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कार समान जेना शरीरमा स्थान मेळवता नथी, अने जेणे सघळां पापोने नष्ट करीने केवलज्ञान प्राप्त कर्यु, अने जे जगतना सघळा चराचर पदार्थानी व्यवस्थाने जाणे छे, तेज त्रिलोकपूज्य सिद्धि साधक आप्त स्वरुप जिनेद्र भगवाननेज उ-तम पुरुष सेवन करे छे ॥९१-९२ ॥ मे सघळा नर सुर विद्याधरने वेधवावाळा कामना बाणोथी नह टूठया, अने संसाररुपी वृक्षने कापवानो छे आशय जेनो एवा जितद्रिय छे. तेज यति एटले गुरु छे ॥ ९३ ॥ अने तेज धर्मरुपी वृक्ष छे के जेनी जीवदया पालनरुपी मजबूत जड छे, सत्य शौच शम शीलादिक पांतरां छे अने इष्ट सुखरुप फलोना समूहने फले छे ॥ ९४ ॥ अने लेना वडे पंडित अन सकारणयुक्तिथी समस्त बाधारहित, सिब्धिपद देखाडवामां तत्पर एवा बंधमोक्षनी विधि जाणे छे, तेज सत्यार्थ शास्त्र छे ॥ ९५ ॥ जो मद्य, मांस अथवा स्त्रिओना अंगर्नु सेवन करत्रावाळा रागी पुरुषज धर्मात्मा होय तो पछी कलाल अथवा मद्यपान करवावाळो खाटकी वगेरे व्यभिचारी माणसज निराकुल थईने स्वर्ग चाल्यो जशे ॥ ९६ ॥ जे यति क्रोध लोभ मद मोहादिथी मर्दित छे, पुत्र दारा धन मदिरादिने चाहना वाळा, धर्म संयम दामादयी रहीत छे, तेओ संसारी जीवोने भव समुद्रमा नांखवावाळा छे ॥ ९७ ॥ हे मित्र ! देव तो राग द्वेषादि दोषोथी दृषित, यति परीग्रहना संगथी भ्रष्ट अथवा व्याकुल, अने धर्म जीवाहंसामयी, ए त्रणे सेवन करवाथी तरतज भवसमुद्रमा नांखी दे छे ॥ ९८ ॥ जन्ममृत्युरुप अनेक मतो थी तथा राग द्वेष मद मत्सरार्दिी व्याप्त आ लोकमां मोशनो मार्ग मळवो दुर्लभ छे, ते माटे हे मित्र : तुं हमेशां परिक्षाप्रधानी थईने रह ॥९९॥ अन्मजरामरण रहित देवो बडे बंदनीय देव, अने दूर कयों छे परिग्रह