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________________ १७४ थशे! ॥ ३४-३५ ॥ जळथी शररिनो बहारनो मेल धोवाई शके छे, परंतु अंदरनो शुक्र शोणित हाडमांसा दक अथवा पाप धोवई शके छे, ए वात कोना हृदयमां ठरी शके? अर्थात ए वातने कयो बुद्धिमान मानी शके? ॥ ३६ ॥ संसारी जीव जे पाप मिथ्यात्व असंयम अज्ञानथी उपार्जन करे छे, ते पाप निश्चय करीने सम्यकत्व संयम अने ज्ञान वगर कदापि नष्ट थई शकतुं • नथी ॥ ३७ ॥ क्रोध,मान, माया लोभादि कषायोथी उत्पन्न थयेलुं पाप गंगास्नानथी धोवई जाय छे, एबुं वचन मूढात्माज (मूर्खाओज) कहेछे. परीक्षक विद्वान कदी कही शकतानथी ॥३८॥जे जळ शरीरनेज शुद्ध करवामां असमर्थछे ते जळ शरीरनी अंदर रहेवावाळा दुष्ट मनने केवीरीते शुद्ध (निर्मळ) करी शके ? ॥ ३९ ॥ जे लोक एवं कहे छे के-गर्भथी मृत्यु पर्यंत आ जीव पृथ्वी, अप, तेज, वायु ए चार तत्त्वोथीज बनेलो छे, अने ए चार तत्त्वो सिवाय बीजो कोई जीव पदार्थ नथी, ते लोक पोताना आत्माने ठगे छे ॥ ४० ॥ ज्ञान ए जीवनो स्वभाव छे अने ज्ञान- कार्य जाणवू अथवा विचार करवू ए छे. आ जाणवा अथवा विचारवानी शक्ति दरेक देहधारीमां प्रतिक्षणे होय छे. प्रतिक्षणना ज्ञानने पूर्व क्षणचें ज्ञान कारण होय छे अर्थात पहेलाना ज्ञानथी मध्यनुं ज्ञान, मध्यना ज्ञानथी अन्तनुं ज्ञान अने अन्तना ज्ञानथी पहेलानुं ज्ञान उत्पन्न थाय छे. ज्यारे आ प्रमाणे प्रत्येक क्षणना ज्ञानने पूर्व पूर्वनां ज्ञान कारण छे तो तेनो अभाव कदापि थइ शकतो नथी. उयारे ज्ञान गुणनो अभाव नथी त्यारे तेना स्वामीनु अर्थात् जीवनुं अस्तित्व मानकुंज पडशे ॥ ४१-४२ ।। कदाच शरीर जोवामां आववा छतां पण चैतन्य ( जीव ) जोवामां आवतो नथी, परंतु शरीर
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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