायक संपदाओ होवा छतां पण जेना चित्तमां कल्याण करवावाको संतोष नथी, ते सदा दरिद्र अने दुःखीज छे ॥ ७१-७२ ॥ ए पांच अणुव्रतो सिवाय दिशा, देश अने अनर्थदंडथी विरक्त थर्बु एवा त्रण प्रकारना गुणवत छे. मोक्षनी इच्छा करनारा श्रावकोए ए त्रणे गुणव्रत मन, वचन, कायाथी धारण करवा जोईए ॥ ७३ ॥ दशे दिशाओमां विधिपूर्वक जवा आववानुं परिमाण करीने तेनी आगळ नहीं जवं, ते पहेलं दिखत नामनुं गुणव्रत छे ॥ ७४ ॥ ए गुणव्रत धारण करवाथी मर्यादा बहारना त्रस अने स्थावर बन्ने प्रकारना जीवोनी हिंसानो सर्वथा त्याग थइ जवाथी ते श्रावकने घरमा रहेवा छतां पण मर्यादाथी बहार महाव्रत थाय छे ॥ ७५ ॥ जेणे आ दिग्वत धारण कर्यु, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेणे त्रण लोकने उलंघन करवावाळी लोभरूपी अग्निने अटकावी अर्थात् पोतानो लोभ घटाडयो छे ॥ ७६ ॥ __दिग्वतमा जे दशे दिशाओगें परिमाण कयु, ते दशे दिशाओमां कोईपण प्राणी एक दिवसमां जई शकतो नथी ते माटे दररोज, सात दिवस, पंदर दिवस अथवा महिनो इत्यादि वखतनी मर्यादाथी क्षेत्रनु परिमाण करी लेवू, ते बीजं देशव्रत छे, एनुं फल उपला गुणव्रतनी माफक त्याज्यक्षेत्रमा महाव्रत पालवा जेवू बीजं पण वधारे थाय छे, ते ठीकज छे के, विशेष कारणथी विशेष कार्य केम न थाय ? ॥ ७७--७८ ॥ व्यर्थ हिंसादिकने त्यागवानी इच्छा राखवावालाए धर्मकार्योमा अनुपकारी अने पापकार्योमां सहायक एवा पांच प्रकारना अनर्थदंडने त्यागवा जोइए ॥ ७९ ॥ दयावान श्रावकोए हिंसाने माटे मोर, कूतरो, बिलाडी,, मेना, पोपट, कुकडा वगेरेने पकडाने पालन पोषण कर, जोइए नहि ॥ ८० ॥ तथा हिंसाना कारणे फांसी, डांग, झेर, शस्त्र, हळ, दोरडु, अग्नि, जमीन, लाख, लोढुं, गळी इत्यादि पदार्थ कोईना मागवाथी आपवा जोइए नहि ॥ ८१॥ ए सिवाय जेमां जीवनी उत्पत्तिनी पूर्ण संभावना होय, एवां अथाणां, मुरब्बा, फूलेली वस्तु, सडेला पदार्थोनुं भक्षण पण कदापि आपवां जोइए नहि ॥ १२ ॥ सामायिक, उपवास, भोगोपभोग परिमाण अने अतिथिसंविभाग ए चार प्रकारना शिक्षावत छे ॥ ८३ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ पहेलु:-जीवन, मरण, सुखदुःख, योग वियोगादिकमां समान भाव राखी आलस छोडीने दररोज सामायिक करवू जोइए ॥ ८४ ॥ सामायिक वखते परवस्तु तथा बीजां सबळां कामोथी विरक्त थइने समभावपूर्वक बे आसन ( कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन ) बार आवते ( एक एक दिशामां त्रण त्रण ) अने चारे दिशाओमां चार प्रणति करीने त्रिकाल वंदना ( सामायिक ) करवू जोइए ॥ ८५ ॥ बीजुः-पर्वचतुष्टयमां (बे आठेम अने बे चौदशने दिवसे ) सघळा प्रकारनो आरंभ अने भोगउपभोगनो त्याग करीने भक्तिपूर्वक उपवास करखो जोइए ॥ ८६ ॥ जे उपवासमां पांचे इन्द्रिओ पोतपोताना विषयधी निवृत्त थइने आत्मामांन स्थिर होय, कोइ विषयमां पण चलायमान नहि होय, आ प्रमाणे जितोंद्रियतानी साथे चार प्रकारना आहारनो त्याग करीने दिवस अने रात ध्यान स्वाध्यायमांज गाळवां, तेनेन भगवाने उपवास करवो कहेलो छे ॥ ८७--८८ ॥ चीजें:-भोग्य (जे एकवार भोगववामां आवे ) उपभोग्य ( जे वारंवार भोगववामां आवे ) - जे परिमाण ( गणत्री ) करवू ते भोगोपभोग परिमाणवत जेमां पुष्पमाला, गंधलेपन, पक्कान, ताम्बूल, भूषण, स्त्री, वस्त्र, सवारी वगेरे, दररोज परिमाण करीने व्रतनी इच्छा राखनारा सज्जन पुरुषोए सेवन कवू जोइए ॥ ८९--१० ॥ चोथुः-घर आगळ आवेला आरंभत्यागी, जितेंद्रिय, उत्तम श्रावक, (क्षुल्लक ऐलक ), श्राविका, मुनि, आर्जिका वगेरे अतिथिने माटे भक्तिपूर्वक अन्नपान औषधादिकनो विभाग करवो अर्थात् दान करीने सेवन Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ कर ते अतिथिं संबिभाग छे, जे श्रावकमात्रे करवं जोईए ॥९१॥ जेओ भक्तपुरुष छे, तेओए मुश्केलीथी छे अंत जेनो एवा संसारनो नाश करवाने माटे विनयपूर्वक चार प्रकारनो प्रामुक आहार मुनि, आर्जिका अने श्रावक, श्राविकाने दररोज आप्या करखो जोइए ॥ ९२ ॥ मुनिने दान आपती वखते श्रावके दातारना श्रद्धादिक सातगुण सहित नवधा भक्तिपूर्वक प्रीति साथे वर्तवू जोइए. केमके भक्तिविना आपेलं दान फलदायक नथी ॥ ९३ ॥ ___ आ बार व्रतोने पाळवावाळा बुद्धिमान सत्पुरुषोए कोई वखते अनिवार्य मरणकाल आवे, तो पोताना कुटुंबीओने पूछीने सल्लेसना ( सन्यासपूर्वक मरण) धारण कर जोइए, केमके सज्जन पुरुष समयानुसार कार्य करेज छे ॥ ९४ ॥ मरण वखते गुरुनी सन्मुख ज्ञान सहित दर्शन अने चारित्रने शुद्ध करवावाळा चतुर पुरुषे सघळा दोषोनी आलोचना करीने चार प्रकारनो आहार अने शरीरथी रागभाव छोडी देवो जोइए ॥ ९५ ॥ जे पुरुष कषाय, निदान अने मिध्यात्व रहित थईने सन्यासविधिने धारण करीने मरण करेछे, ते मनुष्य देवलोकनुं सुख भोगवीने २१ भवनी अंदर मोक्षपदने प्राप्त थाय छे ॥ ९६ ॥ आ प्रमाणे श्रावकनां बार व्रत जिनेंद्र भगवाने कह्यां छे, माटे जे कोई संसारसागरमां पडवाना भयथी डरवावाळा एने धारण करेछे, ते सघळा प्रकारना कल्याणने प्राप्त थाय छे ॥ ९७ ॥ ए सिवाय जितेंद्रियवृत्ति श्रावक छे, ते भ्रमर, नेत्र, हुंकार, हाथनी Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ आंगळी वगेरेथी इसारो करवानो अने लोलुपतानो त्याग करीने व्रतने वधारवावाळु मौन धारण करीने भोजन करे छे ॥ ९ ॥ तथा सुरनर वडे जेनां चरणो पूजित छे एवा निर्दोष पंचपरमेष्ठिनी नैवेद्य, गन्ध, अक्षत, दिप, धूप, पुष्पादिकथी दररोज पूजा करवी जोइए ॥ ९९ ॥ . जे आ पूजनीय श्रावकव्रतने अतिचार सहित पालन करे छे, ते पुरुष मनुष्य अने देवोनी संपदा भोगवीने निष्पाप थई निवार्णपदने पामे छे ॥ १०० ॥ व्रतनी प्रशंसा करवावाळी सघळां पापने चोरनारी जिनवती यतिनी वाणी. सांभळीने तथा देवमनुष्योवडे पूनित केवली भगवानना चरणकमलोने नमस्कार करीने ते निर्मल आशयवाळो पवनवेग श्रावकना व्रतरूपी रत्नोथी भूषित थइ गयो. ते ठीकज छे के, भव्यपुरुष अपरिमित ज्ञाननी गतिवाळा साधुओनी सदुपदेश 'रूप वाणीने मेळवीने ते वृथा केम करी शके ? अर्थात् एवा साधु पुरुषोनी आज्ञा अवश्य धारण करे छे ॥ १०१ ॥ आ प्रमाणे श्री अमितगतिआचार्य कृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाटिकामां ओगणीसमुं प्रकरण पूर्ण थयुं. e Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २० मुं. ए पछी मुनिमहाराजे पवनवेगने कह्यु के, है भाई ! उपरना बार व्रतो सिवाय बीजा पण जे प्रकारना नियम श्रावकोए भक्तिपूर्वक पाळवा जोइए, ते कहुं छु ॥ १ ॥ जे रात्रिमा झीणा जंतुओनो संचार रहे छे, मुनिओ चालता फरता नथी, भक्ष्यअभक्ष्य वस्तुनो भेद मालूम पडतो नथी, आहारमा आवेला सूक्ष्म जीव जणाता नथी, एवी रात्रीमां दयाळु श्रावकोए कदी भोजन करवू जोइए नहि ॥ २--३ ॥ जे पुरुष जीभने वशीभूत थइ रात्रे भोजन करे छे, ते नीचने अहिंसाणुव्रत क्याथी होय ? ॥ ४॥ जे पुरुष रात्रे भोजन करे छे, ते सघळा प्रकारनी धर्मक्रियाथी हीन छे. तेनामां अने पशुमां शींगडा सिवाय कंईपण जुदाइ नथी ॥५॥ मूंड, शूकर, साबर, कंक, बिलाडी, तित्तर, बगलं, कुतरो, सारस, बान, कौवो, देडको, सर्प, ठीगणो, दराज खुजलीवाळो, गूगो, अधिक बाल वाळो, कर्शक, ठग, दरिद्री, दुर्जन, कोढीओ वगेरे जे थाय छे, ते रात्री भोजनना पापथीज थाय छे ॥ ६-७ ॥ जेओ रात्रीभोजनना त्यागी छे, तेओ पंडित, प्रियवादी, निरोगी, सज्जन, मंदरागी, त्यागी, भोगी, यशस्वी, समुद्रपर्यंत पृथ्वीना धणी, आदरणीय, भाग्यवान, वक्ता, कामदेवसमान सुंदर अने पूजित थाय छे ॥ ८-९ ॥ रात्रीभोजनना प्रभावथी हमेशां दुः • खनीज प्राप्ति थाय छे अने दिवसना भोजनथी सुखनी प्राप्ति थाय छे, ते Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोटे दिवसे भोजन करवुज हितकारी छे ॥ १० ॥ जे मनुष्य दिवस आयमतां बे घडी पहेला भोजन करी ले छे, तेनेज महाभाग्यवान अनस्तमीतभोजी ( रात्री भोजननो त्यागी ) कहेलो छे ॥ ११ ॥ जे पुरुष सवारे अने सांजे बबे घडी समय छोडीने भोजन करे छे, तेने महिनामां बे उपवास सहेजमांम थई जाय छे ॥ १२ ॥ जे बुद्धिमान मनुष्य शुक्लपंचमीने दिवसे उपवास करे छे, ते मनुष्य भव अने स्वर्ग, सुख भोगवीने मोक्षे जाय छे ॥ १३ ॥ आ उपवास अषाढ, कार्तिक अने फागण आ त्रण महिनामां पी कोई एक महिनामां गुरुनी साक्षिपूर्वक वीधि साथे ग्रहण करीने पांच वर्ष अपम महिनासुधी विधि अने भक्ति सहित करवा जोइए ॥ १४-१५ ॥ जे प्रमाणे उपवाप्त करवाथी शरीर क्षीण थाय छे, ते प्रमाणे जीवनां अनेक भवनां संचय करेलां कर्म निःसंदेह क्षीण थई जाय छे ॥ १६ ॥ तथा मे प्रमाणे सूर्य तलावोना पाणीनुं शोषण करे छे, ते प्रमाणे आ पंचमीनो उपवास पण जीवोनां पूर्वकालनां संचित करेलां पापोर्नु शोषण (नाश ) करे छे ॥ १७ ॥ उपवास कर्या विना इन्द्रियो अने कामदेव जीति शकातां नथी, केमके, वनना मोटा मोटा हाथिओने सिंहज मारी शके छे ॥ १८ ॥ जे दिवसे रोहिणी अने चंद्रमानो योग होय, ते दिवसे पण उपवास करवो जोइए, माटे ए पण पांच वर्ष अथवा पांच महिनासुधी भक्तिपूर्वक करवाथी सघळी सिद्धि प्राप्त थाय छे. आ बन्ने व्रतोतुं फल बधारे तो शुं कहिये ? त्रीजान भवमां मोक्ष धाय छे ॥ १९-२० ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ज्ञानी पुरुष घणुंखरूं मुख्य फलनुज वर्णन करे छे. तेने लगतां नानां नानां फलो कहता नथी. जेम खेती करवामां धान्य थवाने फल कहे छे. पयाल वगेरे पण अनेक फल थाय छे, परंतु तेने मुख्य कहेता नथी. भावार्थ-उपला व्रतनुं मुख्य फल तो त्रिजा भवमां मोक्षे जq छे. ए सिवाय स्वर्ग अने मनुष्यभवनां अनेक प्रकारनां सुख सौभाग्यनी पण प्राप्ति थाय छे ॥ २१ ॥ आ बन्ने व्रतो विधिपूर्वक पूरां थवाथी पूर्ण फलनी इच्छा राखनाराओए पोतानी संपत्ति प्रमाणे उद्यापन पण अवश्य करवू जोइए ॥ २२ ॥ जो कोईने विधिपूर्वक उद्यापन करवानुं सामर्थ्य न हाये, तो व्रत बेवडवु जोइए. अर्थात् १० वर्ष अथवा दश महिना सूधी उपवास करवा जोइए, केमके आ प्रमाणे जो नहि करवामां आवे तो व्रतविधि पूर्ण केम थाय ? ॥ २३ ॥ संसार भ्रमणनो नाश करनारां अभय, आहार, औषध अने शास्त्र, आ चार प्रकारनां दान पण दररोज आपवां जोइए ॥ २४ ॥ जीवोने सौथी वधारे प्यारो प्राण छे, ते माटे जीवोनी रक्षा करवी अर्थात् सघळां दानोमां अभयदान करबुजं श्रेष्ठ छे, केमके प्राणीमात्र जे कंई धंधो रोजगार वगेरे आरंभ करे छे, ते एक मात्र पोताना जीवनी रक्षाने माटेज करे छे. तेथी जीवरक्षाथी अधिक श्रेष्ठ कोईपण दान थई शकतुं नथी ॥ २५-२६ ॥ पुरुषने धर्म, अर्थ, काम, अने मोक्ष आ चारे पुरुषार्थनो आधार जीवन छे, माटे जेणे जीवतदान आप्युं, तेणे तो शुं नहि कर्यु ? अर्थात् सघळु कयु अने जेणे प्राण हरी लीधां तेणे बाकी शुं छोडयुं ? सघळु हरी लीधुं Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ ॥ २७ ॥ जगतमां अनेक प्रकारना भय छे. ते माटे बुद्धिमानोए जेम बने तेम सदा जीवरक्षाज करवी जोइए ॥ २८॥ धर्मध्यान साधवाने माटे मूल कारण शरीर छे, अने शरीरनी रक्षा अन्नविना थती नथी, ते माटे धर्मात्मा पुरुषोए आहारदान पण हमेशां आप जोइए ॥ २९ ॥ ज्यारे दुकाळ पडे छे त्यारे अनेक माणसो क्षुधा शांत करवाने माटे पोताना आतिशय वहाला बाळ. कोने पण वेची देछे. माटे आहार पुत्रादिकथी पण वधारे बहालो छ ॥ ३० ॥ संसारी जीवोने माटे आ सर्वनाशी क्षुधा ( भूख ) रूपी दुःखथी मोटुं बीजूं कोईपण दुःख नथी. तेथी जेणे आहारदान आप्युं तेणे शुं नहि आप्युं ? अने आहारने नष्ट करवावाळाए शुं नहि हरण कर्यु ? ॥ ३१ ॥ अन्नदान मनुष्यने कांति, कीर्ति, बल, वीर्य, यश, धन, सिद्धि, बुद्धि, शम, संयम, धर्म वगेरे आपे छे. ए कारणथी जगतमां आहारदानी पुरुषज सुखी अने सुख आपवावाळा थाय छे ॥ ३२ ॥ जे शरीररक्षा करवानी शक्ति अन्नभक्षण करवामां छे, ते शक्ति सोना, माणेक, रत्नमां कदापि नथी. तेथीज परोपकारी जन मुनिओने रत्नादिक छोडीने अन्नदानज आप्या करे ॥ ३३ ॥ ज्यारे मुनिओ मोटा रोगथी पीडित थाय छे त्यारे तेओ ता करवामां असमर्थ थई जाय छे, ते माटे दानी पुरुषो ते तपस्वीओनी विघ्नकारक व्याधि दूर करवाने मात्रै विधिपूर्वक भोजनादिकनी साथे औषधनुं पण दान आप्या करेछे ॥ ३४ ॥ जे प्रमाणे जलमां मग्न पुरुष अग्निथी दुःखी थतो नथी, तेज प्रमाणे जे श्रावको रोगी योगीओने भक्तिपूर्वक औषधदान आपे छे, ते वात, पित्त, कफजनित रोगोथी कदापि दुःखी थता नथी ॥ ३५ ॥ . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जे शास्त्र द्वेष, राग, मद, मत्सर, मूर्छा, क्रोध, लोभ भयादिकने नष्ट करवामां समर्थ छे अने मोक्षरूपी घरनो मार्ग बताववावाळां छे, ते शास्त्र अक्षयसुखनी प्राप्तिने माटे मुनिओने अवश्य आपवां जोइए ॥ ३६॥ शास्त्रनो स्वाध्याय करवाथी विवेक थाय छे. विवेकथी अशुभ कर्मोनो नाश थाय छे. अने कर्मोनो नाश थवाथी मोक्षपदनी प्राप्ति थाथ छे, ए कारणथी अनर्थोने नष्ट करवावाळां शास्त्रो पण मु. निने अवश्य आपवां जोइए ॥ ३७॥ जे दानमां जीवोने पिडा न थाय, जेना प्रभावथी यति विषयरूपी वेरीने वश न थाय अने पापोने नाश करनारा तपनी वृद्धि थाय, तेज दान सुखने आपवावाळु अने श्रेष्ठ कहेलुं छे ॥ ३८ ॥ ए सिवाय रत्नत्रयधर्मने वधारनारां बीजां पण निर्दोष दान, शील, संयम, दया, जितेंद्रियतानुं घर अने परिग्रहरहित उत्तम पात्रने आप, योग्य छे ॥ ३९ ॥ घर कुटुंब विगेरेथी दूषित पात्रपुरुषो घरकुटुंब वगेरेमा रहेवावाळा दानीने वांछित सुख कदापि आपी शकता नथी. ते नीतिज छे के, समुद्रमा पथ्यर पथ्थरने तरावी शकता नथी ॥ ४०॥ ___ चतुर पुरुषोए मोठेथी मीठी मीठी वातो करवावाळी, मनमां दुष्टता राखवादाळी, सर्वे प्रकारे नीच, सेंकडो व्यभिचारीओ द्वारा मर्दन करेली अने अशुभ लेश्यायुक्त वेश्याने कदापि सेववी जोइए नहि ॥ ४१ ॥ जे मनथी एकने चाहेछे, वचनथी बीजाने प्यार बतावे छे, अने तनथी कोई त्रीजानेज सेवन करे छे. एवी नवा नवा पुरुषोने चाहनारी वेश्या केवी रीते मुखी थई शके ? Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ ॥ ४२ ॥ नष्ट थयो छे शम, संयम, योग जेनो, एवो जे पुरुष रतिमां मोहित चित्तथइने दारु, मांस वगेरे भक्षण करवावाळी 'वेश्याने मुखचुंबन करे छे, तेने व्रतरुपी रत्न केवी रीते रही शके ? ॥ ४३ ॥ जे नीचाचारी मूर्ख हमेशां वेश्याने वशीभूत थई पुत्र, मित्र, बांधव अने आचार्य समूह क नथी मानतो, तेने शान्त पुरुषोद्वारा आराधवा योग्य धर्मनी प्राप्ति क्यांथी धाय ? ॥ ४४ ॥ जो के पोतानी स्त्री सुखकारी छे परंतु अतिशय आसक्तिथी सेवन करेली ते पण महा दुःखनुं कारण छे. जे प्रमाणे टाढथी पीडाता मनुष्यने अग्नि प्यारी छे तोपण अतिशय सेवन करेली अग्नि शुं शरीरने अथवा लोहीने बाळनारी नथी ? अवश्य छे. ए माटे जे जितेंद्रिय, तीव्र कामना बाणोना गर्वनो नाश करवावाळा महापुरुष अष्टमी चतुर्दशी बगेरे. पर्वोमां हमेशां मैथुनकर्मना त्यागी छे, ते सधळा देवताओवडे पूज्य स्वर्गना इन्द्र थाय छे ॥ ४५-४६ ॥ जे पूर्वोपार्जित मेळवेला धननो क्षणभरमां नाश करीने घरमा अनिवार्य दरिद्र भरेछे एवो जे जुगार रमवो ते पण बुद्धिमानोए छोडी देवु जोइए ॥ ४७ ॥ जुगारीने तेना भाई बंधु छोडी दे छे, पंडितो तेनी निंदा करे छे, दुर्जन पुरुष हांसी करेछे, सज्जन पुरुष तेनी दुर्दशामाटे अफसोस करे छे तथा एकबीजा जुगारी तेने बांधे छे, लातो मारे छे, दुःख देछे अने नाना प्रकारनी वीटंबना करेछे ॥ ४८ ॥ ए द्यूतकर्म धर्म, अर्थ, कामने नष्ट करवामां चतुर, सघळा प्रकारनां पापकर्म वधारवाने तत्पर अने शीलसंयमी द्वारा निंदनीय छे, ते माटे जुगारथी वधारे अनिष्टकारक बीजुं कांई पण नथी ॥ ४९ ॥ जे मूर्ख निर्लज्ज थईने Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पोतानी माताना वस्त्रने पण चोरी ले छे, ते नीच जुगारी बीजा सघळा माणसोने कष्टदायक शुं कार्य नहि करे ? ॥५०॥ आ लोकमां दारु पीवो १, मांसभक्षण २, परद्रव्यहरण ३, जुगार रमवो ४, शिकार करवो ५, परस्त्री सेवन ६, वेश्यासंग ७, आ साते नीच पुरुषोना आचार छे, जे श्रेष्ठ पुरुषोए त्यागवा जोइए ॥ ५१ ॥ __जे मनुष्य श्रावकना ११ स्थानो (दरज्जा ) मां रहे छे, प्रवत्ते छे, तेज उत्कृष्ट श्रावक थाय छे अने तेज संसार परिभ्रमणनो नाश करवामां समर्थ एवा चौद गुणस्थानवर्ती योगी थवाने समर्थ थाय छे ॥ १२॥ १ जेना हृदयमा हारयष्ठिनी माफक तापने हरनारी, अने चन्द्रमानां किरणो समान उज्वल, निर्मलदृष्टि ( सम्यक्त्र ) थाय छे, तेज दर्शन प्रतिमाना धारक निर्दोष यूतिवाळा दर्शनी नामना श्रावक थाय छे ॥ ५३॥ २ महात्मा दुर्लभ्य धनने घरमा राखवा समान पोताना हृदयरूपी वरमा अतिचार रहित बार व्रतरत्नोंने धारण करी राखे छे, ते बुद्धिवान पुरुषने व्रती पुरुष बीजी व्रतपतिमाना धारक व्रतीश्रावक कहे छे ॥ १४ ॥ ___३. जे श्रावक इन्द्रियरूपी घोडाने अंकुशमां करीने प्रिय, आप्रिय अने मित्रशत्रुमां समताभाव राखीने त्रिकाल सामायिक करे छे, तेने प्रवीण पुरुषोए त्रीजी सामायिक प्रतिमानो धारक सामायिकी श्रावक कहेलो छे ।। ५५॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. जे माणस भोगोपभोग पदार्थोमांथी चित्त हठाबीने आरंभरहित चारे पर्वोमां (बे आठेम ने बे चौदश ) हमेशां उपवास कर्या करे छे, तेन चोथी प्रोषधप्रतिमानो धारक विद्वानोनो प्यारो प्रोषधी श्रावक'छे ।। ५६ ॥ .. . ५. जे श्रावक सघळा जीवोनी करुणा करवामां तत्पर थईने सघळा प्रकारना सचित्त पदार्थोंने छोडी प्रासुक अन्नजलादिक भोजनपान करे छे, तेने यतिओना नाथ गणधर भगवाने पांचमी सचित्त साग अतिमानो धारक सचित्तविरति शावक कहेलो छे ॥ ५७॥ ... ६. जे मंदरागी घात्मा दिवसमा स्वस्त्री सेवननो त्याग करे छे, तेने महात्मा पुरुषोए धन्यवाद योग्य दिन मैथुन त्याग प्रतिमानो धारक दिन मैथुनत्यागी शावक कहेलो छे ॥ ५८ ॥ ७. जे श्रावक कामदेवरूपी महाशत्रुना गर्वने मर्दन करीने देव मनुष्यने जीतनारा स्त्रीओना कटाक्षरूपी बाणोथी जीताई जतो नथी, अर्थात् स्वस्त्रीमो पण त्यागी होय छे तेने सातमी ब्रह्मचर्यप्रतिमानो धारक "ब्रह्मचारी श्राक्क कहे छे ॥ ५९॥ - ८. जे धर्मात्मा श्रावक सघळा प्रकारनी जीवहिंसानां कारण जाणीने रागद्वेषादिकने मंद करीने सघळा प्रकारना आरंभने छोडी देछे; तेने यथार्थ ज्ञानना धारक पुरुषोए आठमी आरंभत्याग प्रतिमानो धारक अनारंमी श्रावक कह्यो छे ॥ ६० ॥ ९. जे श्रावक उत्कृष्ट कषायरूपी शत्रुओने जीतीने जीवहिंसाना कारणरूप परिग्रहने जाणीने तृणनी माफक त्याग करी दे छे, तेने गणधरोए Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी परिग्रहत्याग प्रतिमानो धारक अपरिग्रही श्रावक कहेलो १०. जे विविध प्रकारना जीवोने तापकारक अग्नि समान गृह कायोमा सम्मति आपवानो त्याग करी दे छे, तेने ज्ञानी पुरुष दशमी अनुमति साग प्रतिमानो धारक अनुमतित्यागी श्रावक कहेछे ॥१२॥ ११. जे जितेन्द्रिय श्रावक पोताने माटे तैयार करेला भोजननो मन, वचन, कायाथी त्याग करीने मुनिओनी माफक अनुद्दिष्ट प्रासुक भोजन करे छे, तेने अग्यारमी उद्दिष्टत्याग प्रतिमानो धारक उदिष्ट सागी श्रावक कहे छे ॥ ६३ ॥ __आ प्रमाणे जे अनुक्रमे प्रमाद रहित अग्यार पदोने धारण करी श्रावकाचारने पाळे छे, ते पुरुष देवमनुष्यनी सुखसंपदाथी तृप्तचित्त थई सघळां कर्मोनो नाश करीने सिद्धपदने प्राप्त थाय छे ॥ ६४ ॥ ___ उपला सघळा व्रतोमां तारामां चंद्रमानी समान सघळा प्रकारना तापोने नष्ट करवामां समर्थ, तत्त्वोनो प्रकाशक देदिप्यमान एकमात्र सम्यक्त्वज मुख्य छे ॥ ६५ ॥ संसाररूपी वृक्षने कापवाने माटे शस्त्र अने सबळाने इष्टरूप आ सम्यक्त्वं निसर्गज अने अधिगमन भेदथी बे प्रकारनो कहेलो छे. तत्वोपदेश विनाज उत्पन्न थवावाळु सम्यक्त्व तो निसर्गज कहेवाय छे, अने जिनागमनो अभ्यास करवाथी अर्थात् परोपदेश थी उत्पन्न थनारूं सम्यक्त्व आधिगमज कहेवाय छे ॥ ६६ ॥ ए सिवाय ज्ञानचरित्रनी शुद्धि करवावाळु, भवभ्रमणनो नाश करवावाळु, अथवा मनोवांछित सुखने आपवावाळु जे सम्यक्त्र क्षायिक औपशमिक अने Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायोपशामिक भेदथी त्रण प्रकारनु छ । ६७ ॥ आ सम्यक्त्वरूपी रत्नने हरवावाळा अथवा आ धर्मरूपी वृक्षने कापवाने माटे कूहाडी समाने पहेला चार कषाय ( अनंतानुबंधि क्रोध, माया, मान, लोभ ) अंने मिथ्यात्व सम्यक्त्व अने मिश्र आ त्रण दर्शनमोहिनीनी प्रकृति, आ प्रमाणे सात प्रकृतिओ छे ।। ६८ ॥ जे वखते जीवोने आ साते प्रतिबंधक प्रकृतिओ नष्ट थवाथी मेघपटलोना अभावथी सघळा अंकारनो नाश करवावाला सूर्यबिंब समान जे सम्यक्त्र प्रगट थाय छे, ते सघळाथी 'श्रेष्ठ अने शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व छे. अने आ सम्यक्त्व उत्पन्न भया पछी कदी नष्ट थतुं नथी तथा जे आ साते प्रकृतिओ समाइ जवाथी उत्पन्न थाय छे तेने शामिक सम्यक्त्व कहे छे. - आ सम्पनल अन्तरमुहूर्तज रही शके छे अने जे आ साते प्रकृतिओनो कई क्षय अने कई शमन थवाथी उत्पन्न थाय छे तेने वेदक सम्यक्त्व तथा मिश्र अथवा क्षायोपशामिक सम्यक्त्व कहे छे ॥ ६९-७० ॥ जे सम्यग्दृष्टि जिन.मतना तत्त्वोमा शंका करे नहि (१) संसारिक सुखोनी वांछा करे नहि (२) धर्मात्मा, रोगी, दरिद्री वगेरे जैनो साथे ग्लानि करे नहि (३) कुदेव, कुगुरु अने कुधर्ममां विशुद्धचित्त थई मोहने प्राप्त थाय नहि ( ४ ) संयमि, मुनि, श्रावकोना दोषोने छूपावे (५) पोताना तथा पारकाना पवित्र चित्तमां स्थिरता करे ( ६ ) धर्मात्माओ साथे शल्यरहित वात्सल्य राखे ( ७ ) आहंसा धर्मनो महिमा वधारे (८) संसारथी भयभीत ( ९) वैराग्यरूप ( १० ) मन्दकषायी ( ११ ) पोतानी निंदा करे ( १२ ) पोते करेला दोषोनी निंदा करे ( १३) पंचपरमेष्ठिनी दररोज भक्ति करे ( १४ ) दयारूपी स्त्रीनेज आलिंगन करवामांज पोतानी Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ इच्छा गखे ( १५) सघळा जीवोमां मैत्रीभाव राखे ( १६ ) चारित्रधारिओने जोइने खुशी थाय ( १७ ) विपरित चेष्टावाला साथे मध्यस्थ रहे ( १८ ) अने संसारिक कदाचारोथी जुदो रहे ( १९) तेन धीर पुरुष व्रतरूपी धान्यना बीजभूत, गरिबो ( दिनो ) ने दुर्लभ, मनोवांछित सुग्वने आपनारा, विद्वानोवडे पूजनीक, सम्यक्त्वरुपी रत्नने निर्मल करे छे अने तेज पुरुषनो जन्म प्रशंसा करवा योग्य छे ॥ ७१--७२-- ७३-७४-७५ ॥ आ जगतमां सम्यक्त्व जेवू कोईपण हितकारी, आत्मीय, परमपवित्र, अने उत्तम चारित्र नथी ॥ ७६ ॥ जे पुरुषने सम्यकाल छे, तेज पंडित, श्रेष्ठ, कुलीन अने दीनतारहित छे ।।७७॥ जे सम्यक्त्वधारी उदार पुरुष छे, ते महाकान्ति, ज्ञान, कीर्ति अने तेजना घारक कल्पवासी देवो सिवाय थोडी विभूतित्राळा बीजा देवोमां कदि उत्पन्न थता नथी । ७८ ॥ जे सम्यग्दृष्टि पुरुष छे, ते पहेला नर्कथी आगळ कोई बीजा नर्कमा जतो नी स्त्रीपणुं अने नपुंसकपणाने पण प्राप्त थतो नथी, अने ते पुरुष अपूज्य पुरुषोमां उत्पन्न थतो नथी ॥७९॥ जे पुरुष ओछामा ओछु अन्तर्मुहूर्त्तज सम्यक्त्वरत्नने धारण करे छे, ते अनंत अपार संसारने जलदायी तरी जाय छे ॥ ८० ॥ आ प्रमाणे त्रण भुवनना बंधु जिनमती नमना मुनिनी निर्दोष तत्त्वाने प्रकाशं करनारी विद्वानोवडे पूजनीय अने पवित्र वाणीने ते विद्याधरनो पुत्र पवनवेग पोताना मनमा धारण करीने घणा हर्ष ने प्राप्त थयो ।। ८१ ॥ वांझणी पुत्रनी प्राप्तिथी, स्त्रीवियोगी स्वस्त्री प्राप्त थवाथी, आंधळो नेत्र मळवाथी, रोगी निरोगताने अने निर्धन खजानाने मेळवीने हर्षित थाय छे, ते प्रमाणे पचनवेग पण व्रत धारण करीने अतिशय हर्षने प्राप्त Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ थयो । ८२ ॥ ए पछी पवनवेग मुनि महाराजने नमस्कारपूर्वक कहेवा लाग्यो के, हे मुनि ! आजे मारा समान कोईपण भाग्यवान नथी, केमके हुं नर्करूपी कूत्रामां पडतां आपना वचनरूपी आलंबनने प्राप्त थयो छं ॥ ८३ ॥ जे माणस आपनां वचनाने सांभळे छे, ते पण मनोवांछित फलने प्राप्त थाय छे तो जे एकचित्त थई आपना वचन अनुसार चाले छे, तेनुं फल के उत्तम थशे ते कहेवाने कोइ समर्थ नथां ॥ ८४ ॥ जे मनुष्य आपनां वचनाने सांभळांने कईपण करता नथी, ते खरेखर मनुष्य नथी, केमके रत्नभूमिमां प्राप्त थईने पशुज खाली हाथ आवे छे, मनुष्य कदापि खाली हाथ आवतो नथी ।। ८५ ।। आ प्रमाणे पवनवेग निर्दोष बचनो कहांने व्रतसमितिवाळा मुनिसहित केवली भगवानने प्रांति - पूर्वक नमस्कार कराने पोताना मित्र मनोवेग सहित विजयार्द्ध पर्वतपर पोताने घेर गयो || ८६ ॥ पवनवेगने जैन धर्मावलंबी जोइन मनोवेग बहुज हर्षित थयो, जे नातिज छे के पोतानो करेलो परिश्रम सफल थवाथी एवो कोण पुरुष छे के जेना हृदयमां हर्ष न थाय ? ॥ ८७ ॥ ए पछी मनोहर आभूषणांना धारक ते बन्ने मित्र चार प्रकारना पवित्र श्रावकधर्म ने हर्ष साथ धारण कराने परस्पर महाप्रीतिरूपी बंधनथी पोतपोताना चित्तने बांधला सुखथी पोतानो समय गाळवा लाग्या ॥ ८८ ॥| अने अनेक आभूषण पहेरेला स्फुरायमान रत्नोना समूहथी शोभित पोताना विमानमां बेसाने देवमनुष्योना राजा इंद्र अने चक्रवर्त्ति ओबडे पूजनीय मनुष्यक्षेत्रांना ( अढाई द्विपना ) कृत्रिम अकृत्रिम सघळां जिनमंदिरोमां स्थित जिनप्रतिमाओनी दररोज भक्तिपूजा वंदना करीने रहेवा लाग्या. ते ठीकज छे के, शुद्धज्ञानना धारक सत्पुरुष पो Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताना हितकार्योमां कदापि प्रमादी थता नथी ॥ ८९ ॥ जे प्र. माणे आ विस्तृतकीर्ति पवनवेगे लीलामात्रथी बे दिवसमांज देव मनुष्योवडे पूजनीय पोताना सम्यग्दर्शनने चंद्रमा समान उज्वल कर्यु तेज प्रमाणे विस्ततकीर्तिवाळा अमितगति आचार्य पोताना आ काव्यनी बे मासमांज दोषरहित रचना करी ॥१०॥ आ प्रमाणे श्री अमितगतिआचार्य कृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाटिकामां वीममुं प्रकरण पूर्ण धयुं. समाप्त ka Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकर्तानी प्रस्तावना. श्री माथुर संवना मुनिओमां श्रेष्ठ, सिद्धान्त समुद्रना जाणकार, कपायोने जाण करवाना उपायोमां चतुर अने आचार्योमा गण्यमान एवा एक वीरसेन नामना आचार्य थया ॥ १ ॥ तेना शिष्य, उदयाचलथी सूर्य समान नष्ट करी छे सघळा अंधकारनी प्रवृति जेमणे, लोकमां ज्ञानरूपी प्रकाश करवावाळा, सत्पुरुषोने प्यारा, धीरताना कारण, नष्ट कर्या छे सघळा दोष जेमणे एवा, देवसेन नामना आचार्य थया ॥ २॥ तेमना शिष्य, पदार्थोना समूहने प्रकाश करनारा, दोषरहित, मुनिगणोना नाथ ( संघना नाथ ) सूर्यथी दिवस समान भव्यरूपी कमल समूहने प्रफुल्लित करवावाळा, एक अमितगति नामना आचार्य थया ॥ ३ ॥ ते अमितगति महाराजना शिष्य, पवित्रधर्मना अधिष्ठाता, विभू, पार्वतीनाथनी माफक कामदेवने नष्ट करवावाळा, मन, वचन, कायाने वश करनारा अने मुनि, अजिंका, श्रावक, श्राविकाना संवथी पूजित, एवा नेमिषेण नामना आचार्य थया ॥ ४ ॥ ते नेमिषेण आचार्यना शिष्य, कोपनिवारी, शम दमधारी, उत्तमतार्थी नम्रतानो छे रस जेमां, गर्वने छोडनारा, मुनिओमां श्रेष्ठ, शमावी दीघो छ मन्मथ जेमणे, एवा माधवसेन नामना आचार्य थया ॥ ५ ॥ ते माधवसेन आचार्यना शिष्योमा श्रेष्ठ, निर्दोषज्ञानना धारक अमितगति नामना चतुर शिष्ये धर्मनी परिक्षा करवाने माटे सघळाने शरगरूप आ श्रेष्ठ, धर्मपरिक्षा ग्रंथनी रचना करी छे ॥ ६ ॥ आ धर्मपरीक्षा में अल्पज्ञानीए बनाबी छे, एमां जे काई भूलचूक होय, तेने स्वपर Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० शास्त्रने जाणवावाळा शोध करीने ग्रहण करो. शुं ऊंची बुद्धिवाळा विद्वान सारासार समजीने खोटाने छोडी खरानजे ग्रहण करता नथी ? ॥ ७ ॥ प्राचीन कविताज सुखदायक छे नवीन कविता सुखदायक नथी बुद्धिमानोए आ प्रमाणे कदी नहि समजबुं जोइए, वृक्षोने दर वर्षे नवां नवां फल आवे छे तो शुं ते आगला वर्षानां फल जेवां श्रेष्ठ अथवा मिठां थतां नथी ? ॥ ८ ॥ तथा कोई कहे के पुराणोने छोडीने पुराणोथी उत्पन्न थयलो आ ग्रंथ ग्रहण करवामां आवी शकतो नथी माटे आ कहे पण ठीक नथी, केमके सुवर्णमाय पत्थरमांथी नीकळेलु सोनुं शुं महामूल्यथी वेचातुं नथी ? ॥ ९ ॥ में आ पुस्तकमां जे अन्यमतना शास्त्रोनो विचार कर्यो छे, ते बुद्धिनो गर्व प्रकट करीने अथवा पक्षपातथी कर्यो नथी, परंतु जे धर्म शिवसुखने आपवावाळो छे, ते धर्मनी मात्र परिक्षा करवाने माटेज आ परिश्रम करवामां आव्यो छे ॥ १० ॥ विष्णु, महादेव वगेरेए तो मारुं कई लीधुं नथी अने जिन्द्र भगवाने मने कई आपी दीधुं नथी, जे हुं विष्णु वगेरेनुं खंडन करीने जिनेंद्रनी स्तुति करु. केमके विद्वज्जन निरर्थक क्रिया करता नथी ।। ११ ॥ मारूं तो मात्र एमज कहेवू छे के जे सत्पुरुष छे ते कुगतिनी प्रवृति करवावाळा मार्गने (धर्मने ) छोडीने सुगतिमां लई जवाबाळा धर्मनो आश्रय करे, जेथी नारकादि गतिमां जवावाळाने सघळा अंगने आतापकारी महादुःख पडे नहि ॥ १२ ॥ जे सारी रीते निवेदन करेला हितने ग्रहण करता ना, त अवश्य आगामी कालमा अनेक प्रकारनां दुःख भोगवशे. अने जे निवारण करवाची कुमार्गमा रहेता नथी, ते भविश्यमा दुःख पामशे नहि ॥ १३ ॥ जे प्रमाणे कडवू Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ औषध खाती वखते दुःखदायक छे परंतु परिणामे वांछित मुख आपे छे, ते प्रमाणे मारूं कहेलुं कठोर वाक्य ( शास्त्र ) भविष्यमा निश्चय करीने सुखदायक थशे ॥ १४ ॥ हे विद्वान माणसो ! मारा कहेला आ ग्रंथने विचार करीने ग्रहण करशो तो निश्चय करीने पोते पोतानी मेळेज आ शुभाशुभपणाने जाणी जशो. जोके निवेदन करवाथी सेंकडो मनुष्य रसने जाणी जाय छे, परंतु तेना स्पष्ट अनुभव ( स्वाद ) ने कदापि भोगत्रता नथी ॥ १५ ॥ जेना हृदयरूपी मांदरमां मिथ्यात्वरूपी अंधकारनो नाश करवावाळो जिनेंद्र मतरूपी दिवो बळे छे, तेज पुरुष विद्वानोए मानेला वस्तुना निर्दोष स्वरूपने जाणे छे. तथा तेज पुरुष सघळा कलंकनो नाश करनारी उज्वल कीर्तिने पामे छे ॥ १६ ॥ जे पुरुष पोताना अने पारकाना मतनुं तत्त्व देखाडनारा पवित्र शास्त्रने भक्ति पूर्वक कहे छे, अथवा एकचित्त थईने सांभळे छे, ते पुरुष सघळां तखोने जाणीने केवलज्ञानज छे नेत्र जेजें, एवा देवोवडे पूजनीय पदने प्राप्त थईने मोक्ष लक्ष्मिने प्राप्त थाय छे ॥ १७ ॥ आखरे आचार्य आशिर्वाद आपे छे के, जगतमां निरंतर सुखने आपनारो जैनधर्म विनरहित थाओ, लोकोमा शान्ति रहो, राजालोक न्यायथी पृथ्वीन पालन करो, अने साधुजन यमनियमरूपी बाणोथी कर्मरूपी शत्रओनो नाश करीने मोक्षने प्राप्त थाओ. अने सघळा प्राणीमात्र मिथ्याज्ञाननो नाश करीने पोताना हितमां लवलीन थाओं ॥ १८ ॥ जेटला दिवस सुधी निर्मल जळवाली, मीनज छे नेत्र जेनां तथा उच्च शद करवावाळी नदीरूपी स्त्रीओ पोताना लहेररूपी हाथथी समुद्ररुपी भरतारने आलिंगन करशे, तेटला दिवससूधी धर्माध Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ मना ज्ञाता विद्वानोवडे प्रसन्नतानी साथे व्याख्यान थतां, आ अनघ (निर्दोष ) शास्त्र आ पृथ्वीपर विद्यमान रहो ॥ ११ ॥ अन्य मतनो निषेध करवावाळो, जिनेन्द्रधर्मनो अपरिमाण युक्तवालो आ धमपरिक्षा नामनो ग्रंथ विक्रम संवत १०७० मा वर्षमा पूर्ण थयो ॥ २० ॥ ANIMAvera-masuavanal SWAPN-ANKale-weiled TANTHERE JANWAR Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-०-० दिगंबर जैन पुस्तकालयमाथी मळतां पुस्तको. हिंदी भाषाना ग्रंथो. श्री पद्मपुराण ( महान ग्रंथ ) ६-०-० आत्मख्याति समयसार ( भाषा वचनिका ) ४-०-० भगवति आराधना ( सदासुखजी कृत ). ४-०-० रत्नकरंड श्रावकाचार ( मोटुं). ४-०-० हरिवंश पुराण. ५-०-० पांडव पुराण ( बुलाखीदासजी कृत ). ... २-१२-० पुण्याश्रव पुराण ( ५६ कथाओ सहित ). ज्ञानार्णवजी ( भाषा टिका सहित ).. ४-०-० आराधनासार ( १२६ कथाओनो भंडार ) ३-८-० आत्मानुशासन ( भाषा वचनिका ). यशोधर चरित्र ( अपूर्व पुराण ) श्रीपाल चरित्र. १-८-० पार्थ पुराण. १-४-० प्रद्युम्न चरित्र ( घणोज मनोरंजक ग्रंथ ). २-१२-० क्षत्रचूडामणी ( वादीभसिंहजी कृत ). अकलंक स्तोत्र ( जीवनचरित्र सहित ). ०-३-०.. जैन नित्यपाठ संग्रह ( रेशमी पुंठा सहित ). ०-६-०. नित्यपूजा. ०-४-०. दिपमालिका विधान ( दीवाळी पूजन ) ०-१-० चोवीस जिनपूजा ( वृंदावन कृत ). ०-१२-० मोक्षशास्त्र ( तत्वार्थ सुत्र अर्थ सहित ). ०-१२.० २-०-० ०-१२-०. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानां पुस्तको. 0-4-0 धर्म परिक्षा ( मनोवेग पवनवेगनी मनोहर कथा ). जैनबत गुजराती कथा संग्रह. ( 16 व्रतोनी कथाओ) 0-1-0 कल्याण मंदिर स्तोत्र ( अर्थ सहित ). महावीर चरित्र. ( दिवाळीने दिवसे यांचवालायक ) 0-3-0 रत्नकरंडं श्रावकाचार ( अर्थ सहित ). 0-2-0 श्रुतपंचमी महात्म्य (श्रुत स्कंध पूजा सहित ) 0-2-0 आलोचना पाठ ( अन्वय अर्थ सहित ). 0-2-0 दिगंबर जैन ज्ञानसंग्रह. ( श्रावकनी क्रिया तथा पदो साथे ) 0-3-0 धर्म प्रबोधनि. ( अन्यमतथी रात्रिभोजन, अभक्ष्य निषेध ) c-2-6 अनित्यपंचाशत ( अर्थ सहित ). 0-4-0 रवीवार व्रत कथा. विद्या लक्ष्मि संवाद. ( मनोहर वार्ता ) ---1-0 कलियुगनी कुळदेवी. ( रमीलं बोधदायक पुस्तक ) जिनालय गमन ( अर्थ सहित ). 0-0-6 जैन नियम पोथी. (नियमो लेबानी पोथी ) . 0-0-6 आलोचना पाठ ( त्रिभक्ति सहित ). 0-1-0 त्यागी पन्नालालजीनी छवी. 0-1-0 पोष्टेज खर्च जूदूं. मेजर, दिगंबर जैन पुस्तकालय, चंदावाडी-सुरत.