________________
मन, वचन, कायाथी तेनी रक्षा करवी जोईए ॥ १८ ॥ हिंसा बे प्रकारनी छे. एक आरंभी अने बीजी अनारंभी. मुनि तो बन्ने प्रकारनी हिंसाने छोडे छे, परंतु ग्रहस्थ अनारंभी हिंसानेज छोडी शके छे ॥१९॥ जे श्रावक मोक्षनी इज्छा राखनारा अने करुणाना धारक छे, तेओए निरर्थक स्थावर जीवोनी हिंसा पण करंबी जोइए नहि ॥ २० ॥ घणाएक दयाहिन देवता, अतिथि, औषधि, पितृयज्ञ अथवा मंत्रादि साधवाने माटे जीवोनी हिंसा करे छे, परंतु ए माटे पण कदापि जीवहिंसा करवी जोईए नहि ॥ २१ ॥ कोई जीवने बांधवो, मारवो, नाक कान छेद, कापवू, बहु भार लादवो, भूखे तरसे राखबो, वगेरे अतीचारो सहित हिंसानो त्याग करवाथी अहिंसाणुव्रत स्थिर थाय छे ॥ २२ ॥ ___ जीभना स्वादने वशीभूत थई मांस भक्षणना लोभमां भयभीत जीवोनो प्राण हरवो कदी योग्य नथी ॥ २३ ॥ जे पुरुष पोताना शरीरनी पुष्टिने माटे पारकुं मांस खाय छे ते निर्दयी हिंसक नरकना अनंत दुःखोथी छूटी शकतो नथी ॥ २४ ॥ ए तो नियमज छे के, मांस भक्षीना चित्तमां कोई रीते पण दया होई शकती नथी. ज्यारे दयाज नथी तो ते निर्दय पुरुषमा धर्मनो अंश क्याथी होय ? अने धर्म रहित जीव अनेक दुःखोनु घर सातमा नर्कमां जाय छे. ॥२५ ॥ जेनुं चित्त प्राणीघात करती वखते जोवा अथवा स्पर्श करवाने दोडे छे, ते पण नरकमां जाय छे तो पछी हिंसा करनारा नर्कमां केम नहि जाय ? ॥ २६ ॥ जे पुरुष मांसनी लोलुपताथी जन्मारा सुधी हिंसा करे छे ते नर्करूपी कूवामांथी कदी नीकळशे नहि ॥ २७ ॥ जे मनुष्य मांस भक्षण करवामां रत होय छे, तेने नर्कमां नारकी