SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनशासनने ग्रहण कर्यु. माटे हे मित्र ! हवे तारा प्रसादथी हुं व्रतीरुप रत्नथी भूषित थई जाउं एवो उपाय कर ॥ १६ ॥दूर थई गयुं छे मिथ्यात्र जेनुं एव। पोताना मित्रनी उपर प्रमाणे वाणी सांभळीने मनोक्गने अत्यंत हर्ष थयो, ते ठीकज छे के पोताना उपायथी मनवांछित कार्यनी सिद्धि थवाथी एवो कोण पुरुष छे के जेने तरतज हर्ष न थाय ?॥ ९७ ॥ ते पछी मनोवेगे बीजो कंईपण विचार न करतां तेज वखते जिनेंद्र वचनोनी वासनावाळा पोताना मित्रने लईने जलदीथी उज्जयनि नगरीमां जवानो विचार कयों, ते ठीकज छ के एवो कोण पुरुष छे के जे मित्रोतुं प्रयोजन साधवामां प्रमाद करे? ॥ १८ ॥ जे प्रमाण इन्द्र उपेन्द्र नन्दनवनमां जाय छे, ते प्रमाणे अंधकारनो नाश करनारा आभूषणोथी अलंकृत ते बन्ने मित्र मनना वेगनी माफक चालनारा विमानमां बेसीने प्रसन्नता साथे उज्ज्यनी नगरीना वनमां गया. ॥ ९९ ॥ वनमां पहोंचीने ते बन्ने मित्र मनरूपी घरमा रहेनारा अनिवार्य लोकव्याप्त मोहरूपी अंधकारने वाक्यरूपी किरणोथी नाश करवामां समर्थ, अपरिमाण छे ज्ञाननी गति जेनी एवा केवळज्ञानीरूप सूर्यने भक्तिपूर्वक नमस्कार अथवा स्तुति करीने जिनमति नामना मुनिना चरणोनी पासे बेसी गया. ॥ १० ॥ आ प्रमाणे श्री अमितगतिआचार्य कृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ... ग्रंथनी गुजराती भाषाटिकामां अढारमुं प्रकरण पूर्ण थयु.
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy