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प्रकरण १३ मुं.
ते पछी ब्राह्मणोए कह्यं के-भद्र! जो तें असंभव वात अमारा वेद अथवा पुराणमां जोई होय तो कहो || १ | जो पुराणोमां एवी असंभवता नीकळी आवशे तो अमे पुराणोनुं कथन कदी ग्रहण करीभुं नाह, केमके न्यायनिपुण पुरुष कदी पण न्यायरहित वचनने ग्रहण करता नथी || २ || आ सांभळीने रुषीरूप धारक मनोवेगे कयं के हे ब्राह्मणो! बेशक हुं जाणुं हुं अने कहीश, परंतु कहेतां डरूं छु, केमके ज्यारे में मारुं वृतांत कधुं, त्यारे तो तमे गुस्से थई गया अने हवे तमारा वेदपुराणाना संबंधमां कहीश तो कोण जाणे तमे शुं करी बेसशो ! ॥ ३-४ ॥ ब्राह्मणोए कां के तमे निर्भय थईने कहो. जो तमारा वचनोनी माफक कहेवावालुं कोई शास्त्र हशे तो हमे ते शास्त्रने अवश्य छोडी दईशुं ॥ ५ ॥ त्यारे मनोवेगे कां के जो तमे विचारवान छो तो लो हुं कहुं हुं, एकचित्त थईने सांभळो ॥ ६ ॥
एक समये युधिष्ठरे सभामां कह्युं हनुं के कोई एवो पुरुष छे जे पातालमांची फणीन्द्रने लई आवे ? || ७ | त्यारे अर्जुने कां के है देव ! आपनी आज्ञा होय तो पातालमां जईने सप्तऋषी सहित फणीश्वरन हुं लावी शकुं हुं ॥ ८ ॥ ते पछी अर्जुने गांडीव धनुषवडे तीक्ष्णमुखवाळा छराथी कामथी वियोगिनी स्त्रीनी माफक पृथ्वीने कोरीने काळुं