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पुरुषोनो संग विष्टाना बे घडा समान होय छे ॥ ७३ ॥ कामिनिरुपी नदी रागरुपी कल्लोल संपदाथी माणसरुपी झाडने पाडी लई जईने संसाररुपी समुद्रमा पटके छे ॥ ७४ ॥ए स्त्री नीच पुरुषोने मोहित करीने नरकमां नांखी दे छे अने तेनी साथे पोते जती नथी, एवी स्त्रीने पंडितो केम सेवन करे छे ? ॥ ७९ ॥ ए भोगवेला दुष्ट भोग छे, ते लाकडांने अग्निनी माफक हृदयने बाळ्या करे छे, ते माटे एना वो बीजो शत्रु क्यां छे ? ॥ ७६ ॥ नाश करी दीधो छे सघळो विवेक नेणे एवी मदिरा समान स्वीथी मोहित थयलो जीव, पोतानुं भलुं बुरुं जाणतो नथी. ते प्रगटज छे ॥ ७७ ॥ आ स्त्री छे, आ पुत्र छे, आ माता छे अने आ पिता छे, एवी बुद्धि कर्मने वशीभुत मूढोनेज होय छे ॥ ७८ ॥ जे संसारमा जन्मथी लईने पालन पोषण करता करतां मनुष्यनो देहम नष्ट थई जाय , ते संसारमा स्त्री पुत्र धनादिकमां निर्वाह केवो ? ॥ ७९ ॥
आ प्रमाणे ब्रह्मचारीना उपदेशथी ते भुतमति मूढ शोक शान्ति करवाने बदले उलटो क्रोधित थईने नीचे प्रमाणे कहेवा लाग्यो. ते उचितज छे के-मूढ चित्तवालाने विद्वानोए आपेलो उपदेश तथा जाय छे ॥ ८ ॥
हे ब्रह्मचारी ! जो स्त्री एवी अत्यंत निंद्य होत तो सघळा मार्गमां विचक्षण चितवाळा ब्रह्मा विष्णु इन्द्रादिक, स्त्रीने हृदयनो हार केम बनावते ? ॥ ८१ ॥ हे ब्रह्मचारी ! जडजेता अशोकादी वृक्ष पण जे स्त्रीने छोडता नहोता, तो सघळा प्रकारना सुख आपवामां चतुर एवी स्त्रीओने आ पुरुष केवीरीते छोडी शके ॥ ८२ ॥ ए पुत्ररुपी फळ आधे