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________________ १७५ चैतन्य नथी पण जड अने रुपीछे, एवी शरीरमा जे चैतन्यमाव देखाय छे ते एनो विरुद्धधर्मी अरुपी चैतन्यन ( जीव ) छे, माटे जे प्रमाणे जडरुप शरीर जडरुपनेत्रोथी देखाय छे, ते प्रमाणे अरुपी होवाथी चैतन्य ( जीवपदार्थ ) पण ज्ञान चक्षुथी देखाय छे. एज एनी ज्ञानजनक सामग्रीमा भेद होवाथी शरीर अने चैतननो स्पष्ट भेद छे. जडरुप नेताथी चैतन्य जोवा चाहो, ते कदापि देखाई शके नहि ॥ ४३-४४ ॥ आ प्रमाणे सघळाभूतवादिओमां आत्मानुं अस्तित्व प्रत्यक्ष होवा छतां पण मूढ लोकोए केवीरीते कही दीधु के-परलोक नथी. आत्मा नथी, वगेरे केवी रीते कही दीधुं हशे!॥४५॥ जे प्रमाणे मळेला दूध अने पाणीनी जुदाई कोई विशेष विधिथी करवामां आवे छे ते प्रमाणे आत्मतत्वने जाणवावाळा विद्वान पुरुष आत्मा अने शरीर ने जुदा जुदा जाणे छे ॥ ४६ ॥ घणाएक अल्पज्ञानी बंधमोक्षादि तत्वोनो अभाव कहे छे, माटे तेना सिवाय बीजो कोण धृष्ट छ ? केमके-॥४७॥ आत्मा जो सर्वथी अने सदाकाल कर्मथी बंधातो नथी तो आ दुःखमयी घोर संसारमा कम भ्रमण करे छे ? ॥ ४८ ॥ जो आत्मा नित्य शुद्ध ज्ञानी अने परमात्मा छे तो तेनी आ दुर्गन्धमय अपवित्र शरिरमां स्थिति केम छे ? ज्यारे ए कोईना वशमा छे त्यारे तो ए जेलखाना समान आ दुर्गन्धमय शरीरमा रहे छे, नहि तो शुं करवा रहेते ? ॥ ४९ ॥ जो सुखदुःखादिनुं ज्ञान देहने होय छे तो पछी निर्जीव मुडदांने सुखदुःखादि थर्बु कोण रोकी शके अर्थात् मूडदांने पण सुखदुःखादि थर्बु जोईए ॥ ५० ॥बंघबुद्धिने नाहि करतो आत्मा ज्यां त्यां परिभ्रमण करतो कर्मथी बंधातो नथी एबुं वचन कदापि कहेवू ठीक नथी ॥ ५१ ॥ निबुद्धि जीव ज्यां त्यां केम फरे छे ? कदी जडरुप पर्वतोने पण हालवा चालवानी क्रिया जोवामां आवे
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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