________________
१०४
मनमां भयकारक शंका थाय छे ॥ ९३ ॥ जे पुरुष शास्त्रनी चातने न माने, पोतानी वस्तुने नानी होवा छतां बहु मोटी कहे अने पारकी वस्तुनुं परिमाण न करे, ते पुरुष कुवामांना देडकाना जेवो कहेवाय छे ॥ ९४ ॥ जेम एक समये समुद्रमा रहेनार राजहंसने जोइने कोई कुवाना देडकाए पूछयु के, तमे क्यां रहो छो ? हंसे कह्यु के, हुं समुद्रमा रहुं छु. त्यारे देडकाए पूछयु के तारो समुद्र केटलो मोटो छे, तो हसे कयुं के बहु मोटो छे ॥ ९५ ॥ त्यारे देडकाए पोताना हाथ पग पहोळा करीने कयुं के समुद्र आटलो मोटो छे ? त्यारे हंसे कयुं के, भाई ! समुद्र बहुज मोटो छे. देडकाए का के, शुं मारा कुवाथी पण मोटो छ ? तो हंसे कयुं के भाई, एनाथी बहुज मोटो छे, परंतु ते देडकाए हंसनु कहे, जुठं मान्यु. जे प्रमाणे एक कहेवत छे के,
हाथ पसारे पांव पसारे और पसारा गात ॥
ईससे बडा समुद्र है ( तो) कहन सुननकी वात ॥१॥ माटे हे ब्राह्मणो ! आ देडकानी माफक जे सत्यवचनने पण स्वीकार न करे तेने पंडित माणसो कईपण कहता नथी, कमके सत्पुरुष व्यर्थ कार्य कदी करता नथी ॥ ९६-९७ ॥ जे पुरुष स्वजनोना तथा सारां शास्त्रोना शब्दोद्वारा निवारण करेला शब्दोने नहि सांभळीने ढोल वगेरेना शब्दोथी बीजा शब्दोने आच्छादन करीने कोइ कार्यनो आरंभ करे छे, तेज निकृष्ट कृतकबधिर नामनो मूर्ख कहेवाय छे ॥ ९८ ॥ जे पुरुष राजाने तृष्णावान दुष्टमति, कृपण जाणीने पण छोडतो नथी अने अनेक प्रकारना क्लेश ने भोगवे छे, तेज निंदनीय क्लष्ट भृत्य कहेलो छे ॥ ९९ ॥ जे