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________________ १०६ प्रकरण ११ मुं. ए पछी ब्राह्मणोए कहुं के हे भाई ! शुं हमे एवा मूर्ख छीए के जे युक्तिथी खुल्ली रीते सिद्ध करेलां वचनने पण न समजीए ? ॥ १ ॥ त्यारे विद्याधरना चतुर पुत्रे कयु के हे विप्रो ! जो एम छे तो हुं मारा मनोभाव प्रगट करूं छु ते सांभळो ॥ २॥ जे प्रमाणे सूर्यमां तेज छे तेज प्रकारे निवास कोंछे दोष जेमां एवी तपस्यानुं घर एक मंडपकौशिक नामनो तपस्वी हतो ॥३॥ ते एक समये तारामां चन्द्रमानी माफक पवित्र शरिरवाळा तपस्विओनी साथे भोजन करवाने माटे बेठो हतो, त्यारे तेने नोंदनीय चंडालनी माफक बेठेलो जोईने तेनो स्पर्श थवानो छे चित्तमां भय जेमने एवा ते सघळा तपस्वी तेज वखते उभा थई गया ॥ ४-५ ॥ त्यारे मंडप कौशिके तेमने कह्यु के, तमारी साथे भोजन करता मने कूतरा समान जोइने तमे लोको केम उभा थया? ॥ ६ ॥ त्यारे तपस्त्रिओए कह्यु के, तमे पुत्रनुं मुख जोयुं नथी, हमणां सूधी कुमार ब्रह्मचारीज छो, ए माटे तापसिओना नियमथी उलटा छो, केमके, ॥ ७ ॥ पुत्र वगरनानी ( जेणे पुत्रनुं मुख जोयुं न होय तेनी ) गति थती नथी अने तेना तपथी स्वर्ग पण मळतुं नथी. ए कारणथी पहलां ग्रहस्थाश्रम धारणपूर्वक पुत्रनुं मुख जोइने मोक्षने माटे तपस्या ग्रहण करवामां आवे छे. जो तने मोक्षनी इच्छा होय तो पहेलां गृहस्थाश्रम धारणपूर्वक पुत्र मुखनां दर्शन कर ॥ ८ ॥ त्यारे ते मंडपकौशिके ते रुायओनी आज्ञानुसार
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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